गंगोली का राजनीतिक भूगोल : एक ऐतिहासिक परिदृश्य-
गंगोली का राजनीतिक भूगोल : एक ऐतिहासिक परिदृश्य-
कुमाऊँ का ‘गंगोली’ क्षेत्र भी एक विशिष्ट सांस्कृतिक और भौगोलिक क्षेत्र है। इस विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र को सरयू-पूर्वी रामगंगा का अंतस्थ क्षेत्र भी कह सकते हैं। वर्तमान में गंगोली का मध्य-पूर्व और दक्षिणी क्षेत्र पिथौरागढ़ तथा मध्य-पश्चिमी और उत्तरी क्षेत्र बागेश्वर जनपद में सम्मिलित है। गंगोली के राजनीतिक भूगोल का अर्थ- इस विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र का प्राचीन काल से मध्य हिमालय के विभिन्न राज्य-राजवंशों से संबद्धता को स्पष्ट करना है। मानसखण्ड में इस क्षेत्र को शैल प्रदेश तथा तेरहवीं सदी में यह क्षेत्र एक स्वतंत्र राज्य ‘मणकोट’ के नाम से अस्तित्व में आया। चंद और गोरखा काल में यह क्षेत्र ‘गर्खा’ नामक एक प्रशासनिक इकाई था। ब्रिटिश काल में गर्खा को ‘परगना‘ कहा गया। वर्तमान में यह क्षेत्र दो जनपदां के मध्य सात तहसीलों में विभाजित है।
कुमाऊँ अंचल (मध्य हिमालय) के प्राचीन गंगोली क्षेत्र को ‘गंगावली’ भी कहा जाता था। वर्तमान में यह क्षेत्र गंगोलीहाट, बेरीनाग, काण्डा और गणाई गंगोली, दुग नाकुरी, कपकोट और थल तहसील में विभाजित है। ब्रिटिश काल (सन् 1936-37) में इस क्षेत्र के भूगोल को रेखांकित करते हुए बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘नदियां- सरयू, रामगंगा, नरगूल व पातालगंगा हैं। इसलिए इस परगने का नाम संस्कृत में गंगावली है अर्थात् गंगाओं की भूमि या दो गंगाओं के बीच की भूमि।’’ गंगावली अर्थात नदियों की कतार। गंगावली या गंगोली क्षेत्र की सभी नदियों का समागम सरयू या पूर्वी रामगंगा नदी में होता है। इस क्षेत्र के उत्तर में सयूरगुल की पर्वत श्रेणी, जो बागेश्वर के झूनीगांव के उत्तर से कफनी हिमनद तक जाती है। इस विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र के पूर्व में रामगंगा तथा पश्चिम और दक्षिण दिशा में सरयू नदी प्रवाहित है।
सयूरगुल पर्वत श्रेणी की दक्षिणी पनढाल की सहस्र धाराओं से सरयू और पूर्वी रामगंगा का उद्गम होता है, जो नंदाकोट पर्वत के तलहटी में स्थित कफनी हिमनद की दक्षिणी पर्वत श्रेणी है। कफनी और पिण्डर हिमनद से निकलने वाली जल धाराओं का संगम ‘द्वाली’ नामक स्थान पर होता है। द्वाली एक घाटी स्थित है, जिसके दक्षिणी पर्वत श्रेणी को ही सयूरगुल पर्वत श्रेणी कहा जाता है और जिसकी ठीक दक्षिणी पनढाल पर ही सरयू नदी घाटी में अंतिम गांव झूनी है। इस अंतिम गांव से नंदादेवी और नंदाकोट पर्वत की हवाई दूरी क्रमशः 26 और 17 किलोमीटर मात्र है। सरयू और पूर्वी रामगंगा का संगम रामेश्वर घाट, गंगोलीहाट में होता है। अतः ‘गंगोली’ एक विशेष भू-भाग है, जो सरयू और पूर्वी रामगंगा तथा इन नदियों के उद्गम पर्वत श्रेणी सयूरगुल से घिरा है। सरयू घाटी के अंतिम गांव झूनी से रामेश्वर घाट (गंगोलीहाट) की हवाई दूरी मात्र 70 किलोमीटर है।
