नंदा-सुनंदा
नंदा-सुनंदा
ताम्रपत्र अभिलेखों से स्पष्ट होता है कि भगवती नंदा को कुलदेवी मानने वाले कार्तिकेयपुर राजवंश से पहले उत्तराखण्ड पर पौरव वंश का शासन था, जिनकी राजधानी ब्रह्मपुर थी। लेकिन ब्रह्मपुर के पौरव नरेशों के तालेश्वर (अल्मोड़ा) से प्राप्त ताम्रपत्रों से नंदा देवी का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। पौरव शासकों ने छठी सदी के आस पास मध्य हिमालय पर शासन किया था। इस राजवंश के ताम्रपत्रों में राज्य का नाम पर्वताकार और राजधानी का नाम ब्रह्मपुर उत्कीर्ण है। चीनी यात्री ह्वैनसांग ने भी अपने यात्रा विवरण में ब्रह्मपुर का उल्लेख किया था। इस चीनी यात्री ने सन् 629 से 643 ई. तक भारत की यात्रा की थी। उस कालखण्ड में उत्तर भारत का प्रमुख राजा कन्नौज का हर्षवर्धन था। हर्षवर्धन और कार्तिकेयपुर नरेशों के प्रकाशित ताम्रपत्रों से सामन्तीय व्यवस्था का उल्लेख प्राप्त होता है। लेकिन पौरव वंश के तालेश्वर ताम्रपत्रों से सामन्तीय व्यवस्था का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। अतः ताम्रपत्र लेखन शैली और सामन्तीय शासन व्यवस्था के आधार पर पौरव वंश को हर्ष और कार्तिकेयपुर नरेशों का पूर्ववर्ती माना जाता है।
राजा हर्ष के पूर्ववर्ती ब्र्र्र्रह्मपुर के पौरव शासकों ने ‘वीरणेश्वर नाग’ को अपना कुल देवता घोषित किया, जिसे इतिहासकार बेड़ीनाग से भी संबद्ध करते हैं। संभवतः ब्रह्मपुर राज्य के पश्चात कार्तिकेयपुर राज्य अस्तित्व में आया और लगभग आठवीं-नौवी सदी में कार्तिकेयपुर नरेशों ने उत्तराखण्ड पर शासन किया। इतिहासकार बागेश्वर जनपद के गरुड़ घाटी में स्थित बैजनाथ (कत्यूर घाटी) नामक स्थल को कार्तिकेयपुर से संबद्ध करते हैं, जो ऐतिहासिक तथ्यों की कसौटी पर सही नहीं बैठता है। संभवतः कार्तिकेयपुर गढ़वाल में था। यह बहुत ही अचम्भित करने वाला तथ्य है कि अस्कोट, गंगोली, द्वाराहाट और डोटी के उत्तर-कत्यूरी शासकों के प्रकाशित ताम्रपत्रों से भी भगवती नंदा का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। लेकिन उत्तर कत्यूरी राज्यों अस्कोट, सीरा, सोर और गंगोली में सातों- आठों का त्यौहार प्रतिवर्ष मनाया जाता है, जो शिव और नंदा को समर्पित है।
प्राचीन उत्तर कत्यूरी राज्यों में आज भी नंदा देवी का त्यौहार सातों-आठों बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। इस पर्व में शिव के महेश्वर और नंदा की गौरी रूप में पूजा की जाती है और महिलाएं उपवास रखतीं हैं। पूजा-पाठ की यह प्रक्रिया दो तिथियों भाद्रकृष्ण या भाद्रशुक्ल पक्ष की सप्तमी और अष्टमी को करने का विधान है। विभिन्न त्यौहारों को एक निश्चित तिथि को मनाने की परम्परा है। लेकिन इस पर्व को किसी वर्ष भाद्रशुक्ल पक्ष की सप्तमी-अष्टमी को, या किसी वर्ष भाद्रकृष्ण पक्ष की सप्तमी-अष्टमी को मनाते है। इस पर्व की तिथि निर्धारण के लिए एक विशिष्ट पंचांगीय सूत्र है। महोपदेशक पं. रामदत्त जी ज्योतिर्विद के पंचांग के अनुसार- ’’यह व्रत भाद्रशुक्ल अष्टमी के दिन अगस्त्योदय से पहले मनाने की परम्परा है। यदि अगस्त्योदय भाद्रशुक्ल अष्टमी से पहले होता है, तो यह भाद्रकृष्ण अष्टमी के दिन किया जाता है।’’ वर्ष 2021 में अगस्त तारे का उदय भाद्रशुक्ल अष्टमी से पहले हुआ है। इस कारण सातों-आठों पर्व भाद्रकृष्ण के सप्तमी-अष्टमी को मनाया गया। जबकि नंदाष्टमी का पर्व भाद्रशुक्ल पक्ष की अष्टमी को ही मनाया गया।
