राम के पूर्वज जो गंगोली के ‘पाताल भुवनेश्वर’ गुहा आये थे-ः

 राम के पूर्वज जो गंगोली के ‘पाताल भुवनेश्वर’ गुहा आये थे-ः 

    मध्य हिमालय का भूवैज्ञानिक इतिहास आद्य महाकल्प के द्वितीय युग ‘इयोसीन’ से आरम्भ होता है। भूवैज्ञानिकों के अनुसार इस युग में टेथिस सागर के स्थान पर हिमालय का निर्माण आरम्भ हुआ और यह प्रक्रिया निरन्तर जारी है। जबकि आरम्भिक मानव का इतिहास पांचवें युग ‘प्लीओसीन’ से शुरू हुआ। मध्य हिमालय के आरम्भिक इतिहास को आदि मानव ने रंगीन रेखाओं की गतिविधियों से प्रस्तुत किया और जिसके पुरातत्व अवशेषों में सबसे महत्वपूर्ण हैं शैलाश्रय, जो उसके आश्रय के अतिरिक्त एक कला-दीर्घा जैसा था, जहाँ उसके हाथों और अभिरुचि से कालजयी चित्रकला का विकास हुआ। उत्तराखण्ड  के कई पर्वतीय स्थलों से प्रागैतिहासिक गुहा-चित्र प्रकाश में आ चुके हैं। चमोली जनपद के ‘डुंगरी’ और ‘किमनी’ गांव के अतिरिक्त मध्य हिमालय का अल्मोड़ा जनपद शैलाश्रय गुहा-चित्रों के लिए प्रसिद्ध है, जहाँ अनेक प्रागैतिहासिक पुरास्थलों को खोजा जा चुका है।

     अल्मोड़ा के प्रमुख गुहा-चित्र पुरास्थलों में ल्वेथाप, लखु-उड्यार, पेटशाल, फलसीमा आदि ‘गंगोली’ से लगभग 30-40 किलोमीटर की परिधि पर हैं। अल्मोड़ा के सुयाल नदी घाटी के अतिरिक्त सरयू नदी घाटी (गंगोली राज्य की दक्षिणी और पश्चिमी परिसीमा) ने भी आरम्भिक मानव को आखेट हेतु अवश्य ही आकर्षित किया था और इसका प्रमाण ‘बनकोट’ (गंगोली) से प्राप्त प्रागैतिहासिक कालीन ताम्र वस्तुएं हैं। गंगोली (वर्तमान में गंगोलीहाट, गणाई गंगोली, बेरीनाग, काण्डा, दुग-नाकुरी, थल और कपकोट तहसील) से भी अनेक प्राचीन गुहाओं को खोजा जा चुका है, जिनमें से पाताल-भुवनेश्वर गुहा का उल्लेख पौराणिक ग्रंथों से भी प्राप्त होता है।

    वैदिक ग्रंथों में हिमालय हेतु प्रयुक्त शब्द ‘सुमेरू’ था, तो वहीं पौराणिक ग्रंथ स्कंद पुराण के मानसखण्ड में गंगोली के पाताल-भुवनेश्वर की एक गुहा हेतु ‘सुमेरू’ नाम प्रयुक्त किया गया। मानसखण्ड के अनुसार सुमेरू के अतिरिक्त इस पाताल गुहा के भीतर ‘स्मर’ और ‘स्वधम’ नाम की गुफाएं भी थीं। इस पौराणिक कथा में गंगोली के पाताल-भुवनेश्वर गुहा के महत्व पर व्यासजी और विशिष्ठ मुनि की परिचर्चा का वर्णन इस प्रकार से किया गया है। विशिष्ठ मुनि कहते हैं- 

