राजा बालो कल्याणचंददेव का शासन काल और राज्य पद

 राजा बालो कल्याणचंददेव का शासन काल और राज्य पद

प्राचीन काल से एक राजा के लिए राज्य पदाधिकारियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी। योग्य पदाधिकारियों की सहायता से ही राजा जनकल्याण के कार्य करते थे। राजा बालो कल्याणचंददेव का शासन काल और राज्य पद भी चंद राज्य के उत्थान का एक महत्वपूर्ण कारक था। सोहलवीं शताब्दी में इस राजा का शासन काल चंद वंश के स्वर्ण काल का आरंभिक चरण था। इस महान राजा ने सन् 1545 ई. से 1568 ई. तक शासन किया। इस राजा ने राज्य की राजधानी चम्पावत से सन् 1563 ई. में अल्मोड़ा स्थानान्तरित की, जो चंद वंश के पतन (सन् 1790 ई.) तक बनी रही। इस नवीन राजधानी नगर को चंद ताम्रपत्रों में ‘राजपुर’ भी कहा गया। सन् 1545 ई. से 1563 ई. तक बालो कल्याणचंद की राजधानी चम्पावत में थी। यह कालखण्ड राजा बालो कल्याणचंद के शासन काल के लिए अस्थिरता और उपलब्धियां का युग था। इस अवधि में पिता भीष्मचंद की हत्या का प्रतिशोध लेना, डोटी के मल्ल राजवंश से वैवाहिक संबंध स्थापित करना, गंगोली पर अधिकार करना और अल्मोड़ा को राजधानी बनाने में बालो कल्याणचंददेव सफल रहे थे। 

 👉बालो कल्याणचंद का आरंभिक शासन काल-

        बालो कल्याणचंददेव द्वारा निर्गत भेटा ताम्रपत्र (शाके 1467) में उनकी उपाधि महाराजाधिराज उत्कीर्ण है। अर्थात बालो कल्याणचंददेव 31 मई, सन् 1545 ई. को महाराजाधिराज की उपाधि के साथ चंद राजसिंहासन पर आसित हो चुके थे। इस ताम्रपत्रानुसार- ’‘महाराजाधिराज स्री कल्यानचंद्र देव ले संकल्पपूर्वक जीर्णो धार करि राजा भीष्मचंद की दिनी।’’ इस ताम्रपत्र में भीष्मचंद का उल्लेख और कल्याणचंददेव की महाराजाधिराज की उपाधि से स्पष्ट होता है कि सन् 1545 ई. में भीष्मचंद की मृत्यु हो चुकी थी। 

👉पिता भीष्मचंद की हत्या- 

        इस संबंध में एक रोचक ऐतिहासिक घटना का उल्लेख पंडित बद्रीदत्त पाण्डे इस प्रकार से करते है-

        ’’गागर के पास रामगाड़ में श्रीगजुवाठिंगा नाम का एक खस जाति का सरदार था, जो अर्द्ध-स्वतंत्र नृपति अपने को कहता था। वह राजा कीर्तिचंद की चढ़ाई के समय दबाये जाने से बच गया था। उसने बहुत-सी सेना एकत्र कर खगमराकोट (अल्मोड़ा) पर चढ़ाई की और जब राजा भीष्मचंद किले में सो रहे थे, खस राजा श्रीगजुवाठिंगा ने रात को चुपके से वहां जाकर बूढ़े चंद राजा का सिर काट डाला, और उनके बहुत से सोते साथियों को भी मार डाला और उसने अपने को बारामंडल का राजा भी बना लिया, पर उसका स्वतंत्रता का स्वप्न बहुत दिनों तक स्थिर न रहा। ज्यों ही यह खबर काली-कुमाऊँ में पहुँची, बालो कल्याणचंद ने डोटियालों के साथ तो सुलह कर दी और अपने पिता की मृत्यु का जोरदार बदला लिया। सबको कत्ल किया। गजुवाठिंगा भी मारे गये। यह घटना 1560 में हुई।’’