गंगोली का भौतिक मानचित्र जहाँ निश्चित है, वहीं इस क्षेत्र का राजनीतिक भूगोल समय-समय पर परिर्वतित होता गया। ‘‘इस क्षेत्र का सर्वप्रथम उल्लेख सातवीं से नौवीं शताब्दी के कालखण्ड में रचित स्कन्द पुराण के ‘मानसखण्ड’ के अध्याय 96 से प्राप्त होता है। इस पुराण में सरयू-पूर्वी रामगंगा के अंतस्थ क्षेत्र को ‘शैल’ स्थल कहा गया है- ‘‘शरयू रामसरितोर्मध्ये शैलस्थलं शुभ।’’ गंगोली का प्राचीन इतिहास, मध्य हिमालय के प्राचीन इतिहास से संबद्ध रहा था। मध्य हिमालय का प्राचीन इतिहास पाषाण कालीन गुहा चित्र पुरास्थलों (अल्मोड़ा-चमोली) से आरम्भ होता है। ‘‘सन् 1968 में, अल्मोड़ा जनपद में सुयाल नदी के दायें तट पर ‘लखु-उड्यार’ के चित्रित शैलाश्रय की खोज मध्य हिमालय की पहाड़ियों में प्रागैतिहासिक गुहा-चित्रों की प्रथम खोज थी।’’ अल्मोड़ा के प्रमुख गुहा-चित्र पुरास्थलों- ल्वेथाप, लखु उड्यार, पेटशाल फलसीमा आदि से सरयू-पूर्वी रामगंगा अंतस्थ क्षेत्र या गंगोली लगभग 30-40 किलोमीटर की परिधि पर है। ‘‘1986 ई. में अल्मोड़ा से एक तथा 1989 ई. में पिथौरागढ़ जनपद के बनकोट स्थान से समरूप आठ ताम्र-उपकरण प्राप्त हुए।’’ बनकोट गंगोली क्षेत्र में ही स्थित एक गांव है जहाँ से प्राप्त ताम्र-उपकरणों को इतिहासकार आद्य प्रागैतिहासिक काल (ताम्रयुग) से संबद्ध करते हैं, जिसे ‘‘ताम्र-निखात संस्कृति’’ भी कहा जाता है।
महाभारत और मुद्राओं के आधार पर उत्तराखण्ड का प्राचीन ऐतिहासिक राजवंश कुलिंद या कुणिंद था। इस वंश की मुद्राएं उत्तराखण्ड के अनेक स्थलां से प्राप्त हुईं हैं। उत्तरकाशी के देवढुंगा, टिहरी के थत्यूड़ और अठूड़, पौड़ी के सुमाड़ी (श्रीनगर), भैड़गांव और पाण्डुवाला (लालढ़ांग), बागेश्वर के कत्यूर घाटी, तथा अल्मोड़ा से कुणिंद मुद्राएं प्राप्त हुई हैं। अल्मोड़ा और कत्यूरी घाटी, गंगोली के सीमावर्ती क्षेत्र हैं, जहाँ से क्रमशः 5 और 54 ‘अल्मोड़ा प्रकार’ की कुणिंद मुद्राएं प्राप्त हुई हैं। उत्तराखण्ड के विभिन्न क्षेत्रां से कुणिंद मुद्राएं प्राप्त होने से प्रतीत होता है कि ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से ईसा के पश्चात तृतीय शताब्दी तक गंगोली क्षेत्र कुणिंद जनपद के अधीन था।
उत्तराखण्ड मध्य हिमालय को यहाँ निवास करने वाली प्राचीन किरात और खस जातियों के कारण क्रमशः किरात और खस मण्डल भी कहा जाता है। ‘‘किरात मण्डल की स्थापना सम्भवतः कुलिन्दों की शक्ति के क्षीण होने के उपरांत ही हो पायी थी।’’ अस्कोट, पिथौरागढ़ के राजी या वनरावत किरात वंशज कहलाते हैं। ‘‘अस्कोट के राजी इन्हीं के अवतंस हैं।’’ बागेश्वर मंदिर को बाघनाथ भी कहा जाता है, जो किरातों के देवता थे। गंगोली क्षेत्र अस्कोट और बागेश्वर के मध्य में स्थित है। इसलिए कुणिंदों के पतनोपरांत गंगोली का राजनीतिक भूगोल ‘किरात मण्डल’ से अवश्य संबद्ध रहा था।
