गंगोली का उत्तर कत्यूरी राजवंश

 गंगोली का उत्तर कत्यूरी राजवंश

    भारतीय इतिहास को जिस प्रकार गुप्त और उत्तर गुप्त शासन काल में विभाजित किया गया, ठीक इसी प्रकार उत्तराखण्ड के प्राचीन कत्यूरी राजवंश को भी कत्यूरी और उत्तर कत्यूरी काल में विभाजित किया गया है। मध्य हिमालय के इस राजवंश के विभाजन स्वरूप उत्तराखण्ड के कुमाऊँ क्षेत्र में कुछ क्षेत्रीय राज्य अस्तित्व में आये थे, जिनमें से एक गंगोली का उत्तर कत्यूरी राजवंश भी था। वर्तमान गंगोलीहाट और उसके आस पास का क्षेत्र प्राचीन काल में गंगोली कहलाता था, जहाँ एक स्वतंत्र राज्य के रूप में सर्वप्रथम जो राजवंश अस्तित्व में आया, उसे गंगोली का उत्तर कत्यूरी राजवंश कहा गया। 

    उत्तराखण्ड के मध्य हिमालय क्षेत्र में प्रवाहित सरयू और पूर्वी रामगंगा के अंतस्थ क्षेत्र के संबंध में पं. बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ’’सरयू और रामगंगा के बीच की रमणीक व उपजाऊ भूमि गंगावली (गंगोली) के नाम से विख्यात है।’’ वर्तमान में इस रमणीक व उपजाऊ भू-भाग में पिथौरागढ़ जनपद के गंगोलीहाट, गणाई-गंगोली, बेरीनाग एवं थल तहसील तथा बागेश्वर जनपद के काण्डा, दुग-नाकुरी और कपकोट तहसील सम्मिलित हैं। यह समस्त क्षेत्र पश्चिम और दक्षिण में सरयू तथा पूर्व की ओर से पूर्वी-रामगंगा नदी से धिरा है। जबकि इस क्षेत्र के उत्तर में कफनी हिमनद का दक्षिणी पर्वत है, जिसके दक्षिणी पनढाल से ही सरयू और पूर्वी रामगंगा नदी का उद्गम होता है। गंगोलीहाट तहसील के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित रामेश्वर मंदिर से मात्र 50-70 मीटर दूरी पर इन दोनों पौराणिक नदियों का प्रयाग है, जिसे ‘रामेश्वर घाट’ कहा जाता है।

    वैदिक नामकरण वाली नदियों सरयू-पूर्वी रामगंगा के अंतस्थ क्षेत्र में लगभग तेरहवीं शताब्दी के आस पास एक नवीन राजवंश का उदय हुआ, जिसे गंगोली का उत्तर कत्यूरी राजवंश कहा जाता है। कुछ विद्वान गंगोली के इस राजवंश को मणकोटी राजवंश से भी संबद्ध करते हैं। गंगोलीहाट नगर के निकटवर्ती मणकोट नामक एक प्राकृतिक दुर्ग से संचालित राज्य को मणकोटी राज्य तथा शासकों को मणकोटी राजवंश से संबद्ध किया जाता है। गंगोली क्षेत्र का इतिहास अति प्राचीन है। प्रागैतिहासिक कालीन ताम्र-निखात संस्कृति का केन्द्र बनकोट, पाताल भुवनेश्वर गुहा और कुमाऊँ के प्रसिद्ध नाग मंदिर आदि इस क्षेत्र के प्राचीन इतिहास के प्रमुख स्रोत हैं।

