बालो कल्याणचंददेव का गंगोली पर अधिकार

 बालो कल्याणचंददेव का गंगोली पर अधिकार

बालो कल्याणचंददेव का गंगोली पर अधिकार चंद राज्य के लिए महान उपलब्धि थी। इस राज्य पर अधिकार के साथ चंद शासकों के लिए सम्पूर्ण कुमाऊँ पर अधिकार करने का मार्ग प्रशस्त हो गया। कुमाऊँ में चंद राज्य का विस्तार धीरे-धीरे सैकड़ों वर्षों की राजपथ यात्रा में हुआ। चंद राज्य की आरंभिक राजधानी चम्पावत में थी, जिसके ठीक उत्तर में स्थित गंगोली राज्य पर अधिकार का प्रयास बालो कल्याणचंददेव के पूर्ववर्ती चंद राजाओं ने अवश्य किया होगा। लेकिन बालो कल्याणचंददेव (1545-1568) ही गंगोली पर अधिकार करने में सफल हुए। आरंभिक चंद राज्य के सीमावर्ती दो प्राचीन राज्यों गंगोली और सोर (वर्तमान पिथौरागढ़ नगर) के मध्य में सरयू सीमावर्ती नदी थी। इस नदी की सहायक नदी पूर्वी रामगंगा गंगोली और सोर राज्य की सीमावर्ती नदी थी। भौगोलिक दृष्टि से सरयू और पूर्वी रामगंगा का अंतस्थ भू-भाग ही प्राचीन गंगोली राज्य था। इस प्राचीन राज्य के दक्षिण-पूर्वी भाग पर ही सरयू और पूर्वी रामगंगा नदी का पवित्र प्रयाग है, जिसे रामेश्वर तीर्थ कहा जाता है। 

समकालीन राजनीतिक भूगोल-

        बालो कल्याणचंददेव का गंगोली पर अधिकार चंद राज्य विस्तार का सबसे महत्वपूर्ण सोपान था। इस राज्य विस्तार को समझने हेतु गंगोली के राजनीतिक भूगोल को समझना आवश्यक है। सरयू-पूर्वी रामगंगा अंतस्थ भू-भाग तेरहवीं शताब्दी में एक स्वतंत्र राज्य के रूप में अस्तित्व में आया, जहाँ क्रमशः उत्तर कत्यूरी और मणकोटी राजवंश पल्लवित हुए थे। सोलहवीं शताब्दी में इस राज्य पर मणकोटी राजवंश का अधिकार था, जो डोटी राज्य के करद थे। इस शताब्दी में गंगोली के पूर्व में सीरा और सोर तथा दक्षिण में चंद राज्य था। पश्चिमी भाग में कत्यूरी राज्य था। सीरा का दुर्भेद्य दुर्ग सीराकोट डोटी राज्य की पश्चिमी राजधानी थी। अतः गंगोली तीन शक्तिशाली राज्यों से घिरा था। जबकि उत्तर के हिम शिखर इस राज्य के लिए प्राकृतिक प्रहरी का कार्य करते थे। इन्हीं कारणों से इस नदी अंतस्थ राज्य पर वाह्य आक्रमण कुछ विशेष स्थानों/नदी घाटियों से ही संभव था।

