तेवाड़ी ब्राह्मणी
तेवाड़ी ब्राह्मणी-
भारतीय इतिहास अनेक वीर माताओं की प्रेरक सुकृत्यों को हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। प्राचीन काल से भारतीय समाज वैभवशाली शाक्त-संस्कृति के तहत वीर माताओं की स्तुति करता आया है और समय-समय पर मातृ-शक्ति समाज में अपना बहुमूल्य स्थान बनाये रखने में सफल हुई है। लगभग 4700 वर्ष प्राचीन हड़प्पा कालीन पुरातात्विक सामग्री से हमें मातृ-शक्ति पूजा के चिह्न प्राप्त होते हैं। सिंधु और उसके सहायक नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों में पल्लवित सभ्यता को सैंधव सभ्यता भी कहा जाता है। ’’सैंधव सभ्यता के कई स्थानों की खुदाई में प्राप्त बहुसंख्यक नारी मूर्तियों से ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि, उनका परिवार मातृसत्तात्मक था।’’ सैंधव सभ्यता के प्रमुख नगर मोहनजोदड़ों से एक स्त्री की मूर्ति मिली है, जिसे देवी कहा जाता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से हड़प्पा काल के पश्चात वैदिक कालखण्ड का निर्धारण किया गया है। वैदिक कालखण्ड की सर्वप्रथम रचना ऋग्वेद को लगभग 3500 वर्ष हो चुके हैं। विद्वान प्रथम वेद की रचनाकाल को 1500 ईस्वी पूर्व से 1000 ईस्वी पूर्व के मध्य निर्धारित करते हैं। इस कालखण्ड को ऋग्वैदिक काल भी कहा जाता है। इस कालखण्ड में मातृ-शक्ति का महत्व पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य तक सीमित न था। ऋग्वेद कालीन मातृ-शक्ति- ’विश्वारा’ को ’’ब्रह्मवादिनी’’ तथा ’’मन्त्रद्रष्ट्री’’ कहा गया है। घोषा, लोपामुद्रा, शाश्वती, अपाला, इन्द्राणी, सिकता, निवावरी आदि विदुषी स्त्रियों के कई नाम मिलते हैं, जो वैदिक मन्त्रों तथा स्तोत्रों की रचयिता थीं। उत्तर-वैदिक कालीन धार्मिक ग्रंथों से स्पष्ट होता है कि इस काल में स्त्रियों की स्थिति निम्न स्तर पर पहुँच गयी थी। ’’अथर्ववेद भी कन्याओं के जन्म की निन्दा करता है।’’ लेकिन तब भी इस काल में राजा की राज्य परिषदीय सदस्य के रूप में पट्टरानी और प्रिय रानी का उल्लेख प्राप्त होता है, जो समाज के उच्च वर्ग में मातृ-शक्ति के सम्मान की ओर संकेत करता है। उपनिषद् कालखण्ड में हम कई महिलाओं को दार्शनिकों की श्रेणी में आगे बढ़ा हुआ पाते हैं, जिनमें मैत्रेयी, गार्गी, अत्रेयी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
वैदिक कालखण्ड के पश्चात छठी शताब्दी का भारतीय इतिहास दो प्रबुद्ध मानवों महावीर और गौतम बुद्ध का इतिहास रहा था। इस कालखण्ड में महामाया, त्रिशरा, प्रजापति गौतमी जैसी मातृ-शक्ति ने भारतीय इतिहास में उल्लेखनीय स्थान बनाया। त्रिशरा देवी महावीर की माता थी। जबकि प्रजापति गौतमी, सिद्धार्थ की विमाता थी, जो महामानव गौतम बुद्ध की आरंभिक शिक्षिका की भूमिका में दिखलाई देती है। मौर्य काल में सुभद्रांगी ने अशोक का पालन-पोषण इस प्रकार से किया कि विश्व कल्याण के भारतीय विचार-दर्शन, सर्वदेशीय स्वरूप में आज भी शिलालेख धरोहर के रूप में सुरक्षित हैं। सातवाहन काल में शातकर्णी नामक राजा को उनकी माता गौतमी के नाम से गौतमी पुत्र शातकर्णी के रूप में ख्याति प्राप्त हुई।