     प्राचीन काल में यह क्षेत्र क्रमशः कुणिन्द, कर्तृपुर, ब्रह्मपुर, कार्तिकेयपुर और कत्यूरी राज्य का अभिन्न अंग रहा था। कत्यूरी राजवंश के पतनोपरांत तेरहवीं शताब्दी में यह क्षेत्र एक पृथक राज्य के रूप में स्थापित होने में सफल रहा था। इसका श्रेय इतिहासकार गंगोली के उत्तर कत्यूरी राजवंश को देते हैं। इस राजवंश के अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध हैं। गंगोलीहाट नगर के जाह्नवी नौले की वाह्य प्राचीर पर स्थापित लेखयुक्त शिलापट्ट, गंगोली में उत्तर कत्यूरी राज्य को प्रमाणित करता है। तेरहवीं शताब्दी का यह अभिलेख उत्तराखण्ड में केन्द्रीय सत्ता के स्थान पर क्षेत्रीय राजसत्ता स्थापित होने की भी पुष्टि करता है।

तेरहवीं शताब्दी और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य-

    तेरहवीं शताब्दी के अंत तक कत्यूरी राज्य अनेक क्षेत्रीय राज्यों में विभाजित हो चुका था। ‘‘यह युग समूचे उत्तर-भारत में बहुत राजनैतिक उथल-पुथल का भी था। दिल्ली में गुलाम वंश की स्थापना (सन् 1206 ई.) हो चुकी थी। मध्य हिमालय में यह एक ऐसा अवसर था, जब सर्वत्र बड़े राज्यों के स्थान पर छोटे-छोटे प्रान्तपति स्वतंत्र होकर महत्वाकांक्षी हो गये थे।’’ इन ऐतिहासिक घटनाओं के मूल में बारहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में हुए वाह्य आक्रमण थे। इस पर्वतीय क्षेत्र पर जहाँ सन् 1191 ई. में नेपाली शासक अशोकाचल्ल ने आक्रमण किया, वहीं दिल्ली पर तुर्क मुहम्मद गोरी ने आक्रमण किया। तराईन का प्रथम युद्ध (1191 ई.) हारने के पश्चात मुहम्मद गोरी तराईन के द्वितीय युद्ध (1192 ई.) में दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान को पराजित करने सफल रहा था। यह एक संयोग था कि सन् 1191 ई. में भारत पर उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्व दिशा से वाह्य आक्रमण किये गये थे। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में जहाँ मुहम्मद गोरी कुछ भारतीय क्षेत्रों में मुस्लिम राज्य की नींव रखने में सफल हुआ, वहीं चमोली के गोपेश्वर त्रिशूल लेखानुसार आक्रमणकारी अशोकाचल्ल ने मध्य हिमालय में ‘धर्म राज्य’ की स्थापना की थी। 

    बारहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में हुए वाह्य आक्रमण के कारण मध्य हिमालय क्षेत्र में धीर-धीरे शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता का ह्रास होता गया। तेरहवीं शताब्दी में घटित घटनाएं इस तथ्य को स्थापित करतीं हैं। कुमाऊँ के संबंध में डॉ. रामसिंह लिखते हैं-‘‘अतः कहा जा सकता है कि लगभग 12 वीं शताब्दी के पश्चात का कालखण्ड सोर (पिथौरागढ़) सहित कुमाऊँ में छोटे-छोटे राजतंत्रों के अभ्युदय का युग था। केन्द्रीय सत्ता के दुर्बल पड़ते ही उनके स्थानीय सामन्तों ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया था।’’ उत्तराखण्ड के इतिहासकार इन स्थानीय सामन्तों को ही उत्तर कत्यूरी कहते हैं। सन् 1264 ई. के आस पास गंगोली में भी एक स्वतंत्र सत्ता स्थापित थी, जिसे गंगोली का उत्तर कत्यूरी राजवंश कहा जाता है। गंगोलीहाट का जाह्नवी नौला अभिलेख उत्तर कत्यूरी राजसत्ता की पुष्टि करता है।