सातों-आठों पर्व को ‘दुर्वाष्टमी’ भी कहा जाता है। इस पर्व में महिलाएं सामूहिक पूजा-पाठ करतीं हैं और नंदा के जीवन और उनके महेश्वर से वैवाहिक संबंधों के गीत गाये जाते हैं। इस स्तुति गायन में नंदा के साथ उनकी युग्मज (जुड़वा बहिन) सुनंदा का भी उल्लेख किया जाता है। सातों-आठों पर्व के अतिरिक्त नंदा की युग्मज सुनंदा के संबंध में प्रत्यक्ष ज्ञान प्रतिवर्ष भाद्रशुक्ल अष्टमी या नंदाष्टमी पर नैनीताल नगर में झील के किनारे स्थित नैनादेवी मंदिर में आयोजित होने वाले मेले से भी प्राप्त होता है। इस मेले के अवसर पर नंदा-सुनंदा की डोली (शोभायात्रा) निकालने की परम्परा है। सन् 1937 में प्रकाशित पुस्तक ‘कुमाऊँ का इतिहास’ में बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘नैना देवी मंदिर, बैरन साहब लिखते हैं कि पहले तल्लीताल डाँट के पास था, जहाँ शायद अब डाकघर है। बाद को आजकल के बोट-हाउस के पास बनाया गया। पर उसके दब जाने से लाला मोतीराम साहजी ने इसे 1880 में वर्तमान जगह में बनाया।’’ अर्थात सन् 1880 में मोतीलाल ने नैना देवी मंदिर को मल्लीताल के दक्षिण-पश्चमी छोर पर बनवाया और जिसके निकट फ्लैट्स मैदान है। इस मंदिर में सती के दो नयनो की पूजा की जाती है। सती को उमा और नंदा के नाम से जाना जाता है। नंदा की युग्मज सुनंदा का स्कन्द पुराण के मानसखण्ड में इस प्रकार से वर्णन किया गया है-
‘‘अरण्ये प्रान्तरेवापि दावाग्निमध्यगोपि वा।
स्मृत्वा देवीं सुनन्दां वैं नरो मुच्येत संकाटात्।’’
मानसखण्ड के अनुसार देवी सुनंदा को स्मरण करने से दावाग्नि (वनाग्नि) से घिरा ग्वाला या मानव इस संकट से सुरक्षित निकल जाता है। कुमाऊँ में नंदा के कई मंदिर हैं। लेकिन भगवती सुनंदा का एक मात्र मंदिर कपकोट तहसील के मेहरगाड़ी घाटी के नामती-चेटा बगड़ में स्थापित है। यह स्थल प्राचीन भोट व्यापारिक केन्द्र ‘थल’ से मात्र 15 किलोमीटर दूर है। नंदा की भाँति सुनंदा को भी पशुबलि देने की परम्परा है, जिसे पंच या अष्ठ बलि के नाम से जाना जाता है। भगवती सुनंदा के सेवक मेहरगाड़ी घाटी के सूर्यवंशी क्षत्रिय कोश्यारी हैं, जो अभिवादन में जयदेव प्रथा के अधिकारी हैं। कार्तिकेयपुर नरेश जहाँ नंदा को अपनी कुल देवी घोषित करते हैं, वहीं सुनंदा को अपनी इष्टदेवी मानने वाले सूर्यवंशी कोश्यारी क्षत्रियों का संबंध कार्तिकेयपुर वंश से रहा हो या ना रहा हो। लेकिन यह भी अनोखा संयोग है कि सन् 2000 में उत्तराखण्ड राज्य बनने पर राज्य के द्वितीय मुख्यमंत्री भगतसिंह कोश्यारी, राज्य मूल के प्रथम व्यक्ति थे। अब वे महाराष्ट के राज्यपाल हैं।
कुमाऊँ में नंदादेवी का सबसे प्रसिद्ध मंदिर अल्मोड़ा में है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कह सकते हैं कि सत्रहवीं सदी के चंद राजा बाजबहादुरचंददेव (1638-1678 ई.) ने अल्मोड़ा में नंदादेवी की स्वर्ण मूर्ति स्थापित करवायी थी, जिसे वह गढ़वाल से लूटकर लाये थे। इस चंद राजा के पुत्र उद्योतचंद (1678-1698 ई.) ने इस मंदिर को गूँठें (मंदिर के राजस्व हेतु गांव) दीं। इस मंदिर में भाद्रशुक्ल की सप्तमी से नौवमी तक मेले का आयोजन होता है। प्रतिवर्ष आज भी चंद वंशज इस अवसर पर नंदादेवी की पूजा-पाठ में सम्मिलित होते हैं। चंद राजा बाजबहादुर से पहले कुमाऊँ के चंद राजाओं ने सैकड़ों ताम्रपत्र निर्गत किये, लेकिन प्रकाशित चंद ताम्रपत्रों से नंदादेवी का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। अंतिम चंद राजा महेन्द्रचंद के पिता राजा मोहनचंद ने गोरखा शासक को एक संधि पत्र लिखा, जिसमें देव साक्षी के रूप में बद्रीनाथ, केदारनाथ, कालिका और पूर्णाेगरी देवी का तो उल्लेख किया गया है लेकिन इस पत्र से भी नंदादेवी का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। इन तथ्यों से परे नंदादेवी आज भी कुमाऊँ की लोकप्रिय शक्ति देवी हैं। अल्मोड़ा नगर के अतिरिक्त नंदादेवी के मंदिर वर्तमान में बागेश्वर जनपद के रणचुलाकोट डंगोली, बदियाकोट, पोथिंग, सोराग, कर्मी और सनेती गांव में है। जबकि सन् 1882-83 में मुद्रित हिमालय गजेटियर के लेखक ए.