गुप्त काल में कुमारदेवी ने समुद्र गुप्त की माता होने का गौरव पाया। चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती का भी भारतीय इतिहास में नाम उत्कीर्ण है। इस राजा के दरवारी रहे महाकवि कालीदास की पत्नी विद्योत्मा को कौन भूल सकता है, जिसने अपने विवाह हेतु शास्त्रार्थ स्वयंवर की प्रतिज्ञा की थी। राजपूत कालीन इतिहास की रानी कर्णावती, पन्ना धाय को कैसे भुलाया जा सकता है। मुगल काल में दुर्गावती, चाँदबीबी, नूरजहाँ आदि मातृ-शक्ति ने अपना नाम इतिहास में उत्कीर्ण करवाया। शिवाजी को महान योद्धा बनाने वाली माता जीजाबाई, मातृ-शक्ति का एक विशिष्ट उदाहरण है। ब्रिटिश काल में रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हतरत महल, पंडित रमाबाई, सरोजिनी नायडू आदि मातृ-शक्ति, भारत के आजादी के संघर्ष में प्रेरणादायक उदाहरण प्रस्तुत करने में सफल हुईं। आधुनिक भारत में इंदिरा गांधी, प्रतिभा देवी पाटिल आदि अनेक मातृ-शक्ति भारतीयों के लिए प्रेरणा स्रोत्र रहीं हैं।
उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास को देखें तो, कार्तिकेयपुर नरेशों के ताम्रपत्रों से भगवती नंदा और राजमाताओं के नाम प्राप्त होते हैं। ललितशूरदेव, कार्तिकेयपुर के महान शासक थे, जिनके द्वारा 21 वें राज्य वर्ष में निर्गत ताम्रपत्र में उनकी दादी नाथूदेवी, माता वेगदेवी तथा महारानी सामदेवी का उल्लेख किया गया है। इस ताम्रपत्रानुसार महारानी सामदेवी ने गोरुन्नसायां नामक गांव को नारायण भट्टारक को दान में दिया था।
कुमाऊँ के इतिहास को देखें तो, कत्यूरी राजा धामदेव की माता ‘जियारानी’ को देवी के रूप में पूजा जाता है। कुमाऊँ का द्वार कहे जाने वाले काठगोदाम के निकट रानीबाग नामक स्थान पर ‘चित्रशिला’ के रूप में जियारानी की पूजा-अर्चना की जाती है। हर वर्ष मकर संक्रांति की पूर्व रात्रि को यहाँ कत्यूरी वंशज उनकी स्मृति में ‘जागर’ का आयोजन करते हैं। चंद कालखण्ड में भी वीर माताओं ने समाज में अपना विशिष्ट स्थान बनाया। इस कालखण्ड का एक दुर्लभ उदाहरण, जिसका वर्णन पंडित बद्रीदत्त पाण्डे ने ’कुमाऊँ के इतिहास’ नामक पुस्तक में किया है। इस वीर माता को ’तेवाड़ी ब्राह्मणी’ और ’धर्माकर ब्राह्मण की स्त्री’ भी कहा गया। मध्य कालीन भारतीय समाज में एक महिला का जीवन कांटों की सेज जैसा था। ऐसे समय में एक ब्राह्मणी द्वारा एक राज-पुत्र को राज षड्यंत्रकारियों के हाथों से सुरक्षित रखना और उसका पालन-पोषण करना महान साहस और त्याग का कार्य था। कुमाऊँ के इतिहास में इस साहसी महिला का जीवन तथा उसके द्वारा चंद वंश के कुल-दीपक का पालन-पोषण किया जाना, मध्यकालीन युग में महिला-शक्ति के सामर्थ्य को प्रस्तुत करने वाला एक अद्वितीय उदाहरण है।
कुमाऊँ या चंद कालीन कुमाऊँ राज्य के प्रथम चंद राजा रुद्रचंद (1568-1597) थे। रुद्रचंद के ज्येष्ठ पुत्र शक्ति गुसाईं अँधे थे। इस कारण उनके कनिष्ठ पुत्र लक्ष्मीचंद सन् 1597 ई. में अल्मोड़ा के चंद राजसिंहासन पर आसित हुए। चंद ताम्रपत्रों में अल्मोड़ा को ‘राजपुर’ कहा गया है। लक्ष्मीचंद ने सन् 1597 ई. से 1621 ई. तक कुल 24 वर्ष शासन किया। इस राजा का कालखण्ड गढ़वाल से युद्ध में ही निकल गया और कहा जाता है कि गढ़वाल से सात युद्धों में पराजित होने के उपरांत इन्हें आठवें युद्ध में विजयश्री प्राप्त हुई। विद्वान इस विजयश्री को कुमाउनी त्यौहार ‘खतड़वा से भी संबद्ध करते हैं।
