ललितशूरदेव और पद्मटदेव के पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों का विश्लेषण-

 ललितशूरदेव और पद्मटदेव के पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों का विश्लेषण-

चमोली जनपद के अलकनंदा घाटी में बद्रीनाथ के निकट पाण्डुकेश्वर मंदिर ऐतिहासिक दृष्टि से उत्तराखण्ड में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थल है। यह मंदिर महाभारत कालीन राजा ‘पाण्डु’ और कार्तिकेयपुर के इतिहास को संरक्षित करने में सफल रहा। इस मंदिर से कार्तिकेयपुर नरेशों के चार ताम्रपत्र हुए हैं, जो उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास के गौरवशाली कालखण्ड को अभिव्यक्त करते हैं। इनमें से दो ताम्रपत्र पिता-पुत्र के हैं। ये पिता-पुत्र पद्मटदेव और सुभिक्षराजदेव थे। इनके अतिरिक्त कार्तिकेयपुर के महान सम्राट ललितशूरदेव के दो ताम्रपत्र भी इस मंदिर से प्राप्त हुए हैं। पद्मटदेव ने ताम्रपत्रीय उद्घोष हेतु ललितशूरदेव का अनुकरण कर ‘कार्तिकेयपुर’ तथा उनके पुत्र सुभिक्षराजदेव ने अपने नाम से ‘सुभिक्षराजपुर’ राज्य उद्घोष का प्रयोग ताम्रपत्रां में किया। इतिहासकार इन्हें भी तथाकथित कत्यूरी वंश का शासक कहते हैं, जिनके प्रथम शासक बागेश्वर शिलालेख के ‘मसन्तनदेव’ को मान्य किया गया है। 

पद्मटदेव के ताम्रपत्रानुसार- सगर, दिलीप, मान्धातृ, धुन्धुमार, भगीरथ आदि सतयुगी भूपालां के समान सलोणादित्य थे। अर्थात अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं के साथ पद्मटदेव और उनके पुत्र सुभिक्षराज ने अपने पूर्वज सलोणादित्य को संबद्ध किया। स्पष्ट है कि टंकणपुर के पद्मटदेव और सुभिक्षराजदेव का राजवंश बागेश्वर शिलालेख में उत्कीर्ण भसन्तनदेव (मसन्तनदेव), खर्परदेव और निम्बरदेव से भिन्न था। पृथक राजवंशीय होते हुए भी पद्मटदेव का ताम्रपत्र, ललितशूरदेव के ताम्रपत्र की प्रतिलिपि प्रतीत होता है, जो क्रमशः विजय राज्य संवत् 21 वें और 25 वें वर्ष को निर्गत किये गये थे। इन दो ताम्रपत्रों का विश्लेषण इस प्रकार से है- 

   1-ताम्रपत्र का आरंभ-

      ललितशूरदेव के ताम्रपत्र का आरम्भिक वाक्यांश जहाँ ‘‘श्रीमत्कार्तिकेयपुरात् सकलामरदितितनुजविभु’’ है। वहीं पद्मटदेव के ताम्रपत्र का आरम्भिक वाक्यांश ‘‘श्रीमत्कार्तिकेयपुरात् समस्तसुरासुरमुकुटकोटि’’ है। उक्त दोनों वाक्यांशों में श्रीमान कार्तिकेयपुर के साथ सकल या समस्त, अमरदिदितनुजविभु (ऋषि कश्यप की पत्नी के अमर पुत्र जो महान हैं), ‘सुरासुरमुकुटकोटि’ (करोड़ों देव-दानव के राजा) आदि शब्दों का प्रयोग साहित्यिक सौन्दर्य को दर्शाने हेतु किया गया।