किरात मण्डल को खस मण्डल ने प्रतिस्थापित किया। बागेश्वर मंदिर शिलालेख के संबंध में प्रो.डी.डी. शर्मा लिखते हैं- ‘‘कुमाऊँ के खश शासक खर्परदेव के वंशज राजा त्रिभुवनराज ने किसी ‘किरातपुत्र’ के साथ संधि की थी।’’ कुमाऊँ में आज भी क्षत्रियों को खसिया कहा जाता है। गंगोली में मणकोटी कालखण्ड से खसों के स्थान पर ब्राह्मणों का वर्चस्व हो गया। इस संबंध में यह कुमाउनी कहावत प्रचलन में है-‘‘सोर खै खसियाले, गंगोल खै बामुनले।’’ अर्थात सोर (पिथारौगढ़) राज्य के सर्वसर्वा क्षत्रिय तथा गंगोली राज्य के सर्वसर्वा ब्राह्मण थे। गंगोली में कुमाऊँ के प्रसिद्ध ब्राह्मणों- पंत, उप्रेती, पाठक, जोशी, पाण्डे, उपाध्याय, कोठारी, भट्ट और बिष्ट आदि के गांव है। इनमें सर्वाधिक गांव पंत ब्राह्मणों के हैं, जिनमें उपराड़ा, अग्रौन, चौउडियार, देवराड़ी, बना, कमदिना, किरौली, वर्षायत, गराऊँ, काण्डा, भट्टी गांव और खन्तोली आदि गांव हैं, जो पंतों को विभिन्न राठों में विभाजित करते हैं।
तीसरी-चौथी शताब्दी में खस मण्डल पर शक जाति ने अधिकार कर लिया, जिनके राज्य का नाम गुप्त कालीन शासक समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति में ‘कर्तृपुर’ नाम से उत्कीर्ण है। चन्द्रगुप्त-ध्रुवस्वामिनी प्रकरण पर दशवीं शताब्दी के लेखक राजशेखर ने शक राजा को ‘‘खशाधिपति’’ कहा और यह राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा पराजित हुआ था। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने खशाधिपति को पराजित करने के पश्चात संभवतः पाल-डोटी वंश के मूल पुरुष शालिवाहन को कर्तृपुर राज्य में प्रतिनिधि शासक के रूप में नियुक्त किया। ‘‘राजा शालिवाहन अयोध्या के सूर्यवंशी राजपूत थे।’’ शालिवाहन और उनके वंशजों ने आठवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक अपनी सत्ता का केन्द्र चमोली के जोशीमठ को बनाया था। आठवीं शताब्दी के तृतीय चतुर्थांश में शालिवाहन वंशज आसन्तिदेव कत्यूर घाटी आये और तब से यह वंश कत्यूरी कहलाता है। तेरहवीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में यह वंश राजा त्रिलोकपाल के पश्चात उत्तर कत्यूरियों में विभाजित हो गया था।
मध्य हिमालय में उत्तर गुप्त कालखण्ड के अंतिम चरण में पौरव वंश का उदय हुआ, जिनके ताम्रपत्रों में ‘‘पर्वताकार राज्य’’ का उल्लेख है। छठी शताब्दी के इस राज्य की राजधानी ब्रह्मपुर थी। इस वंश के दो ताम्रपत्र अल्मोड़ा जनपद के स्याल्दे तहसील के तालेश्वर गांव से प्राप्त हुए हैं।