 चंद राज्य का विस्तार-

        चंद राज्य की राजधानी चम्पावत के उत्तरी सीमावर्ती सोर राज्य पर गरुड़ ज्ञानचंद (1389-1422) ने अधिकार कर लिया था, जिसकी पुष्टि शाके 1422 का सेलौनी ताम्रपत्र भी करता है। यह ताम्रपत्र 6 अक्टूबर, सन् 1422 को निर्गत किया गया था। यह ताम्रपत्र चंद राजा गरुड़ ज्ञानचंद और सोर के बम शासक विजयब्रह्म का संयुक्त दाननामा है। संभवतः सोर राज्य, गरुड़ ज्ञानचंद के शासन काल में चंद राज्य का करद राज्य बन चुका था। वहीं उत्तरी सीमावर्ती दूसरे राज्य गंगोली के मणकोटी शासक डोटी राज्य के करद थे, जहाँ नेपाल के चंद वंशवीय मणकोटी शासकों ने लगभग 200 वर्ष राज्य किया। सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में चंद राजा कीर्तिचंद राज्य का विस्तार करते हुए अल्मोड़ा तक पहुँच गये थे और पश्चिमी कत्यूरी राज्य पर अधिकार करने में सफल रहे थे। लेकिन वह गंगोली को विजित न कर पाये। चंदों की असफता के दो कारण थे- पहला गंगोली राज्य को डोटी मल्ल राजाओं की सहायता और दूसरा गंगोली के सीमाआें को सुरक्षित करतीं नदियां। अल्मोड़ा में स्थापित होने के पश्चात ही चंद राजा बालो कल्याणचंद गंगोली पर अधिकार करने में सफल हुए थे। जबकि सोर राज्य पर चंद, अल्मोड़ा में स्थापित होने से पूर्व ही अधिकार कर चुक थे। बालो कल्याणचंद के भेटा व गौंछ ताम्रपत्र इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। वहीं सोर के उत्तर में स्थित सीराकोट से संचालित मल्ल राज्य चंद शासकों के लिए एक चुनौती बना हुआ था।

 डोटी राज्य की चुनौती-

        कत्यूरी राज्य के पतनोपरांत प्राचीन भोट-व्यापार मार्ग थल-बागेश्वर पर डोटी के मल्ल शासकों का अधिकार हो गया था। मल्ल शासकों ने अपने राज्य को स्थायित्व प्रदान करने हेतु स्थानीय क्षत्रियों के मध्य ‘जयदेव’ प्रथा का प्रचलन किया। जयदेव प्रथा के अंतर्गत सरयू-काली नदी अंतस्थ क्षेत्र के क्षत्रियों जैसे देउपा, चुफाल, बसेड़ा, रौतेला, रावत, राणा, कोश्यारी, शाही और बथ्याल आदि में पैलागन/प्रणाम के स्थान पर जयदेव (जैद्यो) कहने की परम्परा अस्तित्व में आयी। जयदेव कहने के अधिकारी अधिकांश क्षत्रियों के गांव प्राचीन भोट व्यापारिक मार्ग पर पड़ते थे। इन्हीं क्षत्रियों की सहायता से डोटी के मल्ल शासक सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक कुमाऊँ में अपनी राजसत्ता को बनाये रखने में सफल रहे थे। डोटी मल्ल शासकों की वंशावली कई पुस्तकों में प्रकाशित हो चुकी है, जिसके अनुसार शालिवाहन, आसन्तिदेव, बासन्तिदेव, कटारमल जैसे राजा इनके वंश के महान राजा थे। सन् 1279 ई. में कत्यूरी राज्य विभाजन के परिणाम स्वरूप डोटी का मल्लवंश अस्तित्व में आया था।

चंद राजा भीष्मचंद का अल्मोड़ा पर अधिकार-

        सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक में कुमाऊँ के पश्चिमी कत्यूरी शक्तिहीन होते गये थे और उनका स्थान चंपावत के चंदों ने ले लिया था। चंद राजा कीर्तिचंद ने सर्वप्रथम पश्चिमी कत्यूरियों के शासित क्षेत्रों बारामण्डल (अल्मोड़ा के आस पास का क्षेत्र), फल्दाकोट (रानीखेत के आस पास का क्षेत्र) और धनियाकोट (नैनीताल जनपद का कोसी घाटी में स्थित गांव), पाली क्षेत्र (पश्चिमी रामगंगा नदी घाटी क्षेत्र) पर अधिकार कर लिया था। इस राजा की मृत्यु (सन् 1505 ई.) के उपरांत इनके पुत्र प्रतापचंद राजा हुए, जिनका सन् 1510 ई. का ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है। सन् 1517 में इस राजा की मृत्यु हो गयी, जिसके उपरांत क्रमशः ताराचंद, मानिकचंद, कल्याणचंद, पूर्णचंद और भीष्मचंद राजा हुए।