टी. एटकिंसन के अनुसार- ‘‘कुमाऊँ में नंदा देवी के मंदिर अल्मोड़ा, कत्यूर में रणचुला और मल्ला दानपुर के बगड़ में है।’’ कत्यूर घाटी के रणचुलाकोट में आषाढ़ शुक्ल पक्ष की 8 गते को मेला आयोजित किया जाता है। रणचुलाकोट वह स्थल है, जहाँ जोशीमठ से आये शालिवाहन वंशज राजा आसन्तिदेव ने स्थानीय राजा रणधीरसिंह को पराजित किया था और कत्यूरी कहलाये।
बागेश्वर का सनेती गांव, नाकुरी क्षेत्र (वर्तमान दुग नाकुरी तहसील) में स्थित है, जो पौराणिक ग्रंथों में नागपुर के नाम से जाना जाता था और जहाँ आसपास नाग मंदिर हैं, जिनमें हरीनाग और फेणीनाग विशेष प्रसिद्ध हैं। सनेती नंदादेवी मंदिर में तीन वर्ष में एक बार मेला आश्विन शुक्ल पक्ष की द्ववादशी की रात और त्रयोदशी के दिन में आयोजित किया जाता है। यह क्षेत्र प्राचीन कत्यूर राज्य का अभिन्न भाग था। सनेती में कत्यूरी शैली का एक अपूजित मंदिर है और निकटवर्ती मोहली गांव में तीन मंदिरों का समूह है, जिसे देवालय कहते हैं। इस कत्यूरी कालीन देवालय के निकट ही सात विरखम एक चबूतरे पर स्थापित हैं। इसी प्रकार नाकुरी क्षेत्र के होराली गांव के मनकोट में भी दो अपूजित कत्यूरी शैली के मंदिर, पूंगर नदी के बायें बगड़ में हैं।
नैनीताल जनपद के कोसी घाटी (बेतालघाट) के अमेल में ‘उफर्णीदेवी’ का मंदिर है। ‘एडविन थॉमस एटकिंसन’ ने नैनीताल की कोसी घाटी को ‘कोसियान’ और उफर्णादेवी को नंदादेवी का अन्य नाम बतलाया। अमेल के उफर्णीदेवी मंदिर में ज्येष्ठ माह के दशहारा पर्व में मेला आयोजित किया जाता है। यह अमेल गांव बेतालघाट ब्लॉक मुख्यालय से मात्र 3 किलोमीटर दूर कोसी नदी के दायें तट पर स्थित है। उफर्णीदेवी मंदिर परिसर में स्थापित विरखम, इस मंदिर की प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं, जो कत्यूरी और चंद काल में स्थापित किये गये। इस शाक्त देवी के संबंध में एटकिंसन ने लिखा- ‘‘नंदा का एक और स्थानीय नाम निचली जातियों में लोकप्रिय है और वह नाम है उफरैं। इसी नाम से वह नौटी में जानी जाती है, जहाँ उसका कोई मंदिर नहीं है, केवल चोटी पर पत्थरों का एक ढेर मात्र है। नौटी में उसके पुजारी नौटियाल रहते हैं, जो गांव के नाम पर नौटियाल कहलाते हैं।’’
गढ़वाल का नौटी गांव विश्वभर में नंदा राजजात के लिए प्रसिद्ध है। गढ़वाल में बारह वर्ष के अन्तराल में नंदा की शोभायात्रा का आयोजन होता है जिसे नंदा राजजात कहते हैं। चमोली जनपद के ‘नौटी’ गांव से प्रारम्भ होने वाली 280 किलोमीटर की यह धार्मिक यात्रा, एशिया की सबसे लम्बी धार्मिक यात्रा है, जो हिमालय में स्थित रूपकुण्ड तक जाती है, जहाँ ‘‘अभ्रक वाली दो विशाल शिलाओं की, देवी के रूप में पूजा की जाती है।’’ इस राजजात में अल्मोड़ा से भी एक जात सम्मिलित होती है। नौटी के अतिरिक्त चमोली जनपद के लोहबा, गैंड, तल्ली धुरा, सिमली मींग तथा दशोली के करुड़ एवं हिंडोली में भी नंदादेवी के मंदिर है। कुमाऊँ के राजा बाजबहादुरचंददेव, संभवतः लोहाबा से ही नंदा की मूर्ति अल्मोड़ा लाये थे। एटकिंसन करुड़ के नंदादेवी मंदिर को ‘‘शामसाह से तथा हिंडोली के नंदादेवी मंदिर को गोरखों द्वारा दान प्राप्ति’’ की पुष्टि करते हैं।
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