जाह्नवी देवी नौला अभिलेख-

    गंगोलीहाट नगर से महाकाली मंदिर (हाट कालिका) हेतु पैदल मार्ग पर लगभग 200 मीटर दूरी पर जाह्नवी देवी नौला स्थित है। इस प्राचीन नौला परिसर में ग्यारह प्राचीन मंदिरों का एक समूह है। इन प्राचीन मंदिरों में शिवलिंग, विष्णु की चतुर्भुज और शेषशायी तथा हनुमान आदि की प्रस्तर मूर्तियां थापित हैं। लेकिन मंदिर परिसर में कत्यूरी शैली में निर्मित नौले के कारण स्थानीय लोग इस परिसर को ‘जानदेवी’ कहते हैं। नौले का मुख्य भाग वापिका कहलाता है, जहाँ स्रोत्र युक्त जलकुण्ड होता है। इस नौले के वापिका के वाह्य भाग में स्तम्भ युक्त अर्द्ध मण्डप है, जिसके दायें पार्श्व की प्राचीर पर प्रस्तर शिलापट्ट स्थापित है। नागर लिपि में उत्कीर्ण इस अभिलेख पर तीन तिथियां अंकित हैं। विक्रम संवत् १३२१ तिथि (सन् 1264 ई.), जो शिला लेख की दूसरी पंक्ति में अंकित है। अन्य दो तिथियां 1189 व 1197 स्पष्ट रूप में शाके में उत्कीर्ण हैं। शाके 1197 से स्पष्ट होता है कि इस नौले का निर्माण कार्य सन् 1275 ई. में पूर्ण हो चुका था। इस प्रस्तर-लेख में एक मात्र राजा ’रामचंद्रदेव’ का उल्लेख सातवीं पंक्ति में किया गया है।

 

                       जाह्नवी देवी नौला अभिलेख

राजा रामचन्द्रदेव- 

    गंगोलीहाट के नौला अभिलेख के आधार पर राजा रामचंद्रदेव को गंगोली में उत्तर कत्यूरी राजवंश का संस्थापक थे। जाह्नवीं नौला और परिसर में स्थित मंदिर समूह का निर्माण करवाने का श्रेय भी राजा रामचन्द्रदेव को दे सकते हैं। इसलिए विद्वान इस मंदिर समूह को राम मंदिर समूह भी कहते हैं। यह नौला अभिलेख राजा रामचन्द्रदेव के शासन काल को सन् 1264 ई. से 1275 ई. तक अवश्य निर्धारित करता है। मणकोटी या उत्तर कत्यूरी कहे जाने वाले राजा रामचंद्रदेव किस वंश से संबंध रखते थे ? इस प्रश्न की विवेचना आवश्यक है।

राम मंदिर समूह का एक मंदिर 

 क्या राजा रामचन्द्रदेव रैका वंश के थे ?

    जाह्नवी नौला निर्मित करवाने वाले राजा के संबंध में पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘गंगोलीहाट में एक पुराना नौला (बाँवरी) है। इसको रैका राजा ने बनवाया था।’’ क्या राजा रामचन्द्रदेव का संबंध रैका राजवंश से था ? कुमाऊँ के इतिहास पर अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले डोटी के मल्ल राजाओं को रैका भी कहा जाता था। कुमाऊँ में इनका सबसे दुर्जेय दुर्ग सीराकोट (वर्तमान डीडीहाट के निकट) था। सोलहवीं शताब्दी में चंद राजा रुद्रचंददेव इस दुर्ग को रैका-मल्ल शासक हरिमल से छीनने में सफल हुए थे। इस दुर्ग के हाथ से निकलते ही रैका-मल्ल वंश का शासन सदैव के लिए कुमाऊँ से समाप्त हो गया। डोटी के इस राजवंश की वंशावली कई पुस्तकों में प्रकाशित हो चुकी है। लेकिन इनकी वंशावली से राजा रामचन्द्रदेव का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है।

