आरंभिक चंद
आरंभिक चंद
उत्तराखण्ड के इतिहास में मध्य कालीन इतिहास विशेष महत्व रखता है। इस कालखण्ड में यह पर्वतीय राज्य दो क्षेत्रीय राज्यों में विभाजित था। पश्चिमी रामगंगा और यमुना के मध्य का भू-भाग गढ़वाल तथा पश्चिमी रामगंगा और कालीनदी मध्य का भू-भाग कुमाऊँ कहलाता था। ऐतिहासिक मतानुसार नौवीं सदी में गढ़वाल के चमोली जनपद में जहाँ कनकपाल के नेतृत्व में पंवार वंश अस्तित्व में आया, तो वहीं आठवीं सदी में कुमाऊँ के चंपावत जनपद में सोमचंद के नेतृत्व में चंद राजवंश अस्तित्व में आया। लेकिन कुमाऊँ में चंद राज्य के आरम्भिक राजाओं के संबंध में इतिहासकारों का एक पक्ष ‘सोमचंद’ और दूसरा पक्ष ‘थोहरचंद’ को इस वंश का संस्थापक मान्य करता है। प्रथम पक्ष रामदत्त त्रिपाठी (‘‘जो मि. अठकिन्सन साहब के साथ हिन्दी-लेखक थे।’’) का था, जिन्होंने सोमचंद को चंद वंश का संस्थापक कहा। बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं-‘‘राजा सोमचंद के आने की तिथि तो ज्ञात नहीं, पर उनके गद्दी पर बैठने की तिथि संवत् 757 विक्रमीय तथा 622 शाके शालिवाहन तदनुसार 700 सन् है।’’
सोमचंद के सिंहासनारोहण के कालखण्ड में कन्नौज के सिंहासन पर यशोवर्मन बैठ चुके थे। कन्नौज सातवीं-आठवीं सदी में उत्तर भारत की राजसत्ता का केन्द्र था। कन्नौज शासक यशोवर्मन का उत्तराखण्ड पर अधिकार था। इसकी पुष्टि कश्मीर के इतिहाकार कल्हण द्वारा रचित ‘राजतरंगिणी‘ से होती है। संस्कृत के इस महाकाव्यानुसार कश्मीर शासक ललिताशूर मुक्तापीड ने कन्नौज शासक यशोवर्मन को पराजित कर काली नदी तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया था। संभवतः सोमचंद को कन्नौज शासक यशोवर्मन ने चंपावत का सामन्त नियुक्त किया। जबकि उत्तराखण्ड के उत्तरी भागों पर शालिवाहन वंश का अधिकार था। सूर्यवंशी शालिवाहन के वंशज आसन्तिदेव ने लगभग आठवीं सदी के अंतिम चुतुर्थांश में बागेश्वर के कत्यूर घाटी पर अधिकार कर लिया और कत्यूरी कहलाये। हिमालियन गजेटियर के लेखक एटकिंसन के अनुसार कत्यूर घाटी आने से पहले आसन्तिदेव गढ़वाल के जोशीमठ से अपना राज्य संचालित करते थे।
दूसरा पक्ष हर्षदेव जोशी का है जिन्होंने सन् 1811 में अंग्रेज अधिकारी फ्रेजर को एक रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसके अनुसार-
‘‘चंदों में पहले राजा थोहरचंद थे, जो 16 या 17 वर्ष की अवस्था में यहाँ आये थे। उनके तीन पुश्त बाद कोई उत्ताराधिकारी न रहने से थोहरचंद या थोरचंद के चाचा की संतान में से ज्ञानचंद नाम के राजा यहाँ आये। इस बात को मानने से थोहरचंद कुमाऊँ में सन् 1261 में आये और ज्ञानचंद 1374 में गद्दी पर बैठे।’’
थोहरचंद को प्रथम चंद राजा बतलाने वाले हर्षदेव जोशी का अठारहवीं सदी के आठवें दशक में कुमाऊँ की सत्ता पर नियंत्रण था, जिन्होंने राजा मोहनचंद को दो बार अल्मोड़ा की राजगद्दी से उतार फेंका और गढ़वाल के पंवार वंश के सुदर्शन शाह को चंद सिंहासन पर बैठाने में सफल रहे थे। मोहनचंद के पुत्र और अंतिम चंद राजा महेन्द्रचंद को भी पदच्युत करने हेतु हर्षदेव जोशी ने सन् 1790 ई. में गोरखा सेना की सहायता की। इनके पिता शिवदेव जोशी चंद राजा कल्याणचंद और दीपचंद के प्रमुख सलाहाकार थे।
बद्रीदत्त पाण्डे प्रथम पक्ष को मान्य करते हुए सोमचंद से राजा ज्ञानचंद तक की ‘चंद वंशावली’ का विवरण इस प्रकार देते हैं-
सारणी- 1
क्र. सं. राजा शासनावधि शिलालेख/ताम्रलेख
1 सोमचंद 700 ई. से 721 ई.