विद्वानों ने ब्रह्मपुर राज्य के भूगोल को निधारित करने का प्रयास किया। एटकिंसन, ओकले और राहुल ने बाड़ाहाट को तथा सेंट मार्टिन और मुकन्दीलाल ने श्रीनगर को ब्रह्मपुर बतलाया। फूरर नामक विद्वान ने लालढांग के पास पाण्डुवालासोत को ब्रह्मपुर के रूप में चिह्नित किया। लेकिन कनिंघम और गुप्ते ने चौखुटिया के पास ‘लखनपुर वैराटपट्टन’ को ब्रह्मपुर बतलाया, जो उचित प्रतीत होता है। लखनपुर वैराटपट्टन पश्चिमी रामगंगा के बायें तट पर है, जहाँ से तालेश्वर गांव की हवाई दूरी मात्र 15 किलोमीटर है। ब्रह्मपुर राज्य की यात्रा सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वैनसांग ने की थी। यह यात्री अपने यात्रा विवरण में बतलाता है कि वह गंगा से 300 लि अर्थात 50 मील उत्तर की ओर चलकर पो-ली-कि-मो जनपद में पहुँचा। ‘‘पो-लो-कि-मो- नाम को जूलियन और कनिंघम ने संस्कृत के ब्रह्मपुर का भाषान्तर माना है। यात्री के अनुसार इस जनपद (ब्रह्मपुर) का घेरा 4000 लि या 666 मील था। उसके चारों ओर पर्वतमालाएं थीं।’’ डॉ. शिवप्रसाद डबराल ने भागीरथी से काली तक के प्रदेश को ब्रह्मपुर राज्य के रूप में सीमांकन किया। इस आधार पर कह सकते हैं कि छठी शताब्दी में गंगोली क्षेत्र ब्रह्मपुर राज्य मे सम्मिलित था।
पौरव वंश के पश्चात उत्तराखण्ड में बाड़ाहाट से बौतड़ी (नेपाल) तक कार्तिकेयपुर राज्य का उदय हुआ। इस राजवंश के ताम्रपत्र उत्तरकाशी के कण्डारा, चमोली के पाण्डुकेश्वर और चंपावत के बालेश्वर मंदिर से प्राप्त हुए हैं। इस राजवंश का एक शिलालेख बागेश्वर से भी प्राप्त होता है, जिसकी लेखन शैली कार्तिकेयपुर उद्घोष वाले ताम्रपत्रों के समतुल्य है। इसलिए इतिहासकार इस वंश के शासकों को सम्पूर्ण उत्तराखण्ड का शासक घोषित करते हैं।
कार्तिकेपुर के पतनोपरांत मध्य हिमालय में शालिवाहन वंशज कत्यूरियों का आसन्तिदेव के नेतृत्व में पुनरोदय हुआ। बागेश्वर के कत्यूर घाटी से संचालित कत्यूरी राज्य की उप राजधानी कुमाऊँ के विभिन्न क्षेत्रां में ‘लखनपुर’ नाम से स्थापित की गईं। पौरव वंश की राजधानी ब्रह्मपुर कत्यूरी कालखण्ड में एक उप राजधानी ‘लखनपुर वैराटपट्टन’ के नाम से प्रसिद्ध हो गई। कत्यूरी शासक मालूशाही के लोक गीतों से भी वैराट का उल्लेख प्राप्त होता है। लखनपुर नाम की एक उप राजधानी काली के दायें तटवर्ती स्थल बगड़ीहाट (अस्कोट के निकट) में भी थी, जहाँ तेरहवीं शताब्दी में कत्यूरियों की अस्कोट शाखा अभयपालदेव के नेतृत्व में पल्लवित हुई। निश्चित रूप से पश्चिमी रामगंगा से काली नदी तक कत्यूरी राज्य का विस्तार था। कत्यूरी राज्य के सीमांकन से स्पष्ट है कि गंगोली का राजनीतिक भूगोल ‘पर्वताकार’ राज्य के पश्चात आठवीं-नौवी शताब्दी में कत्यूरी राज्य में समाहित था।
अयोध्या के सूर्यवंशी राजा शालिवाहन के उन्नीसवीं पीढ़ी में राजा आसन्तिदेव हुए। ‘‘गंगोलीहाट के निकट जो वृद्ध भुवनेश्वर का मंदिर है, उसको कहा जाता है कि आसन्तिदेव की रानी सुभद्रादेवी ने बनवाया था।’’ त्रिरथ शैली में निर्मित इस प्राचीन मंदिर के निकट ही एक प्राकृतिक गुहा है, जिसे ‘पाताल भुवनेश्वर’ कहते है। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार नौवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में आदिगुरु शंकराचार्य कैलास यात्रा के दौरान यहाँ तीन दिन ठहरे थे।