     उक्त दोनों शासकों ने ताम्रपत्र का आरम्भ ’स्वस्ति श्रीमत्कार्तिकेयपुरात’ से किया। पद्मटदेव द्वारा राज्य उद्घोष श्रीमत्कार्तिकेयपुरात को अपने ताम्रपत्र में प्रयुक्त करना, ललितशूरदेव के प्रभाव को दर्शाता है। लेकिन पद्मटदेव के पुत्र सुभिक्षराजदेव ने श्रीमत्कार्तिकेयपुरात के स्थान पर अपना नवीन राज्य उद्घोष ’स्वस्ति श्रीमत्सुभिक्षुपुरात’ को ताम्रपत्रों में स्थान दिया। इस ताम्रपत्रीय नरेश (सुभिक्षराजदेव) ने अपने नाम से नवीन ’राज्य-नगर’ की स्थापना कर, कार्तिकेयपुर के प्रभाव से मुक्त होने का प्रयत्न किया। इस कारण से सलोणादित्य के वंशजों की शासनावधि को विद्वान निम्बरवंश के परवर्ती कालखण्ड में निर्धारित करते हैं।

   2- शिवत्व प्रभाव-

    ललितशूरदेव के ताम्रपत्र में देवाराधना हेतु ‘‘ भगवतो धूर्ज्जटेः’’ का उल्लेख किया गया है। ’धूर्जटि’ संस्कृत पुल्लिंग शब्द है, जिसका अर्थ ’शिव’ होता है। जबकि पद्मटदेव के ताम्रपत्र में भगवतो धूर्ज्जटेः के स्थान पर ‘‘भगवतश्चन्द्रशेखरस्य’’ का उल्लेख किया गया है। ’चन्द्रशेखर’ संस्कृत का पुल्लिंग शब्द है, जिसका अर्थ ’शिव’ होता है। अतः दोनों राजवंश ‘भगवान शिव’ को समर्पित थे। लेकिन उत्तराखण्ड के पौरव नरेश (ब्रह्मपुर) ’भगवद्वीरणेश्वर’ (नागदेवता) के चरणों में समर्पित थे। इस आधार पर कह सकते हैं कि कार्तिकेयपुर नरेश मध्य हिमालय की संस्कृति या ‘शिवत्व’ के महान संरक्षक थे।

3- वंशावली -

ललितशूरदेव के ताम्रपत्र में वंश पुरुष का नाम ‘निम्बर’ उत्कीर्ण है। इस राजा के पुत्र भूदेवदेव का बागेश्वर शिलालेखांश में भी इस तथ्य की पुष्टि करता है। जबकि पद्मटदेव के कार्तिकेयपुर उद्घोष वाले ताम्रपत्र में इनके वंश पुरुष का नाम सलोणादित्य है। इस तथ्य की पुष्टि इस राजा के पुत्र सुभिक्षराज का सुभिक्षुपुर उद्घोष वाला ताम्रपत्र भी करता है। नौवीं-दशवीं शताब्दी के नरेश ललितशूरदेव और पद्मटदेव के ताम्रपत्रों में राज-वंशावली के अन्तर्गत राजा के नाम के साथ महारानी का नाम भी उत्कीर्ण करने की परम्परा थी। सातवीं शताब्दी के राजा हर्ष के मधुबन और बांसखेड़ा ताम्रपत्रों में भी राजवंश के अंतर्गत राजा-रानी का नाम एक साथ उत्कीर्ण करने की परम्परा थी। लेकिन हर्ष के पूर्ववर्ती ब्रह्मपुर राज्य (छठी शताब्दी) के पौरव ताम्रपत्रों से इस प्रकार की परम्परा का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। पौरवों की वंशावली में मात्र राजाओं के नाम उत्कीर्ण हैं।

