ब्रह्मपुर का पौरव वंश और स्थानीय शासन

ब्रह्मपुर का पौरव वंश और स्थानीय शासन

     ब्रह्मपुर नगर उद्घोष के साथ पर्वताकार राज्य में वर्म्मन (वर्म्मा) नामान्त वाले पांच पौरव शासकों ने राज्य किया, जिनका शासन काल छठी शताब्दी ई. के आस पास मान्य है। ये शासक राजा हर्ष के पूर्ववर्ती थे। वीरणेश्वर भगवान के आर्शीवाद से सोम-दिवाकर वंश (पौरव वंश) में क्रमशः विष्णुवर्म्मा, वृषणवर्म्मा, अग्निवर्म्मा, द्युतिवर्म्मा और विष्णुवर्म्मा द्वितीय शासक हए। इस वंश के अंतिम दो शासकों द्युतिवर्म्मा और विष्णुवर्म्मा ने अपने नाम से ताम्रपत्र उत्कीर्ण करवाये थे, जो अल्मोड़ा के स्याल्दे तहसील के तालेश्वर गांव से सन् 1915 ई. में प्राप्त हुए। इन ताम्रपत्रों के आधार पर कह सकते हैं कि गौ-ब्राह्मण हितैषी इस वंश के अंतिम दो शासक- द्यतिवर्म्मा और विष्णुवर्म्मा स्वतंत्र शासक थे, जिन्होंने परम भट्टारक महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। 

    ब्रह्मपुर से संचालित पर्वताकार राज्य, सत्ता-विकेन्द्रीकरण का उदाहरण प्रस्तुत करता है। विषय के अधिकारी ’दण्ड-उपरिक’ का मंत्रीमण्डल वरीयता क्रम में प्रथम स्थान था, जिसे दण्ड देने का भी अधिकार प्राप्त था। पौरव ताम्रपत्रों में ’सामन्त’ नामक पदाधिकारी का उल्लेख नहीं है, जो इस पर्वतीय राज्य में सामन्तवादी ढांचा विकसित न होने का प्रमाण है। इस राज्य में ’अमात्य’ नामक राज्यपदाधिकारी का भी न होना यह संकेत करता है कि राजा, मंत्रीमण्डल के सामूहिक निर्णयानुसार शासन करता था। राज्य की सेना हस्ति और अश्वसेना में विभाजित थी, जिसके प्रधान क्रमशः पीलुपति और अश्वपति कहलाते थे। इस राज्य में ’प्रतिहार’ नामक राज्यपदाधिकारी रानी-महल की सुरक्षा हेतु जिम्मेदार था।

    ब्रह्मपुर राज्य में ’प्रमातार’ नामक पदाधिकारी भूमि-पैमाइश का कार्य करता था। राज्य में भूमि माप हेतु तीन पैमाने प्रचलन में थे, जिनमें द्रोणवापं सबसे अधिक प्रचलित पैमाइश पैमाना था। सिंचित कृषि भूमि हेतु कुल्यवापं, असिंचित कृषि भूमि हेतु द्रोणवापं और बंजर-वन भूमि हेतु खारिवापं पैमाने का प्रयोग किया जाता था। राज्य में लेखक संगठन के अध्यक्ष को ’दिविरपति’ कहा जाता था, जिनके निर्देशन में ताम्रपत्रों को उत्कीर्ण करवाया जाता था। इस प्राचीन राज्य में राज्य संवत् का प्रचलन था। इस प्रकार छठी शताब्दी के आस पास ब्रह्मपुर में पौरव वंश ने एक सुसंगठित और प्रगतिशील राजसत्ता को स्थापित किया था। इस प्रगतिशील राजसत्ता की स्थानीय शासन- ग्राम, क्षेत्र और विषय (जनपद) से संबंधित सूचना भी तालेश्वर ताम्रपत्रों से प्राप्त होती है।

    पौरव शासक द्युतिवर्म्मा के 5 वें राज्य वर्ष पर निर्गत ताम्रपत्र में ’‘पल्लिका, ग्राम, कर्म्मान्त, विषयास्ताम्रपट्ट’’ उत्कीर्ण है। पल्लिका का अर्थ ’लघु ग्राम’ होता है। ब्रह्मपुर राज्य में लघुग्राम, ग्राम, कर्म्मान्त, विषय (जनपद) आरोही क्रम में राज्य की प्रशासनिक इकाइयां प्रतीत होती हैं। लेकिन डॉ. शिवप्रसाद डबराल ’कर्म्मान्त’ को ’उद्योग’ के अर्थ में उपयुक्त बतलाते हैं। इस ताम्रपत्र में दो बार कर्म्मान्त का उल्लेख किया गया है। यथा-’पशुकुलावदार-कर्म्मान्त-कोणकलिका गंगा-ग्रामे’ और ’गुलकर्म्मान्तः पितृगंगातटे’। दोनों ही स्थानों में गंगा के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि ब्रह्मपुर राज्य का विस्तार गंगा घाटी तक अवश्य था।

    पौरवों के परवर्ती कार्तिकेयपुर नरेश पद्मटदेव के पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्र में ‘’अपरभूमिकर्मान्त’’ और ‘’पल्लि-पल्लिका वृत्तिकर्मान्तादिभूमि’’ तथा उनके पुत्र सुभिक्षराजदेव के ताम्रपत्र में ’श्रीहर्षपुर कर्मान्त’ उल्लेखित है। कर्म्मान्त को उद्योग के अर्थ में लें तो सम्भवतः ये शिल्पकार समाज के गांव थे, जो काष्ठ और पाषाण शिल्प का कार्य किया करते थे।