चंद काल में पर्वतीय भूभाग पर अधिकांश सैन्य अभियान ग्रीष्म ऋतु में चलाये जाते थे। 31 मई, सन् 1545 को  भेटा ताम्रपत्र निर्गत किया गया था। अतः मई,1545 ई.में राजा भीष्म चंद की हत्या हो चुकी थी। रामगढ़, नैनीताल जनपद के गागर पर्वत के आस पास का क्षेत्र है, जहाँ से अल्मोड़ा लगभग 50 किलोमीटर के दूरी पर है। कीर्तिचंद चंद सन् 1505 ई. तक चंद शासक थे, जिन्होंने राज्य विस्तार हेतु पश्चिमी कत्यूरी राज्यों पर सैन्य अभियान चलाया था। ‘‘कीर्तिचंद के समय में कत्यूर, दानुपर, अस्कोट, सीरा, सोर को छोड़कर सारा कुमाऊँ उनके हाथ आ गया था।’’ ‘खगमराकोट’ अल्मोड़ा में स्थित पश्चिमी कत्यूरियों का एक दुर्ग था, जो भीष्मचंद की विजय और हत्या का साक्षी रहा था। चंद शासन काल में समय-समय खस राजाओं ने विद्रोह किया और उनमें से गजुवाठिंगा भी एक थे। अल्मोड़ा के आस पास के क्षेत्र को बारामण्डल तथा चम्पावत क्षेत्र को काली-कुमाऊँ कहा जाता था। भीष्मचंद के उत्तराधिकारी बालो कल्याणचंद ने मध्य हिमालय में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने हेतु परम्परागत प्रतिद्वंद्वी डोटी-मल्ल राज्य (डोटीयाल राज्य) से समझौता किया। डोटियालों की सहायता से सन् 1560 ई. में कल्याणचंद ने गजुवाठिंगा को पराजित कर अल्मोड़ा पर अधिकार कर लिया था। 

👉पैत्रिक राज्य और चुनौतियां-

बालो कल्याणचंददेव ने 31 मई, सन् 1545 ई. में दशहरा पर्व पर भेटा ताम्रपत्र नरि पाण्डे नामक ब्राह्मण को निर्गत किया था और महाराजाधिराज उपाधि धारण की थी। यह ताम्रपत्र सोर पर चंद राज्य के अधिकार की पुष्टि करता है। शासन के आरंभिक चरण में इस चंद राजा को जो पैत्रिक राज्य प्राप्त हुआ, उसमें सोर के अतिरिक्त काली-कुमाऊँ से बारामण्डल की सीमावर्ती तक का भू-भाग सम्मिलित था। इस राजा के सामने सोर के उत्तर में डोटियाल और पश्चिम में खस राजा गजुवाठिंगा की चुनौती थी। इन दोनों मोर्चे में इतना अंतर अवश्य था कि डोटियाल निरन्तर चंद राज्य पर आक्रमण कर रहे थे, तो वहीं बालो कल्याणचंद को अपने पिता का प्रतिशोध लेने हेतु अल्मोड़ा पर आक्रमण करना था। अतः इस चंद राजा को सर्वप्रथम डोटियालों के आक्रमण से अपने राज्य को सुरक्षित करना था। इस समस्या का समाधान हेतु बालो कल्याणचंददेव ने डोटियालों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किया। पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘राजा बालो कल्याणचंद की रानी डोटी के रैका राजा की पुत्री थी और वहां के रैका राजा हरिमल्ल की बहिन थी।’’ 

        डोटियालों से अपने राज्य को सुरक्षित करने के पश्चात बालो कल्याणचंददेव ने पश्चिमी सैन्य अभियान चलाया। सर्वप्रथम गजुवाठिंगा से पिता की हत्या का प्रतिशोध लिया और अल्मोड़ा पुनः चंदों के अधिकार में आ गया। इसके पश्चात इस प्रतापी राजा ने गंगोली राज्य को चंद राज्य में सम्मिलित कर लिया। इस शासनावधि में उसके शासन की प्रमुख विशेषता थी- पुराने राज्य पदाधिकारियों को महत्व देना और नवीन राज्य पदों की स्थापना करना था।

👉राज्य पदों का पुनर्स्थापन-

चंद राजाओं के प्रकाशित ताम्रपत्रों से अनेक राज्य पदों का उल्लेख प्राप्त होता है, जिनमें विशिष्ट, आठ बूढ़ा, चार बूढ़ा आदि आरंभिक राज्य पद थे। चंद राजा भारतीचंद ने अपने शासन काल में राज्य पदों के स्थान पर व्यक्तिगत साक्षियों को अपने ताम्रपत्रों में स्थान दिया। इस राजा का अनुशरण करते हुए बालो कल्याणचंददेव ने अपने शासन काल के आरंभ में निर्गत भेटा (पिथौरागढ़) ताम्रपत्र (1545 ई.) में भी राज्य पदों के स्थान पर व्यक्तिगत साक्षियों का उल्लेख किया। जबकि इस राजा के गौंछ (पिथौरागढ़) ताम्रपत्र जो 12 नवम्बर, 1556 ई. को निर्गत किया गया था, जिसमें विशिष्ट राज्य पदों- चार बूढ़ा, छः गौरा का उल्लेख किया गया है, जो इस ओर संकेत करता है कि क्षेत्रीय क्षत्रपों की चंद राज्य को नितांत आवश्यकता थी। ‘‘चार बूढ़ा- चार प्रतिष्ठित वरिष्ठ मुखिया; कार्की, बोरा, चौधरी, तड़ागी (चम्पावत)। छइ गौरा- सोर के छः क्षत्रिय कुल- महर, सौन, वल्दिया, सेठी, खड़ायत, रावल।’’ इन क्षेत्रीय क्षत्रपों की सहायता से यथाशीघ्र ही बालो कल्याणचंद ने अपने राज्य का विस्तार अल्मोड़ा तक करने में सफल रहे थे। 