तेरहवीं शताब्दी में कत्यूरी राज्य उप राज्यों में विभाजित हो गया। इस विभाजन के फलस्वरूप कत्यूरी घाटी बैजनाथ के अन्यत्र अस्कोट, गंगोली, द्वाराहाट और डोटी (नेपाल) राज्य अस्तित्व में आये। गंगोलीहाट नगर के जाह्नवीं देवी नौला प्रस्तर लेख से स्पष्ट होता है कि रामचन्द्रदेव गंगोली के प्रथम स्वतंत्र शासक थे, जिन्हें उत्तर कत्यूरी शासक कहा जाता है। इस नौला प्रस्तर लेख पर एक तिथि सन् 1275 उत्कीर्ण है। तेरहवीं शताब्दी में सरयू-पूर्वी रामगंगा अंतस्थ क्षेत्र ‘गंगोली’ एक राज्य इकाई के रूप में अस्तित्व में चुका था, जिसका श्रेय उत्तर कत्यूरी शासक रामचन्द्रदेव को जाता है। संभवतः इस वंश के अंतिम राजा धारलदेव थे। ‘‘बैजनाथ के मंदिर में सन् 1352 का एक पत्थर निकला था, जिसमें लिखा है कि गंगोली के राजा (हमीरदेव, लिंगराजदेव, धारलदेव) ने मंदिर का कलश बनवाया।’’ अतः तेरहवीं शताब्दी में गंगोली का राजनीतिक भूगोल पौराणिक ‘शैल प्रदेश’ के उत्तरोत्तर क्रम में किरात मण्डल, खश मण्डल, कर्तृपुर, आदिकत्यूरी, पर्वताकार, कार्तिकेयपुर, कत्यूरी और उत्तर कत्यूरी राज्य सोपानों से होता हुआ मध्य हिमालय में एक स्वतंत्र राज्य गंगोली के रूप में स्थापित हो गया था।
उत्तर कत्यूरी शासक धरालदेव (‘‘धारलदेव 1330 ई. से 1360 ई.’’) के पश्चात मणकोटी वंश का शासन गंगोलीहाट के आस पास तक सीमित था और गंगोली क्षेत्र स्वतंत्र राज्य इकाई के रूप ‘मणकोटी’ राज्य कहलाया। ‘‘आठ पुश्त तक इस वंश के राजाओं ने राज्य किया। ये भी चन्द्रवंशी थे’’ वर्तमान डीडीहाट या सीरा के डोटी-मल्ल शासकों ने गंगोलीहाट के अतिरिक्त शेष गंगोली पर अधिकार कर लिया था। गंगोली के मल्ला बढ़ाऊँ, काण्डा, बिचला दानपुर क्षेत्र के कुछ क्षत्रियों में ‘जयदेव’ प्रथा का प्रचलन सीरा-मल्ल शासन की पुष्टि करता है। मणकोटी और सीरा राज्य के पतन का श्रेय चंद राजवंश को जाता है। संभवतः सन् 1560 ई. में चंद राजा बालो कल्याणचंद ने गंगोली पर अधिकार कर लिया। लगभग 300 वर्षों से स्वतंत्र गंगोली राज्य सोलहवीं शताब्दी में एक स्वतंत्र राज्य का अस्तित्व सदैव के लिए खो देता है।
चंद शासकों ने गंगोली को ‘गर्खा’ नामक प्रशासनिक इकाई के रूप पुनर्गठित किया, जिसकी पुष्टि चंद शासक उद्योतचंद का रामेश्वर ताम्रपत्र शाके 1604 करता है, जिसमें गंगोली हेतु ‘‘गंगोली का गर्खा’’ उत्कीर्ण है। प्रकाशित चंद ताम्रपत्रों से स्पष्ट होता है कि पर्वतीय क्षेत्रों में परगना के स्थान पर ‘गर्खा’ नामक प्रशासनिक इकाई अस्तित्व में थी। जबकि कुमाऊँ के मैदानी क्षेत्रों में ‘परगना’ नामक प्रशासनिक इकाई अस्तित्व में थी। जैसे- ‘‘माल की जागीर छीनकी का परीगना।’’ छीनकी नामक परगना नानक सागर (नानकमत्ता) के उत्तर-पश्चिम में स्थित भाबर क्षेत्र था। चंद कालखण्ड में गंगोली क्षेत्र का राजनीतिक भूगोल स्वतंत्र मणकोटी राज्य के स्थान पर ‘गर्खा’ नामक चंद प्रशासनिक इकाई में परिवर्तित हो गया। एक स्वतंत्र ‘मणकोटी राज्य’ में तेरहवीं से सोलहवीं शताब्दी तक दो राजवंशों- उत्तर कत्यूरी (राजा रामचन्द्रदेव वंशज) और ‘‘मणकोटी’’ (पिऊठणा, नेपाल के चंद्रवंशी कर्मचंद के वंशज) ने शासन किया था।
