कुमाऊँ का मौर्योत्तर कालीन इतिहास और ‘सेनापानी’

 कुमाऊँ का मौर्योत्तर कालीन इतिहास और ‘सेनापानी’ 

    देहरादून जनपद के कालसी नामक स्थान से मौर्य सम्राट अशोक का एक शिलालेख सन् 1860 में खोजा गया। यह शिलालेख उत्तराखण्ड में मौर्य वंश के शासन की पुष्टि करता है। मौर्य काल में मध्य हिमालय क्षेत्र पर कुणिन्द या कुलिन्द वंश का शासन था, जो सम्राट अशोक के अधीनस्थ थे। मौर्य वंश के पतनोपरांत मगध पर क्रमशः शुंग और कण्व वंश का शासन रहा था। प्राचीन भारतीय साहित्यिक स्रोत्रों के अनुसार शुंग ब्राह्मण थे। इस वंश को महर्षि पाणिनि ने भारद्वाज गोत्र का ब्राह्मण बताया। शुंग शासक पुष्यमित्र के शासन काल में भारत पर यवन आक्रमण हुआ था। उत्तराखण्ड पर शुंग शासन के प्रमाण अभी तक प्राप्त नहीं हुए हैं। लेकिन ’सेनापानी’ (नानकमत्ता के निकट) से प्राप्त स्तूप को शुंग कालीन माना जाता है।

    शुंग शासक बौद्ध मत के कट्टर विरोधी थे। ‘‘बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान तथा तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के विवरणानुसार पुष्यमित्र शुंग को बौद्धों का घोर शत्रु तथा स्तूपों और विहारों का विनाशक बताया गया है।’’ बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार उसने 84,000 स्तूपों  को नष्ट करने का निश्चय किया था। अतः शुंग कालीन सेनापानी स्तूप के निर्माता शुंग शासक नहीं हो सकते। शुंग काल से पहले मौर्य काल में सम्राट अशोक के शासन काल में ‘गोविषाण’ (वर्तमान में काशीपुर) बौद्ध धर्म का एक प्रसिद्ध केन्द्र बन चुका था। सम्भवतः शुंग शासकों ने ‘गोविषाण’ के बौद्ध भिक्षुओं का उत्पीड़न किया। उत्पीड़ित बौद्ध भिक्षुओं ने प्राण रक्षा हेतु पर्वतों की ओर पलायन किया। संभवतः उन्होंने पर्वतपादीय क्षेत्र ‘सेनापानी’ में शरण ली और वहाँ एक स्तूप का निर्माण किया। ‘‘अतएव मध्य हिमालय के पाद-प्रदेश में भी कभी शुंग शासन रहा हो, यह कल्पनातीत है।’’

सेनापानी नामक स्थान मध्य हिमालय की तलहटी और तराई-भाबर के मध्य खटीमा से लगभग 20 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में है। वर्तमान में यह स्थल हल्द्वानी विकासखण्ड के उत्तर-पूर्वी छोर पर है। इस पुरास्थल के दक्षिण में नानक सागर (नानकमत्ता, जहाँ सोलहवीं शताब्दी में सिक्ख धर्म के पहले गुरु ‘नानक’ आये थे।) तथा उत्तर में पर्वतीय भू-भाग पर व्यांनधूरा भी एक महत्वपूर्ण धर्मिक स्थल है, जहाँ कुमाउनी देवता ‘ऐड़ ज्यू’ या ‘ऐड़ी देवता’ का प्रसिद्ध मंदिर है। कुमाऊँ में ऐड़ ज्यू के सकड़ों मंदिर हैं, लेकिन व्यांनधूरा का यह मंदिर स्थानीय देवता के प्रसिद्ध तीर्थां में से एक है, जहाँ कार्तिक पूर्णिमा (गुरु नानक जयंती) को भव्य मेला आयोजित किया जाता है। दूर-दूर से ऐड़ ज्यू के भक्त इस मेले में देवता का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आते हैं। इस अवसर पर ऐड़ी देवता का मानुष भक्त पर अवतरित होना आकर्षण का केन्द्र रहता है। अतः बौद्ध स्तूप के निकटवर्ती क्षेत्र में स्थानीय देवता का तीर्थ स्थापित होना, मध्य हिमालय के स्थानीय मानुष किरात और बौद्ध धर्म के समन्वय को रेखांकित करता है। 

    ‘सेनापानी’ शब्द सेना और पानी से बना है। इसे इस अर्थ में समझ सकते हैं कि प्राचीन और मध्य काल में कुमाऊँ क्षेत्र पर वाह्य आक्रमण के लिए कई मार्ग थे। उनमें एक मार्ग सेनापानी से भी था। इस स्थल से ही वाह्य आक्रमणकारी सेना जल लेकर पहाड़ पर चढ़ते थे। अतः इस स्थान को सेनापानी कहा गया। चंद शासन काल में यह स्थान ‘छिनकी’ परगना के अधिकृत क्षेत्र में था। 

शुंग वंश के पश्चात मगध पर कण्व वंश का अधिकार रहा था। मौर्योत्तर काल में मगध राज्य की शक्ति का ह्रास हुआ। मगध शासक अब निर्बल हो चुके थे। इसका एक कारण पश्चिमोत्तर यवन आक्रमण भी था। भारत में केन्द्रीय शक्ति के निर्बल हो जाने छोटे राज्यों को स्वतंत्र होने का अवसर प्राप्त हुआ। मध्य हिमालय के कुणिन्द शासक भी स्वतंत्र हो गये थे। 




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