    पद्मटदेव के ताम्रपत्र के आरम्भ में सगर, दिलीप, मांधातृ, धुन्धुमार, भगीरथ का उल्लेख किया गया है। अयोध्या के इन सूर्यवंशी राजाओं की तुलना पद्मटदेव के परदादा ’सलोणादित्य’ से की गयी है, जो ताम्रपत्रों में पद्मटदेव वंश के मूल पुरुष थे। इस ताम्रपत्रीय लेख के माध्यम से पद्मटदेव ने अपने वंश को अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं से संबद्ध करने का प्रयास किया है। परन्तु कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के ताम्रपत्र लेखांश के अंतिम भाग में उत्कीर्ण श्लोक की प्रथम पंक्ति में ’सगर’ का उल्लेख इस प्रकार से किया गया है- ‘‘बहुभिर्व्वसुधाभुक्ताराजभिःसगरादिभिः।यस्ययस्ययदाभूमिस्तस्यतस्यतदाफलं।’’ अर्थात

                बहुभिर्व्व सुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः। 

    यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदाफलं।

भावार्थ- ‘‘ यह धरती सगर से शुरू होकर अनेक राजाओं के अधीन रही है। जो भी किसी काल में धरती का स्वामी बनता है वही इसका उपभोग करता है।’’ इस श्लोक में ललितशूरदेव ने ’सगर’ का उल्लेख भूमि दान को धर्म के आधार पर संरक्षित करने हेतु उदाहरणतः प्रयुक्त किया।

 4ं- कुल देवता/देवी -

    कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के ताम्रपत्र में कुल देवी का उल्लेख इस प्रकार से है- ‘‘कृतयुगागम भूपाल ललितकीर्तिः नंदाभगवती चरणकमलकमलासनाथमूर्तिः।‘‘ जबकि पद्मटदेव के ताम्रपत्र में कुल देवी का उल्लेख इस प्रकार से किया गया है- कृतयुग भूपाल-चरितसागरस् नंदादेवी त्रैलोक्यानन्दजननी चरणकमललक्ष्मीतः।’’ अतः कार्तिकेयपुर पर राज्य करने वाले दोनों राजवंशो की आराध्य देवी या कुल देवी नंदादेवी थी, जिन्हें भगवती नंदा भी कहा जाता है। गढ़वाल-कुमाऊँ में स्थापित नंदादेवी के अनेक मंदिर कार्तिकेयपुर नरेशों को मध्य हिमालय का स्थानीय शासक होने की पुष्टि करते हैं। भगवती नंदा के अतिरिक्त उनकी युग्मज बहिन भगवती सुनंदा का मंदिर बागेश्वर जनपद के नामती-चेटबगड़ में है, जहाँ सूर्यवंशी कोश्यारी क्षत्रिय निवास करते हैं। कार्तिकेयपुर नरेशों के पूर्ववर्ती पौरव राजवंश के कुल देवता वीरणेश्वर थे, जिनका उल्लेख तालेश्वर ताम्रपत्रों में एक नाग देवता के रूप में किया गया है। कुमाऊँ-गढ़वाल के सैकड़ों नाग मंदिर पौरव राज्य की पुष्टि करते हैं।

 5- विषय-

    गुप्त काल में जनपद को विषय कहा जाता था और प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत इसके अधिकारी को विषयपति कहा जाता था। कार्तिकेयपुर ताम्रपत्रों में विषयपति नामक पदाधिकारी का उल्लेख प्राप्त होता है। कन्नौज सम्राट हर्ष और उत्तराखण्ड के कार्तिकेयपुर उद्घोष वाले ताम्रपत्रों से विषय का उल्लेख प्राप्त होता है। निम्बर वंशज ललितशूरदेव का ताम्रपत्र ‘कार्तिकेयपुर’ और पद्मटदेव का ताम्रपत्र ‘टंकणपुर’ विषय से निर्गत किया गया था। जबकि पद्मटदेव के पुत्र सुभिक्षराजदेव का ताम्रपत्र ‘टंकणपुर’ और ‘अन्तरांग’ विषय से निर्गत किया गया था। इतिहासकार कार्तिकेयपुर विषय की पहचान वर्तमान बैजनाथ (बागेश्वर) से करते हैं। लेकिन बागेश्वर शिलालेख में इस क्षेत्र हेतु ’जयकुल’ भुक्ति का उल्लेख किया गया है। इस शिलालेख से स्पष्ट होता है कि वर्तमान बागेश्वर प्राचीन कालखण्ड में जयकुल भुक्ति (राज्य/प्रांत) में था। डॉ. शिवप्रसाद डबराल जयकुल भुक्ति के संबंध में लिखते हैं- ‘‘जयकुलभुक्ति- ब्याघ्रेश्वर (बागेश्वर) के पड़ोस की पट्टी।’’ जयकुल भुक्ति को एक पट्टी के रूप में वर्णित करना उचित नहीं है। गुप्त काल में भुक्ति को प्रांत कहा जाता था और इसके शासक को ‘उपरिक’ कहा जाता था।