         भेटा, पिथौरागढ़ से प्राप्त शाके 1467 या सन् 1545 ई. के ताम्रपत्र में महाराजाधिराज उपाधि धारण किये हुए कल्याणचंद के साथ भीष्मचंद का उल्लेख किया गया। अर्थात सन् 1545 ई. में भीष्मचंद की मृत्यु हो चुकी थी। सन् 1517 ई. से 1545 ई. मध्य कुल 28 वर्षों में भीष्मचंद सहित पांच राजाओं ने शासन किया, जो इन वर्षों में चंद राज्य की अस्थिरता को प्रमाणित करता है। इस अस्थिरता का लाभ पश्चिमी कत्यूरियों ने उठाया और स्वतंत्र हो गये। अतः भीष्मचंद ने पश्चिमी कत्यूरियों के विरुद्ध सफल सैन्य अभियान चलाया। इस चंद राजा ने अल्मोड़ा पर लगभग सन् 1545 ई. में अधिकार कर लिया था। लेकिन शीघ्र ही इसकी हत्या अल्मोड़ा में रात्रि विश्राम के दौरान रामगढ़ (नैनीताल जनपद का एक विकासखण्ड) के खस राजा गजुवाठिंगा ने कर दी थी। 

        भीष्मचंद निःसन्तान थे, इसलिए इन्होंने ताराचंद के पुत्र कल्याण को गोद ले लिया था। भेटा ताम्रपत्र इसी कल्याणचंद का है, जिसे बालो कल्याणचंद भी कहा जाता है। भेटा ताम्रपत्रानुसार मई, 1545 ई. में भीष्मचंद की हत्या हो चुकी थी और उसका दत्तक पुत्र कल्याणचंददेव ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि के साथ चंपावत के राजसिंहासन पर आसित हो चुका था। 

मल्लों से वैवाहिक संबंध एवं गजुवाठिंगा से प्रतिशोध- 

        भीष्मचंद की हत्या के पश्चात कुछ समय तक अल्मोड़ा पर खस राजा गजुवाठिंगा का अधिकार रहा, जो पश्चिमी कत्यूरियों का प्रतिनिधि शासक/सामन्त था। उधर चंदों की राजधानी चंपावत में भीष्मचंद के उत्तराधिकारी कल्याणचंद अपने पिता तुल्य राजा की हत्या का प्रतिशोध लेने हेतु आतुर थे। लेकिन डोटी राज्य से हो रहे आक्रमणों ने उनके अल्मोड़ा अभियान को बाधित कर दिया। शाके 1478 या सन् 1556 ई. के गौंछ, पिथौरागढ़ ताम्रपत्र से स्पष्ट होता डोटियालों और अल्मोड़ा के खश राजा से हुए संघर्ष में बालो कल्याणचंददेव की स्थिति दुर्बल हो गयी थी। इस ताम्रपत्र में इस चंद राजा की उपाधि मात्र ‘राजाधिराज’ उत्कीर्ण है। कुमाऊँ में अपनी स्थिति को सशक्त करने हेतु इस चंद राजा ने डोटियालों से संधि कर वैवाहिक संबंध स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। कुमाऊँ क्षेत्र (सीरा) के अंतिम डोटी शासक हरिमल्ल की बहन से कल्याणचंददेव ने विवाह कर पूर्वी मोर्चे पर अपने राज्य को सुरक्षित कर लिया।

        डोटी के डोटियालों से संधि करने के पश्चात कल्याणचंददेव शीघ्र ही खस राजा गजुवाठिंगा को पराजित कर अल्मोड़ा पर अधिकार करने में सफल हुआ। यह घटना सन् 1556 ई. और सन् 1560 ई. के मध्य घटित हुई। शाके 1482 या सन् 1560 ई. के जाखपंत, पिथौरागढ़ ताम्रपत्र में इस राजा ने पुनः ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण कर ली थी। चंद वंश के इस महान राजा ने अल्मोड़ा पर अधिकार तो कर लिया, लेकिन डोटी राज्य सीरा और अल्मोड़ा के मध्य में स्थित गंगोली राज्य उसके सामने प्रश्न चिह्न बना हुआ था।

