उत्तराखण्ड : प्रागैतिहासिक से ताम्रयुग तक

 उत्तराखण्ड : प्रागैतिहासिक से ताम्रयुग तक 

    मध्य हिमालय का भूवैज्ञानिक इतिहास आद्य महाकल्प के द्वितीय युग ‘इयोसीन’ से आरम्भ होता है। भूवैज्ञानिकों के अनुसार इस युग में टेथिस सागर के स्थान पर हिमालय का निर्माण आरम्भ हुआ और यह प्रक्रिया निरन्तर जारी है। जबकि आरम्भिक मानव का इतिहास पांचवें युग ‘प्लीओसीन’ से शुरू हुआ। इस युग में महाद्वीप और महासागर वर्तमान स्वरूप लेने हेतु गतिशील हो चुके थे। संभवतः 20 लाख वर्ष से पहले हिमालय में आरम्भिक मानव या तो ‘लारेशिया’ या ‘गौण्डवानालैण्ड’ से आ चुका था। भूवैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी का छठा युग ‘प्लीस्टोसीन’ (20 लाख से 12 हजार वर्ष पहले) तक हिमालय का अधिकांश भाग हिमाच्छादित था। भूवैज्ञानिकों के उक्त तथ्यों के आधार पर कह सकते हैं कि संभवतः आरम्भिक मानव ने टेथिस सागर के दक्षिणी महाद्वीप गौण्डवानालैण्ड से मध्य हिमालय की ओर आव्रजन किया था।

     मध्य हिमालय के आरम्भिक इतिहास को आदि मानव ने रंगीन रेखाओं की गतिविधियों से प्रस्तुत किया और जिसके पुरातात्विक अवशेषों में सबसे महत्वपूर्ण हैं शैलाश्रय, जो उसके आश्रय के अतिरिक्त एक कला-दीर्घा जैसा था, जहाँ उसके हाथों और अभिरुचि से कालजयी चित्रकला का विकास हुआ। उत्तराखण्ड के कई पर्वतीय स्थलों से प्रागैतिहासिक गुहा-चित्र प्रकाश में आ चुके हैं। चमोली जनपद के ‘डुंगरी’ और ‘किमनी’ गांव के शैलाश्रयां से सुस्पष्ट गुहा-चित्र प्राप्त हुए हैं। अलकनंदा घाटी के डुंगरी गांव के पास ‘ग्वरख्या’ या ‘गोरखा’ उड्यार प्रागैतिहासिक गुहा-चित्रकारी की उत्कृष्ट कला को प्रदर्शित करता है, जहाँ आरम्भिक मानव ने पशु और मानवाकृतियों को उकेरने के लिए लाल रंग का प्रयोग किया। इस गुहा-चित्रालय में पशुओं को मानवाकृतियों ने इस प्रकार से घेरा है कि जैसे वे उन्हें खदेड़ रहे हैं। ‘‘लोहित रंग से चित्रित इन 41 आकृतियों में से 33 मानव तथा 8 पशुओं की हैं।’’ चमोली के ही पिण्डर घाटी के किमनी गांव (थराली) के शैलाश्रय चित्र सफेद रंग से बनाये गये हैं। इसी प्रकार उत्तरकाशी के यमुना घाटी के ‘हुडली’ शैलाश्रय के चित्र नीले रंग से बनाये गये हैं। 