जाह्नवी नौला

    प्रकाशित रैका-मल्ल वंशावली के अनुसार इनके वंश का प्रथम पुरुष सूर्यवंशी ‘शालिवाहन’ था, जो अयोध्या से उत्तराखण्ड आये थे। आठवीं-नौवीं शताब्दी में इस वंश में आसन्तिदेव और बासन्तिदेव नामक राजा हुए, जिन्हें इतिहासकार कत्यूरी राजा कहते हैं। बागेश्वर के कत्यूर घाटी के बैजनाथ से संचालित राज्य को विद्वान कत्यूरी राज्य तथा शासकों को कत्यूरी राजवंश से संबद्ध करते हैं। बैजनाथ को विद्वान प्राचीन कार्तिकेयपुर से भी संबद्ध करते हैं। रैका-मल्ल वंशावली और अस्कोट की पाल वंशावली, राजा शालिवाहन से त्रिलोकपाल तक लगभग एक जैसी प्रतीत होती है। लेकिन पाल वंशावली में शालिवाहन से त्रिलोकपाल तक 12 राजाओं के नाम अधिक हैं। इन दोनां ही राजवंशों की वंशावली से त्रिलोकपाल के पश्चात भिन्न-भिन्न राजाओं के नाम प्राप्त होते हैं। अतः विद्वानों का मत है कि त्रिलोकपाल के पश्चात कत्यूरी वंश का विभाजन हो गया था। इस विभाजन वर्ष को सन् 1279 ई. माना जाता है। इस वर्ष को कत्यूरी राज्य हेतु पंडित बद्रीदत्त पाण्डे ‘राष्ट्र-विप्लव’ की संज्ञा देते हैं।

    शालिवाहन वंशज कत्यूरी राजा त्रिलोकपालदेव और गंगोली के राजा रामचन्द्रदेव समकालीन थे। नौला लेख में रामचन्द्रदेव का नाम ‘महाराजा राजाधिराज’ उपाधि रहित उत्कीर्ण है। संभवतः राजा रामचन्द्रदेव गंगोली में कत्यूरी वंश के एक सामान्त शासक थे। रामचन्द्रदेव भी कत्यूरियों की भाँति ‘देव’ उपाधि धारण करते थे। इसलिए उन्हें कत्यूरी वंश से ही संबद्ध कर सकते हैं। देव उपधि के कारण अधिकांश इतिहासकार भी उनको उत्तर-कत्यूरी शासक मान्य करते हैं। अतः कत्यूरियों की एक शाखा रैका-मल्ल वंश से रामचन्द्रदेव का रौधिरिक या राक्तिक संबंघ था। सन् 1279 ई. को कत्यूरी राज्य के विभाजन के कारण रामचन्द्रदेव गंगोली में एक स्वतंत्र राजा सत्ता स्थापित कर में सफल हुए। कत्यूर घाटी के बैजनाथ से राजा रामचन्द्रदेव के परवर्ती राजाओं का एक शिलालेख प्राप्त है, जो गंगोली में उत्तर-कत्यूरी राजवंश को स्थापित करता है।

 बैजनाथ अभिलेख-

     गंगोली के उत्तर-कत्यूरी राजाओं से संबंधित एक प्रस्तर लेख कत्यूर घाटी के बैजनाथ से प्राप्त हुआ है। बैजनाथ, बागेश्वर जनपद के गोमती घाटी में स्थित गरुड़ उपनगर के निकट स्थित है, जहाँ 15 प्राचीन मंदिरों का एक समूह है। विद्वान बैजनाथ को ही कार्तिकेयपुर की संज्ञा देते हैं। ‘कार्तिकेयपुर’ नाम का उल्लेख छठी शताब्दी के पौरव राजाओं के ताम्रपत्रों एवं नौवीं शताब्दी के तथाकथित कत्यूरी राजाओं के ताम्रपत्रों से प्राप्त होता है। कत्यूरी शासक लखनपाल के प्रस्तर लेख से भी कार्तिकेयपुर का उल्लेख प्राप्त होता है। गंगोली राज्य से संबद्ध बैजनाथ प्रस्तर लेख के संबंध में पडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘बैजनाथ मंदिर में सन् 1352 ई. का एक पत्थर निकला था, जिसमें लिखा है कि गंगोली के राजा (हमीरदेव, लिंगराज, धारलदेव) ने मंदिर का कलश बनवाया।’’ इस प्रस्तर लेख में उल्लेखित गंगोली के राजा क्रमशः हमीरदेव, लिंगराजदेव और धारलदेव, राजा रामचन्द्रदेव के परवर्ती थे। इस अभिलेख में उल्लेखित राजाओं को भी उत्तर कत्यूरी शासक कहा गया। 