2 आत्मचंद 721 ई. से 740 ई.
3 पूर्णचंद 740 ई. से 758 ई.
4 इन्द्रचंद 758 ई. से 778 ई.
5 संसारचंद 778 ई. से 813 ई.
6 सुधाचंद 813 ई. से 833 ई.
7 हरिचंद 833 ई. से 856 ई.
8 बीणाचंद 856 ई. से 869 ई.
- खस राज (15 शासक) 200 वर्ष से अधिक
9 वीरचंद 1065 ई. से 1080 ई.
10 रूपचंद 1080 ई. से 1093 ई.
11 लक्ष्मीचंद 1093 ई. से 1113 ई.
12 धर्मचंद 1113 ई. से 1121 ई.।
13 कर्मचंद/कूर्मचंद 1121 ई. से 1140 ई.। ‘‘नौलालेख शाके1178/1256ई.।’’
14 कल्याणचंद/बल्लालचंद 1140 ई. से 1149 ई.।
15 नामीचंद/निर्भयचंद 1149 ई. से 1170 ई.।
16 नरचंद 1170 ई. से 1177 ई. ‘‘ताम्रपत्र संवत्1377/1320 ई.।’’
17 ननकीचंद 1177 ई. से 1195 ई.
18 रामचंद 1195 ई. से 1205 ई.
19 भीष्मचंद 1205 ई. से 1226 ई.
20 मेघचंद 1226 ई. से 1233 ई.
21 ध्यानचंद 1233 ई. से 1251 ई.
22 परबतचंद 1251 ई. से 1261 ई.
23 थोहरचंद 1261 ई. से 1275 ई.
24 कल्याणचंद 1275 ई. से 1296 ई.
25 त्रिलोकचंद 1296 ई. से 1303 ई.
26 डमरूचंद 1303 ई. से 1321 ई.
27 धर्मचंद 1321 ई. से 1344 ई.
28 अभयचंद 1344 ई. से 1374 ई. ‘‘चौकुनी शिलालेख शाके1298/1376ई.।’’
29 ज्ञानचंद/गरुड़ ज्ञानचंद 1374 ई. से 1419 ई.
इतिहासकारों के अनुसार कन्नौज के राजा हर्ष की मृत्यु (647ई.) पश्चात क्षेत्रीय क्षत्रप पुनः शक्तिशाली हो गये और भारतीय भू-भाग पर पृथक-पृथक राजवंशों का उत्थान हुआ। इस काल को राजपूत काल का आरम्भिक कालखण्ड कहते हैं। इसी कालानुक्रम में सोमचंद नामक व्यक्ति झूसी (उत्तर प्रदेश) से सातवीं सदी में अंत में चंपावत आये थे और चंद वंश की नींव रखने में सफल रहे थे। सोमचंद को ही चंद वंश का मूल पुरुष माना जाता है। उक्त सूचीगत् तथ्यों के अनुसार आठवें शासक बीणाचंद के पश्चात चम्पावत में खस राजाओं ने 200 वर्ष से अधिक समय तक शासन किया था। उक्त सूची के अनुसार नौवें शासक वीरचंद ने पुनः सन् 1065 ई. चंपावत में चंद राजसत्ता कायम की थी। अतः वीरचंद को चंद वंश का पुनर्संस्थापक कह सकते हैं।
नेपाल के दुलु शासक क्राचल्लदेव (सन् 1223 ई.) के बालेश्वर मंदिर, चंपावत ताम्रपत्र (‘‘जो देशटदेव के ताम्रपत्राभिलेख के पृष्ठ भाग पर अंकित है और जिसे दुलु से निर्गत किया था।’’) में दस माण्डलिक राजाओं के नाम उत्कीर्ण हैं- यथा ‘‘श्री याहडदेव, श्री विद्याचन्द्र, चन्द्रदेव, श्रीजयसिंह, श्री हरिराज राउतराज, श्री जीहलदेव, श्री अनिलादित्य राउतराज, श्री वल्लालदेव, श्री विनयचन्द्र, श्री मूसदेव।’’
इस ताम्रपत्र में चंद उपनाम वाले विनयचन्द्र का उल्लेख है। संभवतः वीरचंद ही विनयचंद थे। यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि वीरचंद 200 वर्षों के खस राज्यावधि के पश्चात राजा हुए थे। इस ताम्रपत्र में माण्डलिक राजाओं की सूची में याहड़देव, जीहलदेव आदि नाम खस राजाओं के प्रतीत होते हैं। बद्रीदत्त पाण्डे भी खस राजाओं के ऐसे ही नामों का उल्लेख करते हैं। यथा- ‘‘बिजड़, जीजड़, जाहल’’ आदि। इस आधार पर वीरचंद को विनयचंद मान्य करें तो ताम्रपत्र के विनयचंद और उक्त सूचीगत् चंद वंशावली के वीरचंद के शासनावधि में एक सदी से अधिक वर्षों का अंतर स्पष्ट होता है।