उत्तराखण्ड के चमोली और उत्तरकाशी के अतिरिक्त मध्य हिमालय का अल्मोड़ा जनपद शैलाश्रय गुहा-चित्रों के लिए प्रसिद्ध है, जहाँ अनेक प्रागैतिहासिक पुरास्थलों को खोजा जा चुका है। ‘‘सन् 1968 में अल्मोड़ा जनपद में सुयाल नदी के दायें तट पर ’लखु-उड्यार’ के चित्रित शैलाश्रय की खोज मध्य हिमालय की पहाड़ियों में प्रागैतिहासिक गुहा-चित्रों की प्रथम खोज थी।’’ यह प्रागैतिहासिक पुरास्थल अल्मोड़ा-बाड़ीछिना सड़क मार्ग पर अल्मोड़ा नगर से मात्र 15 किलोमीटर दूर पर ‘दलबैंड’ के निकट एक लघु पर्वत पर है, जहाँ नाग-फन की भाँति पश्चिमाभिमुखी एक गुहा चट्टान है, जिसे ‘लखु-उड्यार’ कहते हैं। दलबैंड का यह लघु पर्वत/लखु-उड्यार तीन ओर से सुयाल नदी से घिरा है। इस शैलाश्रय गुहा-चित्रों की खोज का श्रेय डॉ. महेश्वर प्रसाद जोशी को जाता है। यहाँ के गुहा चित्रों की विशेषता को एक पंक्ति में कहें तो ‘‘चित्रण का प्रमुख विषय सम्भवतः समूहबद्ध नर्तन है।’’ इस शैलाश्रय के चित्र चट्टान की दीवार-छत पर गेरुवे, लाल, काले और सफेद रंग से बनाये गये हैं। इन चित्रों को खींचने में मुख्यतः दो प्रकार के ज्यामितीय रेखाओं का प्रयोग किया गया है- सरल और बक्र रेखा। बक्र रेखाओं को तरंगित रेखायें भी कह सकते हैं। 

    अल्मोड़ा के प्रमुख गुहा-चित्र पुरास्थलों में ल्वेथाप, लखु-उड्यार, पेटशाल, फलसीमा आदि सरयू नदी से लगभग 30-40 किलोमीटर की परिधि पर हैं। ‘ल्वेथाप’ का अर्थ है- ‘लहू की छाप’। ल्वेथाप नामक प्रागैतिहासिक पुरास्थल अल्मोड़ा से लगभग 9 किलोमीटर दूर ‘बाराकोट’ नामक स्थान के पास है, जो लखु-उड्यार के पश्चिम दिशा में स्थित है। इस पुरास्थल के शैलाश्रय में मानव को आखेट और नृत्य करते हुए लाल रंग से चित्रित किया गया है। पेटशाल और फलसीमा नामक प्रागैतिहासिक पुरास्थल भी अल्मोड़ा-बाड़ीछीना सड़क मार्ग पर लखु-उड्यार से दक्षिण दिशा में 6 से 8 किलोमीटर की परिसीमा में स्थित हैं। अल्मोड़ा के ये सभी पुरास्थल अल्मोड़ा नगर से 15 किलोमीटर की परिसीमा और उŸार में स्थित हैं।

     अल्मोड़ा के सुयाल नदी घाटी के अतिरिक्त सरयू नदी घाटी (गंगोली राज्य की दक्षिणी और पश्चिमी परिसीमा) ने भी आरम्भिक मानव को आखेट हेतु अवश्य ही आकर्षित किया था और इसका प्रमाण ‘बनकोट’ (गंगोली) से प्राप्त प्रागैतिहासिक कालीन ताम्र वस्तुएं हैं। यहाँ से प्राप्त ताम्र उपकरण प्राचीन ताम्रयुग के अकाट्य प्रमाण हैं। ‘‘1986 ई. में अल्मोड़ा से एक तथा 1989 ई. में पिथौरागढ़ जनपद के बनकोट स्थान से समरूप आठ ताम्र-उपकरण प्राप्त हुए।’’ प्रागैतिहासिक ताम्र उपकरणों के आधार पर अल्मोड़ा के गुहा चित्रित पुरास्थलों और गंगोली क्षेत्र को एक दूसरे से संबद्ध कर सकते हैं। लेकिन इस विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र गंगोली में अल्मोड़ा की भाँति अभी तक गुहा-चित्रकारी पुरास्थल प्रकाश में नहीं आये हैं। लेकिन गंगोली क्षेत्र में सैकडों गुहाओं को खोजा जा चुका है, जिनमें पाताल भुवनेश्वर सबसे अधिक प्रसिद्ध है। संभवतः अल्मोड़ा के गुहा-चित्र स्थलां से आरम्भिक मानव ने ताम्रयुग में सरयू नदी के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र गंगोली और पिथौरागढ़ की ओर आव्रजन किया था। 