अठारहवीं शताब्दी में कुमाऊँ के चंद राज्य को गोरखों ने सदैव के लिए समाप्त कर दिया और ‘‘सन् 1790 तदनुसार संवत् 1847 चैत्र कृष्णपक्ष प्रतिपदा के दिन अल्मोड़ा पर अपना आधिपत्य जमाया।’’ गोरखा शासन काल में चंद राज्य की प्रशासनिक इकाई में कोई परिवर्तन नहीं किया। गोरखों ने कुमाऊँ पर कुल 25 वर्ष शासन किया। सन् 1815 ई. से कुमाऊँ पर इंग्लैण्ड की ईस्ट इण्डिया कंपनी का शासन प्रारम्भ हो गया। ब्रिटिश शासन पद्धति में ‘गर्खा’ को ‘परगना’ कहा गया और कुमाऊँ के पर्वतीय क्षेत्र में परगना हेतु प्रयुक्त ‘गर्खा’ शब्द लगभग 255 वर्ष पश्चात ब्रिटिश कुमाऊँ से लोपित हो गया। लेकिन गर्खा नामक गांव अभी अस्तित्व में हैं।
ब्रिटिश कालीन राजनीतिक भूगोल की ऐतिहासिक शुरूवात सन् 1815 में गोरखा सेना के पराजय के साथ हुई। ‘‘ता. 27 अपै्रल, 1815 को अल्मोड़ा की राजधानी में अंगरेजों का अधिकार होने से सारा कुमाऊँ उनके आधिपत्य में आ गया।’’ कुमाऊँ के प्रथम कमिश्नर गार्डनर ने लगभग छ महीने शासन में अंग्रेजी राज्य की नींव रखी। ‘‘3 मई, 1815 को अंग्रेजी राज्य की स्थापना की घोषणा करके नेपाली प्रभुत्व की समाप्ति से स्थानीय लोगों को अवगत कराया था।’’
कुमाऊँ का पहला बंदोबस्त, प्रथम कमिश्नर एडवर्ड गार्डनर के ने किया। ‘‘1815 में प्रथम कमिश्नर एडवर्ड गार्डनर के समय में यहाँ नौ तहसीलें- अल्मोड़ा, काली-कुमाऊँ, पाली-पछाऊँ, कोटा, सोर, फल्दाकोट, रामगढ़, श्रीनगर और चाँदपुर थीं।’’ गढ़वाल शासक सुदर्शन शाह और ईस्ट इण्डिया कंपनी के मध्य हुई संधि के अनुसार श्रीनगर और चाँदपुर की तहसीलां को अंग्रेजी राज्य ‘कुमाऊँ कमिश्नरी’ में सम्मिलित किये गये। प्रथम बंदोबस्त में परगना गंगोली को ‘सोर’ (वर्तमान पिथौरागढ़) तहसील में सम्मिलित किया गया था। ‘‘1821 में सोर तहसील को समाप्त करके गंगोली को हजूर तहसील (अल्मोड़ा) में तथा सोर, सीरा और अस्कोट परगनों को काली कुमाऊँ से संयुक्त किया गया।’’
ब्रिटिश कालीन गंगोली के ‘कमस्यार’ पट्टी के आधार पर परगना गंगोली के राजनीतिक भूगोल को परिभाषित करते हुए ए.टी. एटकिंसन लिखते हैं-ः ‘‘कमस्यार- कुमाऊँ में गंगोली परगने की एक पट्टी इसके पश्चिम में सरयू नदी, पूर्व में बड़ाऊँ पट्टी, उत्तर में दुग और पुंगराऊँ तथा दक्षिण में बघेर या भद्रपतिगाड़ है जो कमस्यार को अठगाँव से अलग करती है।’’ कमस्यार पट्टी का सीमांकन ब्रिटिश कालीन परगना गंगोली के सीमाकंन हेतु पर्याप्त तथ्य प्रस्तुत करता है। ‘‘सन् 1821 के बाद प्राकृतिक पट्टियों की प्रणाली शुरू कर दी गई। छोटे परगनों को उन बड़े परगनों की पट्टी बना दिया गया जिसमें में पहले हुआ करते थे। कत्यूर और गंगोली को भी एक परगना तथा भोट क्षेत्र को एक अन्य परगना बनाया गया जिससे कुल मिलाकर परगनों की संख्या चौदह हो गई।’’ चंद राज्य का ‘गर्खा गंगोली’ ब्रिटिश शासन काल में सन् 1821 ई. के पश्चात ‘परगना’ नामक एक प्रशासनिक इकाई के रूप में गठित हुआ। सन् 1821 में गंगोली का राजनीतिक भूगोल इस प्रकार था- दो परगने गंगोली और सरयू पूर्व का दानपुर परगना, तहसील अल्मोड़ा, जनपद कुमाऊँ।
ब्रिटिश कालीन परगना गंगोली में कुल छः पट्टियां थीं- ‘‘बेल, भेरंग, बढ़ाऊँ, कमस्यार, पुंगरांव और अठगांव। इनमें चार पट्टियां वर्ष 1842 में बनाई गईं या मान्य की गईं।’’ ‘‘1864 से पूर्व की पट्टियां- गंगोली में बेल, बड़ाऊँ, कमस्यार, अठीगांव पुंगराऊँ।’’ सन् 1842 में परगना गंगोली 4 तथा सन् 1864 से पहले 5 पट्टियों में विभाजित था। अठिगांव पट्टी का सृजन सन् 1842 ई. और 1864 ई. के मध्य किया गया था। ‘‘1864 में सृजित पट्टियां- गंगोली में भेरंग और दानपुर में- दानपुर बिचला, दुग, कत्यूर बिचला, नाकुरी।’’ गंगोली की छठवीं पट्टी भेरंग का गठन नौवें बंदोबस्त (सन् 1863-64 ई.) में किया गया। इस प्रकार सन् 1864 ई. में सरयू-पूर्वी रामगंगा अंतस्थ क्षेत्र में परगना गंगोली की बेल, भेरंग, बढ़ाऊँ, कमस्यार, पुंगरांव, अठगांव, भेरंग तथा परगना दानपुर की बिचला दानपुर, दुग, नाकुरी पट्टी सम्मिलित थीं। सन् 1864 में गंगोली का राजनीतिक भूगोल इस से प्रकार था- गंगोली और सरयू पूर्व का दानपुर परगना, तहसील अल्मोड़ा, जनपद कुमाऊँ।
नौवें बन्दोबस्त के उपरांत और भारत की स्वतंत्रता तक गंगोली के राजनीतिक भूगोल में इतना ही परिर्वतन हुआ कि यह क्षेत्र सन् 1891 ई. में नव सृजित जनपद अल्मोड़ा के अधीन आ गया। स्वतंत्रतोपरांत भी इस क्षेत्र के राजनीतिक भूगोल में परिर्वतन होता रहा। सन् 1960 ई. में पिथौरागढ़ और सन् 1997 में बागेश्वर जनपद के सृजन के कारण सरयू-पूर्वी रामगंगा अंतस्थ क्षेत्र या गंगोली का राजनीतिक भूगोल परिवर्तित हो गया। सन् 2000 ई. से गंगोली में सरयू पूर्व कपकोट और बागेश्वर तथा पूर्णरूप से बेरीनाग और गंगोलीहाट विकासखण्ड सम्मिलित थे। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो ब्रिटिश कालीन सरयू-पूर्वी रामगंगा अंतस्थ क्षेत्र की पट्टियां आज तहसील बन चुकीं हैं। कमस्यार से काण्डा, विचला दानपुर से कपकोट, दुग और नाकुरी से दुग-नाकुरी, पूर्वी पुंगराऊँ से थल, बेल-भेरंग से गंगोलीहाट, अठिगांव से गणाई गंगोली तथा बड़ाऊँ से बेरीनाग तहसील बन चुकी है। थल, बेरीनाग, गंगोलीहाट और गणाई गंगोली तहसील जनपद पिथौरागढ़ में तथा काण्डा, कपकोट, और दुग-नाकुरी तहसील जनपद पिथौरागढ़ में सम्मिलित हैं।
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