👉गंगोली पर अधिकार और पंत ब्राहमणों का चंदों की सेवा में आना-

सन् 1560 ई. का जाखपंत ताम्रपत्र कुमाऊँ में चंद राज्य विस्तार की ओर संकेत करता है। यह ताम्रपत्र 14 अप्रैल, 1560 को रामनवमी पर्व पर अपराह्न 2.37 बजे  के उपरांत निर्गत किया गया था। यह ताम्रपत्र बालो कल्याणचंददेव द्वारा भूमि दान हेतु मनीपंत को पिथौरागढ़ के निकटवर्ती जाख गांव को दिया। यह ताम्रपत्र गंगोली पर चंद राज्य के अधिकार की पुष्टि करता है। प्रकाशित सैकड़ों चंद ताम्रपत्रों में यह ताम्रपत्र पहला है, जो चंद राजाओं द्वारा किसी पंत ब्राह्मण को निर्गत किया गया। पंतों का मूल निवास कुमाऊँ में गंगोली मान्य है। ऐतिहासिक मतानुसार चौदहवीं शताब्दी में पंतों के मूल पुरुष कोंकण (महाराष्ट्र) से गंगोली आये थे। गंगोली (मणकोटी राज्य) में उप्रेतियों की बगावत से दीवान, पौराणिक, वैद्य व राजगुरु के राज्य पद पंतों को प्राप्त हुए थे। मणकोटी राजाओं ने गंगोली में लगभग 200 वर्ष शासन किया। इस अवधि में आठ राजाओं ने गंगोली पर शासन किया।

        कालान्तर में अंतिम मणकोटी राजा नारायणचंद के कुशासन से दुःखी होकर पंतों ने चंद राजा बालो कल्याणचंद को गंगोली विजित करने हेतु प्रत्यक्ष सहायता प्रदान की। इस चंद राजा ने भी उन्हें पुरस्कृत करते हुए सोर के जाख गांव में भूमि दान दिया। इस ताम्रपत्र में उल्लेखित जाख गांव को अब जाखपंत नाम से जाना जाता है, जो वर्तमान पिथौरागढ़ नगर का निकटवर्ती गांव है। सन् 1560 ई. का वर्ष चंद राज्य विस्तार हेतु सबसे महत्वपूर्ण वर्ष था, जब अल्मोड़ा और गंगोली पर बालो कल्याणचंददेव अधिकार करने में सफल हुए थे।

जाखपंत ताम्रपत्र की चौथी पंक्ति- ‘‘दीनी जाख कनारी सुद्धा मनी पन्त संगज्यालले पाइ’’ में संगज्याल शब्द चंद राजा और मनीपंत के आपसी संबंधों पर प्रकाश डालता है। जबकि डॉ. रामसिंह लिखते हैं- ‘‘संगज्याल का अभिप्राय स्पष्ट नहीं है।’’ गंगोली की कुमाउनी में आज भी मित्र हेतु संगज्यू नामक शब्द प्रयुक्त किया जाता है। संस्कृत शब्द ‘संग’ (मिलन या अनुराग) और ज्यू (सम्मान हेतु प्रयुक्त शब्द) के सुमेल से संगज्यू और संगज्यू से ही संगज्याल शब्द की व्युत्पत्ति हुई। अतः गंगोली के पंत ब्राह्मण मनीपंत से बालो कल्याणचंद ने मित्रवत् संबंध स्थापित करने के साथ-साथ भूमि दान देकर सम्मानित किया। इस मित्रता की नींव मणकोटी राज्य की दीवारें ढहने पर रखीं गयीं थीं। अतः जाखपंत ताम्रपत्र गंगोली पर चंद राज्य के अधिकार की पुष्टि के साथ चंद-पंत गठजोड़ का प्रथम ऐतिहासिक प्रमाण पत्र है।