उक्त सूची के अनुसार तेरहवें चंद राजा कर्मचंद या कूर्मचंद ने सन् 1121 ई. से 1141 ई. तक शासन किया। लेकिन ‘‘बालेश्वर (चम्पावत) मंदिर के समीपस्थ नौले की भीतरी दीवार में शाके 1178 (1256 ई.) और राजा कर्मचंद्र का स्पष्ट उल्लेख कुमाऊँ में ‘चदंनाम’ से ख्यात राजकुल के अभ्युदय के प्रारम्भिक काल का द्योतक है।’’ उक्त चंद वंशावली में सोमचंद से राजा ज्ञानचंद तक कर्मचंद नाम के एक ही राजा का उल्लेख है। शासनावधि के आधार पर नौला लेख (सन् 1256 ई.) और सूची के अनुसार चंद वंशावली के कर्मचंद में एक सदी से अधिक वर्षां का अंतर स्पष्ट होता है।
चंद वंशावली के अनुसार नरचंद (1170 ई.-1177 ई.) सोलहवें राजा हुए। जबकि चंद राजा नरचंद का ‘‘संवत् 1377 (1320 ई.) का एक ताम्रपत्र (गड़ नौला, लोहाघाट)‘‘ प्रकाश में आया है। ताम्रपत्रीय और उपरोक्त सूचीगत् वंशावली में उल्लेखित चंद राजा नरचंद के शासनावधि में एक सदी से अधिक वर्षां का अंतर स्पष्ट होता है। ताम्रपत्र साक्षियों के आधार पर डॉ. रामसिंह लिखते हैं- ‘‘कुमूं के राजा नरचंद्र सन् 1320 ई. की राजसभा का सामान्य पत्र-लेखक मधुकर ही राजा शक्तिब्रह्मदेव की राजसभा का मधुकर दैवज्ञ प्रतीत होता है।’’ सोर वर्तमान पिथौरागढ़ में बम वंश के संस्थापक ‘‘शक्तिब्रह्मदेव (सन् 1320-1350 ई.)’’ थे। गड़नौला ताम्रपत्र के चंद राजा नरचंद और सोर के शक्तिब्रह्मदेव समकालीन शासक थे। इन स्थानीय राजाओं के उत्कर्ष से स्पष्ट होता है कि कुमाऊँ में चौदहवीं के सदी प्रारम्भ में कत्यूरी राजसत्ता शक्तिहीन हो चुकी थी।
वीरचंद, कर्मचंद और नरचंद के शासनावधि में अभिलेखीय और सूचीगत् चंद वंशावली में एक सदी से अधिक वर्षों का अंतर स्पष्ट करता है कि चंपावत में खस राज्यकाल 200 वर्ष से अधिक, लगभग 300 वर्षां तक रहा था। वीरचंद या विनयचंद (1223 ई.) से कर्मचंद (1256 ई.) के मध्य चंद वंशावली के अनुसार तीन शासक हुए। अर्थात 33 वर्षों में कुल 5 राजा हुए और इस समायावधि में एक पीढ़ी से दो पीढ़ी या अधिकतम तीन पीढ़ी शासन कर सकती थी, पांच पीढ़ी नहीं। अतः चंद वंशावली में वीरचंद से कर्मचंद के मध्य तीन शासकों में पिता-पुत्र का संबंध अनिश्चित प्रतीत होता है। कर्मचंद (1256 ई.) और नरचंद (1320 ई.) के मध्य चंद वंशावली में कुल दो शासकों का उल्लेख है। अर्थात 64 वर्षों में कुल 4 राजा हुए और इस समायावधि में एक पीढ़ी से चार पीढ़ियों का शासन हो सकता था। चंद वंशावली के कर्मचंद और नरचंद के मध्य दो शासकों में पिता-पुत्र का संबंध हो सकता है। अतः ‘नरचंद’ को कर्मचंद का प्रपौत्र कह सकते हैं, जिन्हें चंपावत में चंद राज्य का ‘‘वास्तविक निर्माता’’ कहा जाता है।