    ब्रह्मपुर उद्घोष वाले 5 वें राज्य वर्ष में निर्गत ताम्रपत्र (द्युतिवर्म्मा) में ’कपिल गर्त्ता’ और ’करवीर गर्त्ता’ और विष्णुवर्म्मा के 28 वें राज्य वर्ष में निर्गत ताम्रपत्र में भी ’जच्छिद्र गर्त्ता’ का उल्लेख किया गया है। गर्त संस्कृत का संज्ञा शब्द है, जिसका अर्थ- चहारदीवारी, टीला, खाई और एक मछली होता है। संभवतः चहारदीवारी युक्त टीला, जिसके चारों ओर खाई हो गर्त्ता कहलाता था, जिसे कोट या गढ़ी भी कहा जाता था। सम्भवतः गर्त्ता से गड़ तथा गड़ से ही गड़वाल या गढ़वाल शब्द अस्तित्व में आया। कुमाउनी में कृषि-भूमि को ‘गड़’ भी कहा जाता है। 

तालेश्वर ताम्रपत्र (द्युतिवर्म्मा) से ’पल्लिका’ नामन्त वाले गांवों का उल्लेख प्राप्त होता है। इस ताम्रपत्र में कुल 16 स्थानों पर ’पल्लिका’ शब्द उत्कीर्ण है। जबकि 5 स्थानों पर ’ग्राम’ उत्कीर्ण है, जिनमें वचाकरणं, करवीर, कोष्टागक्षीचरण, कोणकलिका गंगा और कार्तिकेयपुर ग्राम का नाम स्पष्ट उत्कीर्ण हैं। जबकि विष्णुवर्म्मा के ताम्रपत्र में मात्र एक स्थान पर ’पल्लिका’, दो स्थानों पर ’ग्राम’ और 24 स्थानों पर ’क्षेत्र’ का उल्लेख किया गया है। वर्तमान समय में क्षेत्र, किसी एक स्थान विशेष के लिए प्रयुक्त किया जाता है, जिसमें कई गांव सम्मिलित होते हैं।

    पल्लिका या पल्ली से कालान्तर में ‘पाली’ शब्द की व्युत्पत्ति हुई। पिथौरागढ़ जनपद का ’जाख-रावत’ गांव (क्षेत्र बेरीनाग) प्राचीन गंगोली में स्थित है, जिसे ’ग्यारहपाली’ कहा जाता है। इस गांव के आस-पास के क्षेत्र को नौगांव-ग्यारहपाली कहा जाता है। अर्थात प्राचीन काल में ग्यारहवें संख्या के पाली में नौव गांव सम्मिलित थे। इसी प्रकार मल्ला कत्यूर में ’पन्द्रपाली’ नाम का भी गांव है। इसी प्रकार कुमाऊँ और गढ़वाल में पाली नामांत वाले कई गांव हैं। कनिंघम ने ब्रह्मपुर की पहचान जिस क्षेत्र से की, वह क्षेत्र ब्रिटिश काल में परगना पाली-पछाऊँ कहलाता था। अतः ग्यारहपाली, पन्द्रपाली और पाली-पछाऊँ का संबंध प्राचीन ब्रह्मपुर राज्य से अवश्य था।

  द्युतिवर्म्मा द्वारा 5 वें राज्य वर्ष में निर्गत ताम्रपत्र से ’ब्रह्मपुर कार्तिकेयपुर’ नामक ग्राम का उल्लेख प्राप्त होता है। उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास में ‘कार्तिकेयपुर’ का विशेष महत्व है। चमोली के पाण्डुकेश्वर मंदिर से कार्तिकेयपुर उद्घोष वाले ललितशूर के दो ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं, जिन्हें इतिहासकार कत्यूरी शासक कहते हैं। ललितशूर के पुत्र भूदेव का बागेश्वर मंदिर से ‘कार्तिकेयपुर उद्घोष वाला शिलालेख प्राप्त हुआ था। दशवीं शताब्दी के लेखक राजशेखर ने भी ‘कार्तिकेयपुर’ का उल्लेख ‘चन्द्रगुप्त-धु्रवस्वामिनी और खशाधिपति’ प्रकरण में किया था। 

    ब्रह्मपुर के दोनों ही पौरव शासकों के ताम्रपत्रों में कार्तिकेयपुर से पहले ’ब्रह्मपुर’ उत्कीर्ण है। जबकि इन ताम्रपत्रों में उल्लेखित अन्य 5 गांवों के नाम से पहले ’ब्रह्मपुर’ उत्कीर्ण नहीं किया गया है। इस प्रकार इन दोनों ताम्रपत्रों में कार्तिकेयपुर गांव की पहचान को स्पष्ट करने हेतु इस विशिष्ट गांव से पहले ब्रह्मपुर को उत्कीर्ण किया गया। अर्थात मध्य हिमालय में एक से अधिक कार्तिकेयपुर थे। कार्तिकेय शिव के पुत्र थे और प्राचीन मध्य हिमालयी क्षेत्र में गांव व नगरों का नामकरण ‘शिवत्व’ के प्रभाव को दिखलाता है।


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