    ‘‘ऋतुपर्ण नाम का एक सूर्यवंशी अयोध्या का राजा था। वह अपनी राजधानी छोड़कर उत्तर की ओर गया। वहाँ उसने बहुत से हिरन और पक्षी मारे। जब राजा ने नदी में एक सुअर देखा, तो उसे तलवार से मारा। वह भागा। राजा ने घायल सुअर का पीछा किया, तो पता न चला। राजा थक गया और छाँह में बैठने को जगह ढूँढ़ने लगा। वहाँ गुफा में उसने एक क्षेत्रपाल को बैठें देखा। उसने जगह पूछने पर उसने कहा- गुफा में जाओ, जहाँ सब कुछ प्राप्त करोगे।’’

    इस पौराणिक कथा में अयोध्या के सूर्यवंशी राजा ‘ऋतुपर्ण’ का उल्लेख किया गया है, जो इक्ष्वाकु वंश के त्रेतायुगीन राजा थे। इस वंश के पहले राजा ‘इक्ष्वाकु’ थे, जिनका वंश ब्रह्मा के दस मानस पुत्रों में से एक ‘मरीचि’ से आरम्भ हुआ था। राजा इक्ष्वाकु से आरम्भ वंशावली में 44 वें क्रमांक पर ऋतुपर्ण का उल्लेख प्राप्त होता है, जो राजा ‘अयुतायुष के उत्तराधिकारी थे। त्रेतायुगीन इक्ष्वाकु वंश के पहले राजा मान्धाता थे। इस युग में ऋतुपर्ण से पहले जो प्रमुख राजा हुए उनमें ‘सगर’, ‘दलीप’ और ‘भगीरथ’ सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए थे। इस इक्ष्वाकु वंशावली में राजा राम का क्रमांक 58 वां है। राजा ऋतुपण जो गंगोली के पाताल-भुवनेश्वर गुहा में आये थे, वे राजा राम के पूर्वज थे।

    इस पौराणिक कथा में ‘क्षेत्रपाल’ का उल्लेख गुहा रक्षक के रूप में किया गया है, जिन्हें कुमाऊँ में स्थानीय देवता की मान्यता प्राप्त है। इस पौराणिक कथा के एक प्रसंग में शेषनाग, राजा ऋतुपर्ण को गुफा के महत्व के बारे में इस प्रकार से बतलाते हैं-

    ‘‘हे राजा, इस गुफा का नाम भुवनेश्वर है। इस गुफा का अंत कहाँ है, कपिल व अन्य मुनि नहीं कह सकते। इसमें तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश- भुवनेश्वर के नाम से रहते हैं। यहाँ इन्द्र व अन्य देवता, दैत्य, गंधर्व, नाग, नारद व अन्य देवर्षि वशिष्ठ व अन्य ब्रह्मर्षि, सिद्ध, विद्याधर व अप्सराएं आदि रहती हैं। कोई पापी आदमी इन गुफाओं में नहीं आ सकता। यह वह कंदरा है, जिसमें महादेव व पार्वती रहते हैं, उनको देखो। किंतु तुम इन आँखों से न देख सकोगे, इससे दिव्य-चक्षु प्रदान करता हूँ।’’

    इस पौराणिक वृत्तांत में ‘भुवनेश्वर’ यानि ब्रह्मा, विष्णु और महेश को बतलाया गया है, जिन्हें सनातन धर्म में ‘त्रिदेव’ कहा जाता है। शाब्दिक अर्थ में देखें तो भुवन ᐩ ईश्वर, अर्थात जगत या सृष्टि का ईश्वर। 

    यह प्राचीन गुहा गंगोलीहाट के निकट भुवनेश्वर गांव (तहसील बेरीनाग, जनपद पिथौरागढ़) में है, जो गंगोलीहाट से मात्र 13 और बेरीनाग 25 किलोमीटर दूर है। सड़क मार्ग से यह पौराणिक पाताल गुहा स्थल कुमाऊँ के द्वार काठगोदाम से 190, चंदों की प्राचीन राजधानी चंपावत से 105, चंदों की परवर्ती राजधानी अल्मोड़ा से 110, कत्यूरियों की प्राचीन राजधानी बैजनाथ से 103, पौराणिक नगर बागेश्वर से 85, सोर के बम शासकों की राजधानी पिथौरागढ़ से 90 तथा पर्यटन स्थल चौकोड़ी से मात्र 37 किलोमीटर दूर है।