बागेश्वर के प्राचीन मंदिर बागनाथ का जीर्णोद्धार करने वाले धर्मात्मा राजा लक्ष्मीचंद के मृत्यूपरांत राजधानी अल्मोड़ा में राजसत्ता के लिए षडयंत्रों का खेल शुरू हो गया। इस राजा के चार पुत्र दिलिपचंद, त्रिमलचंद, नीला गुसाईं और नारायण गुसाईं थे, जिनमें से दिलिपचंद उनके उत्तराधिकारी बनने में सफल हुए। लेकिन सन् 1616 ई. में निर्गत चंद ताम्रपत्र से स्पष्ट होता है कि लक्ष्मीचंद ने अपना उत्तराधिकारी ‘त्रिमलचंद’ को स्वीकार किया था। इस ताम्रपत्र के साक्षियों में त्रिमलचंद के नाम से पूर्व ‘महाराजकुमार’ अंकित किया गया था। चंद काल में महाराजकुमार की उपाधि उत्तराधिकारी राजकुमार को प्रदान करने की परम्परा थी। लेकिन लक्ष्मीचंद के मृत्यूपरांत सन् 1621 ई. में षडयंत्र के तहत दिलिपचंद को चंद सिंहासन पर आसित करवाया गया। यह षडयंत्र त्रिमलचंद के राजसिंहान पर आसित होने तक चलता रहा।
लक्ष्मीचंद के मृत्यूपरांत राजपुर के राजषड्यंत्र में त्रिमलचंद की भूमिका संदेहास्पद थी। राजषड्यंत्रकारी पीरु गुसाईं और शकराम कार्की की सहायता से दिलिपचंद राजसत्ता प्राप्त करने में सफल हुए। दिलिपचंद क्षय रोग से ग्रस्त था। षड्यंत्रकारियों ने एक अस्वस्थ राजकुमार को चंद राज सिंहासन पर आसित कर दिया और अन्य चंद वंशजों की हत्या करने का कुकृत्य किया। चंद राज सिंहासन के योग्य राजकुमार त्रिमलचंद को गढ़वाल और नारायण गुसाईं को नेपाल में शरण लेनी पड़ी। एक अन्य राजकुमार नीला गुसाईं को अंधा बना दिया गया और कुछ समयोपरांत उसकी मृत्यु हो गई। उत्तराधिकारी राजकुमारों के अतिरिक्त उनके परिवार के सदस्यों की भी हत्या की गई, ताकि कोई चंद वंशज भविष्य में सत्ता के लिए अपने को प्रस्तुत न कर सके। इस पारिवारिक हत्याकाण्ड में नीला गुसाईं के पुत्र बालक ‘बाजा’ की प्राण रक्षा एक राज सेविका ने की थी। क्षय रोग के कारण मात्र 2 वर्ष के भीतर ही सन् 1623 ई. में दिलिपचंद की मृत्यु हो गई।
दिलीपचंद के उपरांत विजयचंद स्न 1623 ई. में चंद राजसिंहासन पर आसित हुए, जो दिलिपचंद के अल्प वयस्क पुत्र थे। षड्यंत्रकारी पीरु गुसाईं और शकराम कार्की के साथ विनायक भट्ट भी सम्मिलित हो गये। इन तीनों को त्रिमूर्ति कहा गया। इन्होंने राजा विजयचंद को अपने नियंत्रण में ले लिया। सन् 1625 ई. में षड्यंत्रकारी शकराम कार्की ने विजयचंद की रात्रि के भोजनोपरांत हत्या कर दी। कहा जाता है कि राजा उस समय भांग के मद में चूर था और शकराम कार्की ने गला दबाकर उसे मार दिया।
प्रकाशित चंद ताम्रपत्रों में शकराम कार्की का नाम सुमतु कार्की और सुर्त्ताण कार्की उत्कीर्ण किया गया है। राजषड्यंत्रों के आरंभिक कालखण्ड में चंद वंशजों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर मारा गया। इस कारण विजयचंद के पश्चात उनके चाचा त्रिमलचंद को गढ़वाल से आमंत्रित कर चंद राजसिंहासन पर आसित करवाया गया। एक अन्य दल नारायण गुसाईं को नेपाल लेने को गया। लेकिन नारायण गुसाईं के अल्मोड़ा पहुँचने से पहले त्रिमलचंद राजसिंहासन पर आसित हो चुके थे। अतः नारायण गुसाईं ने अपने प्राणों की रक्षा हेतु पुनः नेपाल में शरण ले ली।
राजषड्यंत्र के समय नीला गुसाईं के पुत्र ’बाजा’ को राज चेली (सेविका) द्वारा कपड़े में लपेट कर चौंसार (अल्मोड़ा) के धर्माकर तेवाड़ी के यहाँ पहुँचाया गया। कपड़े में लपेटने का अर्थ है कि ‘बाजा’ तीन-चार वर्ष से कम आयु का बालक रहा होगा। सन् 1621-22 ई. से बालक ’बाजा’ का बालपन राजमहल से दूर एक ब्राह्मणी (धाय मां) के गृह में व्यतीत हुआ। ऐतिहासिक वृत्तांतों में इस अनाम ब्राह्मणी का उल्लेख ‘तेवाड़ी ब्राह्मणी’ या ‘धर्माकर तेवाड़ी की पत्नी’ या ‘पण्डित