उक्त सूची के अनुसार चंद वंशावली में थोहरचंद (1261 ई.-1275 ई.) तेईसवें राजा हुए। जबकि हर्षदेव जोशी के अनुसार चंद वंश के प्रथम शासक थोहरचंद थे। ‘‘एटकिंसन के अनुसार उसका राज्यारोहण 1261 को हुआ था।’’ चंद वंशावली में नरचंद और थोहरचंद चंद के मध्य छः शासकों का उल्लेख है। ताम्रपत्रीय नरचंद (1320 ई.) के आधार पर एटकिंसन द्वारा निर्धारित थोहरचंद की राज्यारोहण तिथि गलत बैठती है। नरचंद (1320 ई.) के अनुक्रम में थोहरचंद की राज्यारोहण तिथि सन् 1320 से 1360 ई. मध्य कालखण्ड में संभावित होती है। ‘‘अभयचंद्र के मानेश्वर (चम्पावत) के शिलालेख के अनुसार, उसे सन् 1360 ई. में पुत्र की प्राप्ति होती है।’’ मानेश्वर शिलालेख और ज्ञानचंद के शाके 1301 के ताम्रपत्र के आधार पर निश्चित रूप से अभयचंद सन् 1360 से सन् 1378 ई. (मृत्यु तिथि) के कालखण्ड में चंपावत के राजा थे।
डा. यशवंत सिंह कठोच अभयचंद के देहांत की तिथि 1378 ई. अर्थात शाके 1300 निर्धारित करते हैं। ‘‘ज्ञानचंद का प्राचीनम ज्ञात ताम्रपत्र शाके 1301 में अभय चन्द्र के वार्षिक श्राद्ध के उपलक्ष में निर्गत किया गया।’’ अभयचंद की मृत्यु पश्चात सन् 1378 ई. में ज्ञानचंद चंद वंश के राजा हुए। सोर के शासक ‘‘विजयब्रह्म के ताम्रपत्र से विदित होता है कि ज्ञानचंद्र सन् 1422 तक जीवित था, उसकी मृत्यु के पश्चात् अगले वर्ष विक्रमचंद्र सिंहासनासीन हो गया था।’’ इन तथ्यों के आधार पर ज्ञानचंद सन् 1378 ई. से सन् 1422 ई. तक 44 वर्ष शासक रहे। ‘‘कुमाऊँ के चंद राजाओं में भी पहली बार राजा ज्ञानंचद ने अपने पितामह कल्याणचंद और पिता त्रैलोक्यचंद का अपने दानपत्रों में उल्लेख किया है।’’ जबकि उक्त चंद वंशावली में थोहरचंद के पश्चात कल्याणचंद, त्रिलोकचंद, डमरुचंद, धर्मचंद और अभयचंद का उल्लेख है। चंद ताम्रपत्रों में राजा द्वारा अपने पूर्वजों का उल्लेख करना एक परम्परा थी, चाहे पूर्वज राजा पद पर आसीन नहीं हुए हों। उदाहरण के लिए चंद राजा भारतीचंद (‘‘ताम्रपत्र-शाके 1366 या सन् 1444 ई.99’’) और बाजबहादुरचंद (‘‘ताम्रपत्र- शाके 1565 या सन् 1643 ई.’’) ने अपने पूर्वजों का उल्लेख ताम्रपत्रीय वंशावली में किया।
भारतीचंद के शासन काल में निर्गत ताम्रपत्र शाके 1366 में ज्ञानचंद, ध्यानचंद, धर्मचंद, हरिचंद और भारतीचंद का उल्लेख है। जबकि अन्य अभिलेखीय साक्ष्य ज्ञानचंद के पश्चात विक्रमचंद और विक्रमचंद के पश्चात भारतीचंद के राजा होने की पुष्टि करते हैं। अभिलेखीय साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि चंपावत के राजसिंहान ध्यानचंद, धर्मचंद और हरिचंद कभी नहीं बैठे। अभय चंद के पश्चात राजा ज्ञानचंद शासक हुए और संभवतः इनके पिता और पितामह (त्रैलोक्यचंद और कल्याणचंद) चंद राजगद्दी परआसीन नहीं हुए थे।
राजा ज्ञानचंद को बद्रीदत्त पाण्डे सल्तनत कालीन ‘‘बादशाह मुहम्मद तुगलक’’ का समकालीन भी बतलाते हैं, जो तथ्यपरख नहीं है। राजा ज्ञानचंद तुगलग बादशाह से भेंट हेतु दिल्ली गये थे। ‘‘यह घटना सन् 1410 तथा 1412 के बीच की है।’’ ऐतिहासिक गरुड़ शिकार प्रसंग से संबंधित राजा ज्ञानचंद का समकालीन तुगलक शासक- ‘‘नासिरुद्दीन महमूद (1395-1414 ई.)’’ था। नासिरुद्दीन महमूद एक कमजोर शासक था और उनके राज्य के बारे में कहा जाता था- ‘‘जगत के स्वामी का शासन दिल्ली से पालम तक फैला हुआ है।’’