    बेरीनाग तहसील का भुवनेश्वर गांव पाताल गुहा के लिए ही प्रसिद्ध नही है, बल्कि यहाँ शिव का कत्यूरी कालीन वृद्ध-भुवनेश्वर मंदिर है, जिसे कत्यूरी राजा आसन्तिदेव की रानी सुभद्रा देवी ने लगभग आठवीं-नौवीं शताब्दी में बनवाया था। यह शिव मंदिर, पाताल-भुवनेश्वर गुहा से मात्र 100 मीटर दूर है। भुवनेश्वर गांव में स्थित यह शिव मंदिर त्रिरथ शैली में निर्मित है, जिसके प्रागंण में ही वलभी शैली से निर्मित प्राचीन चामुण्डा मंदिर गंगोली राज्य के मंदिर स्थापत्य की भिन्नता को प्रदर्शित करता है। मंदिर परिसर से प्राप्त पुरातत्व सामग्री के आधार पर इतिहासकार इस मंदिर को नौवीं शताब्दी का बतलाते हैं। लेकिन इस मंदिर से 100 मीटर दूरी पर स्थित पाताल-भुवनेश्वर गुहा का निर्माण, हिमालय पर्वत के निर्माण के साथ ही आद्जीवी महाकल्प के द्वितीय युग ‘इयोसीन’ से ही होना शुरू हुआ होगा। अर्थात लगभग 4 करोड़ वर्ष पहले हिमालय पर्वत के निर्माण के साथ ही इस पाताल गुहा की भी निर्माण प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी थी।

    कुमाऊँ के प्रसिद्ध जागेश्वर की भाँति प्राचीन काल में वृद्ध-भुवनेश्वर मंदिर कैलास यात्रा मार्ग का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यहाँ कैलास तीर्थ यात्री तीन ठहरता था। नौवीं शताब्दी में आदिगुरु शंकराचार्य कैलास यात्रा के दौरान यहाँ तीन दिन ठहरे थे। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि आदिगुरु शंकराचार्य ने इस प्राचीन पाताल गुहा में ताम्र शिवलिंग स्थापित किया था। इस दौरान शंकराचार्य ने निकटवर्ती गंगोलीहाट के कालिका मंदिर में श्रीयंत्र स्थापित कर, इस क्षेत्र को कालिका के भय से मुक्त किया था। 

    पौराणिक मान्यताओं के आधार पर इस प्राचीन गुहा का खोजकर्ता अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण को कह सकते हैं। जबकि इतिहासकार इस प्राचीन गुहा के निकटवर्ती वृद्ध-भुवनेश्वर मंदिर को कत्यूरी राजा द्वारा निर्मित बतलाते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो, भूगर्भ की आंतरिक संरचना में परिवर्तन से इस गुहा का निर्माण हुआ। लेकिन धर्म की दृष्ट से देखें तो, यह प्राचीन गुहा सनातन संस्कृति का प्राकृतिक रूपान्तरण है। प्रस्तर एवं प्राकृतिक रूप में चूने से निर्मित विभिन्न देवी-देवताओं की आकृतियों और उनके प्रतीक ही इस गुहा को देव-दानव, पशु-पक्षी और अन्य प्राणियों का एक प्राकृतिक पुरातत्व संग्राहलय बनाते हैं। इस गुहा की प्रमुख आकृतियों में शेषनाग, एरावत हाथी के पाद, शिवलिंग, कल्पवृक्ष और गरुड़ पक्षी सबसे महत्वपूर्ण हैं। गंगोली क्षेत्र में गत 30-40 वर्षों के कालखण्ड में इस तरह की अनेक गुहाओं को खोजा जा चुका है, जहाँ प्राकृतिक रूप से देवी-देवताओं की आकृति एवं प्रतीक स्वतः निर्मित है, जिनमें सबसे अधिक संख्या में शिवलिंग, शंख और कमलाकृतियां हैं।


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