नारायण तेवाड़ी की माता’ के नाम से प्राप्त होता है। इस महिला ने अपने पुत्र नारायण के साथ-साथ राजपुत्र बाजा का पालन-पोषण किया। षड्यंत्र काल में ’तेवाड़ी ब्राह्मणी’ एक महान धाय मां की भाँति बालक ’बाजा’ के जीवन को सुरक्षित रखने में सफल रही थी। राजा त्रिमलचंद के आग्रह पर उन्होंने सुरक्षा वचन लेकर ही बालक ’बाजा’ को सौंपा था। चंद राज गद्दी पर बैठने के पश्चात ’बाजा’ ने भी अपने कर्त्तव्य को समझा और तेवाड़ी ब्राह्मणी के परिवार व वंशजों को भूमि-दान किया।
राजा त्रिमलचंद के ताम्रपत्रानुसार सन् 1635 ई. तक बालक ’बाजा’ चंद राजपरिवार का हिस्सा बन चुका था और बाजचंद के नाम से चंद ताम्रपत्रां में अपना स्थान भी बना चुका था। निःसन्तान राजा त्रिमलचंद ने उसे चंद राज्य का युवराज घोषित किया। ताम्रपत्रीय आदेशों में उसे साक्षी वरीयता क्रम में प्रथम स्थान दिया गया। ऐसे साक्ष्य अभी तक प्राप्त नहीं हुए हैं कि, राजा बाजबहादुर जब कुमाऊँ राज्य के राजा हुए, तब वह कम आयु के थे या उन्होंने शासन के आरम्भिक वर्षों में किसी के संरक्षण में राज्य संचालित किया। राजषड्यंत्र के आरंभिक वर्ष सन् 1621-22 के आधार पर उनकी आयु, राजतिलक के समय 17 वर्ष से निश्चित ही अधिक थी। सन् 1638 ई. में बाजचंद, बाजबहादुरचंद के नाम से चंद राज सिंहासन पर आसित हुआ और सन् 1678 ई. तक कुमाऊँ पर राज करता रहा।
अल्मोड़ा नगर में निवास करने वाली ’तेवाड़ी ब्राह्मणी’ ने एक राजवंश के कुल दीपक का पालन-पोषण कर कुमाऊँ के इतिहास में अपना बहुमूल्य स्थान बनाया। राजषड्यंत्र काल में एक राज पुत्र का पालन-पोषण, वह भी राजधानी अल्मोड़ा की परिसीमा में करना, ’तेवाड़ी ब्राह्मणी’ का एक राजभक्त, चतुर, साहसी गुणों से सम्पन्न ’धाय मां’ होना चरित्रार्थ करता है। तात्कालिक समाज में एक महिला का जीवन कष्ट दायक था। ऐसे कठिन समय में अपने बच्चों के साथ-साथ राज परिवार के एक बालक को सुरक्षित जीवन देने का कार्य, एक महान मातृ-शक्ति ही कर सकती थी। तेवाड़ी ब्राह्मणी की समझ-बूझ व चतुरता को मानवीय पक्ष के रूप में भी देखा जाना चाहिए कि उसके द्वारा एक बालक के रूप में चंद राजवंश के महान राजा ’बाजबहादुरचंददेव’ के प्रारम्भिक जीवन को सँवारा गया।
चंद कालीन ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि ब्राह्मण समाज की जीविकोपार्जन का प्रमुख साधन भूमि-दान था। राज्य कर्मचारी के रूप में ब्राह्मण समाज जीविकोपार्जन अर्जित करता था। एक ब्राह्मणी, जिसकी चंद राज्य-सेवा में भूमिका के कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होते हैं, के लिए जीविकोपार्जन साधन के रूप में श्रम ही उपयुक्त साधन था। इस महिला के पारिश्रमिक जीवन का ऋण बालक बाजा ने कुमाऊँ का महान राजा बाजबहादुरचंददेव (1638-1678) होने के उपरांत लौटाया। इस राजा ने अपनी धाय मां के पुत्र नारायण को ज्येष्ठ-भ्राता का सम्मान दिया और उसको और उसके वंशजों को ताम्रपत्र के माध्यम से भूमि दान में दी। चंद राजवंश का इतिहास, जहाँ बाजबहादुरचंद बिना अधूरा है, वहीं बाज बहादुर का बाल्यकाल ’तेवाड़ी ब्राह्मणी’ का ऋणी था। राजषड्यंत्रों के धधकते ज्वालामुखी के मध्य एक राजवंशी बालक को सुरक्षित मातृ छाया दे पाना, मध्य कालीन एक ब्राह्मण स्त्री के लिए सर्वाधिक कठिन कार्य था। अतः कुमाऊँ के इतिहास में यह घटना अद्वितीय स्थान रखती है।
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