  गंगोली पर अधिकार-

        अल्मोडा पर विजय के उपरांत भी बालो कल्याणचंद के लिए मध्य हिमालय के उत्तर-कत्यूरी राज्यों गंगोली, सीरा, अस्कोट तथा दानपुर को चंद राज्य में सम्मिलित करना शेष था। अपने लक्ष्य की पूर्ति हेतु सर्वप्रथम उसने मणकोटी राजा नारायणचंद के गंगोली राज्य पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के समय कुमाऊँ की राजनीति में परिवर्तन आ चुका था। बालो कल्याणचंद अब मणकोटियों की सहायता करने वाले मल्ल राजा हरिमल्ल के बहनोई बन चुके थे। अल्मोड़ा पर अधिकार से चंद राज्य की शक्ति में वृद्धि हो चुकी थी। गंगोली पर अब चंद राजा पश्चिमी दिशा से भी आक्रमण कर सकते थे। ये सब तात्कालिक परिवर्तन गंगोली पर आक्रमण हेतु बालो कल्याणचंद के लिए सहायक सिद्ध हुए। 

गंगोली पर चंदों के अधिकार के संबंध में एक संभावना यह भी प्रतीत होती है कि चंद राजा बालो कल्याणचंददेव ने मणकोटी राजा नारायण चंद को कर देने को बाध्य किया। एक तथ्य पंडित बद्रीदत्त पाण्डे देते हैं- ’’गंगोली के अन्तिम मणकोटी राजा नारायणचंद ने राज्य में गड़बड़ मचाई और बालो कल्याणचंद को गंगोली पर चढ़ाई करने का अवसर दिया।’’ अर्थात अंतिम मणकोटी राजा नारायणचंद ने चंदों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। लेकिन वह गंगोली में चंद राज्य के प्रति विद्रोही नीति अपनाये हुआ था।

        मणकोटी शासक डोटी-मल्ल राज्य को वार्षिक कर देते थे। सोलहवीं शताब्दी के मध्य कालखण्ड के पश्चात क्षेत्रीय शक्ति संतुलन चंद राज्य के पक्ष में आने से मणकोटी शासक मल्ल राजा के स्थान पर चंद राजा को वार्षिक कर देने लगे थे। नारायणचंद के विद्रोह होने पर बालो कल्याणचंददेव के लिए गंगोली पर आक्रमण करना आवश्यक हो गया था। गंगोली पर आक्रमण का सबसे उपयुक्त मार्ग- अल्मोड़ा से पनुवानौला, पनुवानौला से जागेश्वर, जागेश्वर से नैनी तथा नैनी से सरयू पार गंगोली था। इसके अतिरिक्त अल्मोड़ा से बाड़ीछिना और धौलछिना-सेराघाट होते हुए गंगोली पर आक्रमण का एक अन्य मार्ग था। चंद राज्य का गंगोली पर सीधा नियंत्रण स्थापित होने पर ‘‘मणकोटी राजा नारायणचंद अपने वंशजों के साथ नेपाल के पिऊठणा नामक स्थान को चले गये। अब भी इनकी सन्तान वहाँ पर हैं।’’ 

        कल्याणचंददेव के उत्तराधिकारी रुद्रचंद सन् 1568 ई. में चंद राजसिंहान पर आसित हुए थे। जाखपंत ताम्रपत्र (सन् 1560 ई.) के अनुसार बालो कल्याणचंददेव ने सन् 1560 से 1568 ई. मध्य या लगभग 8 वर्षों तक गंगोली पर ‘गंगोला’ नामक राज्य पदाधिकारी की सहायता से शासन किया। सन् 1581 ई. में रुद्रचंददेव सीराकोट के राजा हरिमल्ल को पराजित करने में सफल हुए। इस विजय में गंगोली के पुरुषोत्तम पंत की महत्वपूर्ण भूमिका थी। सीरकोट विजय के पश्चात गंगोली में अस्कोट के पालवंश का सामन्तीय शासन आरंभ हुआ, जिसकी पुष्टि किरौली, बेरीनाग ताम्रपत्र (शाके 1519) भी करता है। अस्कोट पाल वंश की उत्पत्ति कत्यूरियों की एक शाखा से हुई थी। 

  

   डॉ. नरसिंह


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