🎯नवीन राज्य पदों की स्थापना-

सीरा (डीडीहाट), पूर्वी रामगंगा के पूर्व दिशा में स्थित गंगोली का सीमावर्ती राज्य था। चंद राज्य को डोटी-मल्ल राज्य से सुरक्षित रखने और राज्य विस्तार हेतु गंगोली पर विजय पाना आवश्यक था। चंद राजसत्ता को सशक्त बनाने हेतु ’चार बूढ़ा’ और ’छइ गौर्या’ नामक विशिष्ट राज्य पद को बालो कल्याणचंददेव द्वारा भेटा ताम्रपत्र (शाके 1478) में पुनर्जीवित किये गये और इनके साथ नवीन राज्य पद ’विसुंगा’ और ’गंगोलो’ को भी सृजित किया गया। इस द्वारा इन नवीन पदां की स्थापना का उद्देश्य क्षेत्रीय क्षत्रपों को संतुष्ट कर चंद राज्य का विस्तार करना था।

कल्याणचंददेव के ताम्रपत्र (शाके 1482) की एक पंक्ति- ’’चारै बूढा छइ गौर्या गंगालो विसुंगा सक्तू कूंर निदा।’’

’चार बूढ़ा’ तथा ’छः गौर्या’ के साथ ’गंगालो’, ’विसुंगा’ नामक राज्य पदों का सृजन कल्याणचंददेव ने राज्य विस्तार के साथ किया। गंगालो और विसुंगा के सन्दर्भ में डॉ. रामसिंह लिखते हैं- ’’गंगालो- गंगोल पट्टी वाले मौनी क्षत्रिय (सम्भवतः)।’’ इस ताम्रपत्र की सातवीं पंक्ति में उल्लेखित ’गंगालो’/गंगोल का परवर्ती लिखा गया शब्द ’बिसुंगा’ भी ब्रिटिश कालीन कुमाऊँ की एक पट्टी थी। ‘‘बिसुंगा- बिसुं की पांच प्रमुख जातियां के मुखिया; मारा, फरत्याल, ढेक, कराइत, देव।’’ ’गंगालो’ को गंगोल पट्टी या गंगोली राज्य, दोनो से संबद्ध कर सकते हैं। चंद राजा बालो कल्याणचंददेव ने अंतिम मणकोटी राजा नारायणचंद को पराजित कर गंगोली पर अधिकार कर लिया था। संभवतः उसके द्वारा गंगोली में नियुक्त पदाधिकारी ही ’गंगोलो’ था।

प्रकाशित चंद ताम्रपत्रों से स्पष्ट होता है कि चंद राज्य विस्तार के साथ विशिष्ट पदाधिकारियों को पदास्थापित करने की एक परम्परा बन चुकी थी। उदाहरणतः बालो कल्याणचंददेव के पश्चात सन् 1568 ई. में रुद्रचंद गद्दी पर बैठे और उनके ’’पाली बूढ़ाकेदार ताम्रपत्र’’ (शाके 1490/सन् 1568 ई.) में विशिष्ट राज्य पद ’चार बूढ़ा’ के साथ ’बारह अधिकारी’ और ’गंगोलो’ का भी उल्लेख है। ‘बारह अधिकारी’ राज्य पद का उल्लेख करने वाला यह पहला चंद ताम्रपत्र है। ‘बारह अधिकारी’ के साथ-साथ ’गंगोलो’ राज्य पद को एक बार पुनः बूढ़ाकेदार ताम्रपत्र में स्थान देना, इस विशिष्ट राज्य पद को महत्वपूर्ण बनाता है। अतः बालो कल्याणचंददेव और रुद्रचंददेव के ताम्रपत्रों में उल्लेखित एक विशिष्ट राज्य पद ’गंगालो’, गंगोली हेतु प्रयुक्त राज्य पद था। 

        बालो कल्याणचंददेव ने सन् 1560 ई. में गंगोली पर अधिकार कर वहां का शासन गंगालो नामक अधिकारी को सौंप दिया। चार बूड़ा में चम्पावत के क्षेत्रीय क्षत्रप सम्मिलित थे, तो, गंगालो नामक विशिष्ट राज्य पद में गंगोली के भी प्रभावशाली पंत, उप्रेती, पाठक, जोशी, उपाध्याय, भट्ट, काण्डपाल, महरा, बोरा, रावत, कार्की, बाफिला, धपोला, कोश्यारी, बनकोटी, रौतेला, नगरकोटी, राठौर, दशौनी, माजिला, भौंर्याल, गढ़िया, भण्डारी, मेहता आदि में से कुछ क्षत्रप अवश्य सम्मिलित रहे होंगे।


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