ताम्रपत्र शाके 1311 में राजा ज्ञानचंद की उपाधि ‘राजा’ की है। अर्थात सन् 1389 तक राजा ज्ञानचंद एक माण्डलिक थे। ताम्रपत्र शाके 1340 और शाके 1342 में राजा ज्ञानचंद की उपाधि ‘राजाधिराज महाराज’ उत्कीर्ण है। सन् 1398 में तिमूर ने भारत पर आक्रमण किया और ‘‘सुल्तान महमूद गुजरात की ओर भाग गया।’’ तिमूर दिल्ली पर अधिकार करने के बाद 1399 ई. में हरिद्वार पहुँचा। ‘‘तिमूर की आत्मकथा मुलफुजात-इ-तिमूरी के अनुसार गंगाद्वार के आसपास शिवालिक का प्रथम युद्ध राय बहरुज के साथ तथा यमुना-पार के शिवालिक में द्वितीय युद्ध राजा रतनसेन से हुआ।’’ बहरुज कौन था ? इस प्रश्न के उत्तर में ‘‘राहुल का कथन है कि- नस्ख लिपि में लिखे गये इस शब्द से भरोज, बरोज, वीरदत्त, ब्रह्मदत्त आदि कितने ही नाम निकल सकते हैं।’’ संभवतः बहरुज ‘खस’ या ‘उत्तर-कत्यूरी’ राजा था। ‘‘मुलफुजात के अनुसार बहरुज पर्वतीय गढपतियों में सर्वाधिक शक्तिशाली था।’’ या यह कह सकते हैं कि बहरुज ने इस युद्ध पर्वतीय क्षत्रपों का नेतृत्व किया था। अतः चौदहवीं सदी के अंत में शक्तिशाली बहरुज के पराजय के साथ मध्य हिमालय के क्षत्रपों को स्वतंत्र होने का अवसर प्राप्त हो गया।
संभवतः चम्पावत के माण्डलिक राजा ज्ञानचंद के लिए अपनी शक्ति बढ़ाने का यह उपयुक्त समय था और राजाधिराज की उपाधि के साथ स्वतंत्र शासक बनने का भी। स्वतंत्र शासक होने के पश्चात ही राजा ज्ञानचंद सन् 1410-12 में दिल्ली दरबार गये और फरमान लिखवा लाये ‘‘कि तराई-भावर का इलाका भागीरथी गंगा तक कुमाऊँ के राजा के अधिकार में रहेगा।’’
बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘उस समय चम्पावत के राजदबार में बक्सी (सेनापति) के पद पर सरदार नीलू कठायत था।’’ लेकिन राजा ज्ञानचंद के प्रकाशित शाके- 1311, 1340, 1342, 1344 आदि ताम्रपत्रों से कठायत जाति का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। सम्भवतः नीलू कठायत, राजा ज्ञानचंद के सम्पर्क में शाके 1311 के पश्चात आये और शाके 1340 से पहले राजा ज्ञानचंद ने नीलू कठायत ‘‘को धोखे से मरवा ही डाला।’’ अतः राजा ज्ञानचंद के शाके 1340 या बाद के ताम्रपत्रों से कठायत क्षत्रियों का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। लेकिन ज्ञानचंद के उत्तराधिकारी विक्रमचंददेव के प्रकाशित ताम्रपत्र (शाके 1356) से कठायत जाति का उल्लेख प्राप्त होता है। ज्ञानचंद के प्रकाशित ताम्रपत्रानुसार उनके प्रमुख क्षत्रिय क्षत्रप बोहरा और रावत थे। ‘‘राजा ज्ञानचंद ने भी मेघ बोहरा की पुत्री (शाके 1303, सन् 1381 ई.) से विवाह की सूचना दी है। और सोनपाल की बहन चन्द्रमाला से विवाह (शाके 1314, सन् 1392 ई.) का भी उल्लेख किया है।’’ स्थानीय क्षत्रपों से वैवाहिक संबंधों को स्थापित कर राजा ज्ञानचंद चंपावत में अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने में सफल हुए।
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