उत्तराखण्ड के सन्दर्भ में यशवंत सिंह कठोच ने ताम्रयुग को ‘‘ताम्र-निखात संस्कृति कहा है।’’ सन् 1989 ई. में अल्मोड़ा के शैलाश्रय गुहा-चित्र पुरास्थलों से लगभग 40 किमी दूर राजकीय इण्टर कॉलेज बनकोट, विकासखण्ड गंगोलीहाट में भवन निर्माण हेतु खुदाई के दौरान 8 ताम्र उपकरण प्राप्त हुए। इस खुदाई से ‘बनकोट’ गांव प्राचीन प्रागैतिहासिक पुरास्थल की श्रेणी में आ गया और इस घटना ने लखु-उड्यार के प्रागैतिहासिक गुहा-चित्रों को सार्थकता प्रदान कर दी। ‘‘प्रागैतिहासिक युग के अन्तिम कालखण्ड को आद्य-ऐतिहासिक-युग कहा जाता है।’’ इतिहासकार बनकोट पुरास्थल से प्राप्त ताम्र उपकरणों को आद्य ऐतिहासिक युगीन बतलाते हैं। ताम्रनिधि-संस्कृति के उपकरण जो ’बनकोट’ से प्राप्त हुए हैं, इन्हें अन्वेषकों ने ई. पू. द्वितीय सहस्राब्दी का अनुमानित किया है। संभवतः इस क्षेत्र में स्थित प्राचीन ताम्र-खानें ’ताम्र निखात संस्कृति’ के विकास में सहायक सिद्ध हुईं। पं. बद्रीदत्त पाण्डे इस क्षेत्र में कुल ताँबे की 4 खानों का उल्लेख इस प्रकार से करते हैं- ‘‘इनमें से तीन खानें बड़ी हैं, एक छोटी है। दो ताँबाखान अठिगांव पट्टी में हैं।’’ ब्रिटिश कालीन अठिगांव पट्टी में ही बनकोट गांव स्थित है।

बनकोट के समान ही 5 ताम्र उपकरण पिथौरागढ़ नगर के निकटवर्ती ‘नैनीपातल’ गांव से भी प्राप्त हुए हैं। ये सभी ताम्र मानवाकृतियां राजकीय संग्रहालय अल्मोड़ा में संगृहीत हैं। लेकिन बनकोट के ताम्र उपकरण गांव में ही स्थापित स्थानीय संग्रहालय में संगृहीत हैं। प्रागैतिहासिक पुरास्थल ‘नैनीपातल’ सोर घाटी (पिथौरागढ़ नगर) से लगभग 10 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में पिथौरागढ़-झूलाघाट सड़क मार्ग पर दायें ओर स्थित है।

    मध्य हिमालय के आस पास के क्षेत्रों में उत्तर प्रदेश के प्राचीन हस्तिनापुर राज्य से ताम्रनिधि सांस्कृतिक पुरास्थल की जानकारी प्राप्त हुई है। ‘‘भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्वावधान में डी.वी. शर्मा के निर्देशन में चल रहे सुनौली (जनपद बागपथ) उत्खनन से ताम्र तलवारें तथा लगभग तीन दर्जन लघु ताम्र मानवाकृतियां मिली हैं।’’ इस आधार पर कह सकते हैं कि ताम्र मानवाकृति संस्कृति का विस्तार गंगा-यमुना दोआब से सदूर उत्तर में स्थित सरयू-काली अंतस्थ क्षेत्र तक विस्तृत था। कुमाऊँ के संदर्भ में देखें तो मध्य हिमालय का सरयू-काली अंतस्थ क्षेत्र ही ताम्र-युगीन संस्कृति का केन्द्र था, जहाँ प्रागैतिहासिक पुरास्थल बनकोट और नैनीपातल गांव स्थित हैं। 


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