 6- विशेष राज्य-पदाधिकारी-

    कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव और पद्मटदेव के ताम्रपत्रों से विशेष राज्य-पदाधिकारियों का उल्लेख प्राप्त होता है, जिनमें वर्त्मपाल, कौट्टपाल, घट्टपाल और क्षेत्रपाल नामक अधिकारी पूर्णतः पर्वतीय राज्य के स्थानीय पदाधिकारी थे। ब्रह्मपुर के पौरव, राजा हर्ष के मधुबन और बांसखेड़ा तथा बंगाल के पाल शासकों के ताम्रपत्रों से कार्तिकेयपुर के उक्त स्थानीय पदाधिकारियों का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। इसी प्रकार महामनुष्य, ठक्कुर, पट्टाकोपचारिक, शेषभंगाधिकृत और बलव्यापृतक आदि भी कार्तिकेयपुर के विशिष्ट राज्य-पदाधिकारी थे, जिनका उल्लेख समकालीन अन्य राजवंशों के ताम्रपत्रों से प्राप्त नहीं होता है।

    ठक्कुर और महामनुष्य का वरीयता क्रम ललितशूरदेव की राज्य सभा में क्रमशः चौथा और पांचवां था, तो पद्मटदेव की राज्य सभा में क्रमशः 39 वां और 40 वां था। राज्य पदाधिकारियों का वरीयता क्रम उक्त दोनों शासकां के काल में भिन्न-भिन्न था। इन दो विशिष्ट राज्य-पदाधिकारियों के वरीयता क्रम के आधार पर ललितशूरदेव को पद्मटदेव का पूर्ववर्ती शासक कह सकते हैं।

     ललितशूरदेव के ताम्रपत्रों में सामन्त और महासामन्त का उल्लेख किया गया है। जबकि पद्मटदेव और उनके पुत्र सुभिक्षराजदेव के ताम्रपत्र में सामन्त, महासामन्त के साथ महासामन्ताधिपति का भी उल्लेख किया गया है। विद्वान भारत में सामन्तीय व्यवस्था के श्रीगणेश को छठी शताब्दी के आस पास निर्धारित करते है। हर्षचरित में छः प्रकार के सामन्तों का उल्लेख मिलता है- सामन्त, महासामन्त, आप्त सामन्त, प्रधान सामन्त, शत्रुमहासामन्त तथा प्रति सामन्त। हर्षचरित और राजा हर्ष के ताम्रपत्रों में भी महासामन्ताधिपति का उल्लेख नहीं होने से स्पष्ट है कि इस पद की पदावस्थापना हर्षोत्तर काल में हुई। ‘‘बारहवीं शताब्दी की रचना ‘अपराजितपृच्छा’ में ग्रामाधिकार के आधार पर सामन्तों की निम्नलिखित श्रेणियां बताई गयीं हैं-

1- महामण्डलेश्वर (एक लाख ग्राम)

2- माण्डलिक (पचास हजार ग्राम)

3- महासामन्त (बीस हजार ग्राम)

4- सामन्त (दस हजार ग्राम)

5- लघु सामन्त (पांच हजार ग्राम)

6- चतुरांशका (एक हजार ग्राम)’’