 गंगोली के उत्तर कत्यूरी राजा-

    डॉ. रामसिंह जाह्नवीं नौला और बैजनाथ अभिलेख के आधार पर गंगोली के तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के नरेशों की सूची इस प्रकार से निर्धारित करते हैं -

1- राजा रामचंद्रदेव 1250-1285 ई. (अनुमानित), जाह्नवी नौला अभिलेख 1264-1275 ई.।

2- हमीरदेव 1285 ई. (अनुमानित)।

3- लिंगराजदेव 1310 से 1330 ई. (अनुमानित)।

4- धारलदेव 1330 से 1360 ई. (सन् 1352 ई. के बैजनाथ अभिलेख के आधार पर)।

    कत्यूरी राज्य के विभाजन के पश्चात गंगोली में उत्तर कत्यूरी शासकों का स्वतंत्र शासन लगभग सन् 1279 से 1360 ई. तक रहा था। धारलदेव के पश्चात गंगोली में सन् 1360 ई. के आस पास मणकोटी राजवंश का उदय होता है। सम्भवतः सन् 1352 ई. के आस पास ही गंगोली में सत्ता परिर्वतन की घटना घटित हुई। जब धारलदेव मंदिर कलश निर्माण हेतु बैजनाथ गये थे, तो संभवतः मणकोटी राजवंश के प्रथम राजा कर्मचंद ने उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर गंगोली में सत्ता परिवर्तन कर दिया। इस सत्ता परिर्वतन में स्थानीय उप्रेती ब्राह्मणों का उन्हें सहयोग प्राप्त था। इसलिए मणकोटी राज्य के आरंभिक वर्षों में उप्रेती ब्राह्मण ‘दीवान’ जैसे महत्वपूर्ण राज्य पद पर आसित थे। 

    गंगोली राज्य पर उत्तर कत्यूरियों ने लगभग 81 वर्ष स्वतंत्र तथा मणकोटी राजवंश ने लगभग 200 वर्ष राज्य किया। मणकोटी वंश के संबंध में कहा जाता है कि इस वंश के शासक डोटी के रैका-मल्ल शासकों को कर देते थे। चंद राजा कल्याणचंददेव ने सन् 1560 ई. में गंगोली पर अधिकार कर लिया और सन् 1581 ई. में रुद्रचंददेव द्वारा सीराकोट विजित करने के साथ ही गंगोली क्षेत्र पर अस्कोट-पाल वंश का सामन्तीय शासन आरंभ हो गया। यह सामन्तीय शासन लगभग सन् 1622 ई. तक चला। उत्तरोत्तर चंद काल में गंगोली राज्य एक प्रशासनिक क्षेत्र ‘परगना’ कहलाया, जिसे ब्रिटिश काल में बेल, भेरंग, अठगांव, कमस्यार, बड़ाऊँ, पुंगराऊँ, दुग, तल्ला दानपुर और बिचला दानपुर आदि पट्टियों में विभाजित कर दिया गया। वर्तमान में बेल-भेरंग से गंगोलीहाट, अठगांव से गणाई-गंगोली, कमस्यार से काण्डा, भेरंग-बड़ाऊँ-पुंगराऊँ से बेरीनाग और थल, दुग से दुग-नाकुरी तथा तल्ला-बिचला दानपुर से कपकोट तहसील अस्तित्व में आ चुके हैं।

डॉ. नरसिंह

  


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