     बारहवीं शताब्दी की रचना ’अपराजिपृच्छा’ में वर्णित सामन्तों की श्रेणी और नौवीं शताब्दी के पाल अभिलेखों से भी ’महासामन्ताधिपति’ नामक राज्य पद का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। अतः यह राज्यपद मध्य हिमालय क्षेत्र में ही प्रचलन में था। महासामन्ताधिपति शब्द में अधिपति संस्कृत पुल्लिंग शब्द है, जिसका अर्थ- राजा, शासक, मालिक, स्वामी आदि होता है। अतः महासामन्ताधिपति का अर्थ- महासामन्त का स्वामी। लेकिन पद्मटदेव के ताम्रपत्र में महासामन्ताधिपति का वरीयता क्रम सामन्त, महासामन्त के उपरांत इस प्रकार से किया गया है- ‘‘राजामात्य, सामन्त, महासामन्त, महाकर्त्ताकृतिक, महादण्डनायक, महाप्रतिहार, महासामन्ताधिपति..............। अर्थात सामन्त से कनिष्ठ महासामन्त और महासामन्त से कनिष्ठ महासामन्ताधिपति नामक पदाधिकारी था। जबकि हर्ष के राज्य पदाधिकारियां की वरीयता क्रमांक में प्रथम स्थान महासामन्त का था।   

7- वनो में निवास करने वाली जातियां-

ललितशूरदेव का राज्य-संवत् 21 वें वर्ष में निर्गत ताम्रपत्र कई पुस्तकों में प्रकाशित हो चुका है। इस ताम्रपत्र की चौदहवीं पंक्ति के अंतिम चार शब्द और पन्द्रहवीं पंक्ति का आरंभिक वाक्यांश इस प्रकार से है- ‘‘वणिक्श्रेष्ठिपुरोगास्त्ष्टादशप्रकृ-त्यधिष्ठानीयान्खषकिरातद्रविड़कलिंगशौरहूणोण्ड्ड्रमेदान्ध्रचाण्डालपर्यान्तान्।’’ इस वाक्यांश में आये अष्टादशप्रकृत्यधिष्ठानीयान् का अर्थ है- 18 प्रकृति/वनों में निवास करने वाले। प्राचीन भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में निवासरत् खष, किरात, द्रविड़, कलिंग, शौर, हूण, उण्ड्ड्र, मेद, आन्ध्र और चाण्डाल का उल्लेख उक्त वाक्यांश में किया गया है।

पद्मटदेव के राज्य संवत् 25 वें वर्ष को निर्गत ताम्रपत्र में ललितशूरदेव की भाँति प्रकृति या वनों में निवास करने वाली जातियों- खष, किरात, द्रविड़, कलिंग, शौर, हूण, उण्ड्ड्र, मेद और चाण्डाल का उल्लेख किया गया है। ‘‘लेकिन आन्ध्रों का नाम शामिल नहीं है।’’ हर्ष के ताम्रपत्रों से वनों में निवासरत् जातियों का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। परन्तु बंगाल के पाल शासक देवपाल के अभिलेखों से भी गौड़, मालव, खष, हूण, कलिंग, कर्णाट, आन्ध्र और चाण्डालों का उल्लेख प्राप्त होता है। लेकिन देवपाल के अभिलेख से ‘किरात’ का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, जिन्हें उत्तराखण्ड का आरंभिक निवासी माना जाता है। वर्तमान में उत्तराखण्ड की एक जनजाति ‘वनराजी’ या ‘वनरौत’ को किरातों का वंशज माना जाता है।

कार्तिकेयपुर उद्घोष वाले ललितशूरदेव और पद्मटदेव के ताम्रपत्र लेखन शैली, राज्य-पदाधिकारियों और वनों में निवासरत् जातियों की दृष्टि से एक-दूसरे की प्रतिलिपि हैं। पृथक-पृथक राजवंश से संबंधित इन शासकों के ताम्रपत्र टंकणकर्ता के नाम भी सुमेलित होते हैं। ललितशूरदेव के टंकणकर्ता गंगभद्रेण थे, तो पद्मटदेव के नन्दभद्रेण थे। 


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