चंद ताम्रपत्र

 चंद ताम्रपत्र

चंद ताम्रपत्र, जहाँ कुमाऊँ के मध्य कालीन इतिहास हेतु विस्तृत सामग्री प्रस्तुत करते हैं, वहीं उत्तराखण्ड के प्राचीन और मध्य कालीन इतिहास के प्रमुख स्रोत भी ताम्रपत्र हैं। कुमाऊँ के विभिन्न क्षेत्रों से सैकड़ों चंद ताम्रपत्र प्राप्त हो चुके हैं, वहीं उत्तराखण्ड के प्राचीन पौरव और कार्तिकेयपुर राज्य के क्रमशः दो व पांच ताम्रपत्र प्राप्त हो चुके हैं। इन ताम्रपत्रों की सहायता से इतिहासकार उत्तराखण्ड के प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास को एक निश्चित कालक्रम में निर्धारित कर पाये। मात्र दो ताम्रपत्रों ने ब्रह्मपुर (उत्तराखण्ड का एक प्राचीन राज्य, जिसकी पहचान रामगंगा घाटी में चौखुटिया क्षेत्र से करते हैं।) में पौरव राजवंश को छठी शताब्दी में स्थापित किया, जहाँ सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वैनसांग ने यात्रा की थी। कार्तिकेयपुर से निर्गत मात्र पांच ताम्रपत्रों ने तथाकथित कत्यूरी राजवंश की अवधारणा और बैजनाथ को कार्तिकेयपुर के रूप में स्थापित कर दिया। वहीं चंद ताम्रपत्र कुमाऊँ में चंद राज्य के विस्तार को एक निश्चित कालक्रम में प्रस्तुत करने में सहायक सिद्ध हुए।

        चंद ताम्रपत्र में स्थानीय कुमाउनी भाषा का प्रयोग किया गया, वहीं पौरव और कार्तिकेयपुर ताम्रपत्र संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण करवाये गये थे। चंद ताम्रपत्र मुख्यतः भूमिदान हेतु विशेष पर्वों में निर्गत किये जाते थे,। प्राचीन काल से ही भूमिदान का संकल्प ब्राह्मणों को करने हेतु परम्परा थी। अतः अधिकांश चंद ताम्रपत्र ब्राह्मणों को प्रदान किये गये थे। क्षत्रियों को युद्ध में अदम्य साहस हेतु ही चंद राजाओं से सम्मान में भूमिदन के ताम्रपत्र प्राप्त होते थे। सोलहवीं शताब्दी में चंद राजा रुद्रचंद ने सीराकोट अभियान हेतु लखु महर तथा अठारहवीं शताब्दी में राजा कल्याणचंद ने रोहिला आक्रमण के विरुद्ध अदम्य साहस हेतु अनूप तड़ागी को ताम्रपत्र निर्गत किया था। चंद राजाओं द्वारा निर्गत ताम्रपत्रों की सामान्य विशेषताएं इस प्रकार से हैं-

ताम्रपत्रारंभ वाक्यांश एवं राज्य चिह्न-

उत्तराखण्ड के प्राचीन राजवंशों का इतिहास आज हमारे सामने है, तो इसका श्रेय उन महान राजवंशों को जाता है, जिन्होंने ताम्रपत्र के द्वारा शासनादेश निर्गत किये थे। छठी शताब्दी के पौरव शासक द्युतिवर्म्म के ताम्रपत्र’ का आरंभ ‘‘स्वस्ति (।।) पुरन्दरपुरप्रतिमाद्-व्र(ब्र)ह्मपुरात वाक्यांश से किया गया है। अर्थात पौरव कालीन ताम्रपत्रों में स्वस्ति (कल्याण) के उपरांत राजधानी नगर (ब्रह्मपुर) का गुणगान करने की परम्परा थी। नौवीं-दशवीं शताब्दी के कार्तिकेयपुर या तथाकथित कत्यूरी राजा ललितशूरदेव के ताम्रपत्र का आरंभ जहाँ ‘‘स्वस्ति श्रीमत्कार्तिकेयपुरात्ु’’ वाक्यांश से किया गया, वहीं कार्तिकेयपुर के एक अन्य राजा सुभिक्षराजदेव के ताम्रपत्र का आरंभ ‘‘स्वस्ति श्रीमत्सुभिक्षुपुरात’’ से किया गया। कार्तिकेयपुर और सुभिक्षुपर प्राचीन ब्रह्मपुर की भाँति राजधानी नगर थे। ताम्रपत्रों राजधानी नगर का उल्लेख स्वस्ति के उपरांत कर तथाकथित कत्यूरी नरेशों ने पौरव परम्परा को अपनाया था।

        कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के ताम्रपत्रों में नंदी का चिह्न तो, चंद ताम्रपत्रों के आरंभ में कटार चिह्न उत्कीर्ण करने की परम्परा थी। स्पष्ट है नंदी और कटार क्रमशः कार्तिकेयपुर और चंद वंश के राज्य चिह्न थे। कार्तिकेयपुर और पौरव राज्यों की भाँति अधिकांश चंद ताम्रपत्र ‘ओम् स्वस्ति’ से आरंभ होते हैं। लेकिन कुछ चंद राजाओं के प्रकाशित ताम्रपत्र और आदेशपत्र ओम् स्वस्ति से आरंभ नहीं किये गये। ये ताम्रपत्र देवता विशेष या मंदिरों को अर्पित किये गये थे। इसलिए देवता विशेष के नाम से ताम्रपत्र के आरंभिक शब्द उत्कीर्ण करने की एक परम्परा चंद काल में अस्तित्व में आयी। जैसे- श्री गणेशायः, श्री केदार, श्री बदरीधाम, श्री रामेश्वर, श्री नागनाथ, श्री सोमेश्वर आदि। ब्रह्मपुर और कार्तिकेयपुर से निर्गत ताम्रपत्रों की भाँति चंद ताम्रपत्रां में ओम् स्वस्ति के उपरांत राजधानी नगर का उल्लेख नहीं किया गया। इसके स्थान पर तिथि का उल्लेख किया गया है।

 ताम्रपत्र में उल्लेखित तिथि-

        ब्रह्मपुर और कार्तिकेयपुर से निर्गत ताम्रपत्रों में तिथि का उल्लेख ताम्रपत्र के अंत में ‘राज्य वर्ष’ में उत्कीर्ण करने की परम्परा थी। राजा के राजसिंहासन पर आसित होने के प्रथम वर्ष को ताम्रपत्रों में 1 राज्य वर्ष लिखा जाता था। इसे राज्य संवत् कहा जाता था। आरंभिक चरण में विक्रम और शक संवत् भी राज्य संवत् के ही उदाहरण थे। राज्य संवत् के अंतर्गत तिथि को क्रमशः राज्य वर्ष, माह, पक्ष (शुक्ल या कृष्ण) और अंत में तिथि अंक लिखने की परम्परा थी। जैसे- ‘‘राज्य सम्बत्सर 21 माघ वदि 3 (कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के ताम्रपत्र में उल्लेखित तिथि)। यहाँ पर वदि का अर्थ कृष्ण पक्ष है। कन्नौज राजा हर्ष के ताम्रपत्रों में भी इसी प्रकार से तिथि का उल्लेख किया गया है। जैसे- संवत् 20$5 मार्गशीष वदि 6। (हर्ष का मधुबन ताम्रपत्र)

       आरंभिक चंद राजाओं के ताम्रपत्रों में तिथि को ताम्रपत्र के आरंभ में लिखने की परम्परा थी। लेकिन बालो कल्याणचंददेव के पुत्र रुद्रचंद ने ताम्रपत्रों के अंत में तिथि को उत्कीर्ण करने की परम्परा को अपनाया, जिसका अनुकरण उनके परवर्ती चंद राजाओं ने भी किया। बालो कल्याणचंददेव ताम्रपत्र के आरंभ में तिथि उत्कीर्ण करवाने वाले अंतिम चंद राजा थे। चंद राजाओं द्वारा निर्गत अधिकांश ताम्रपत्रों में तिथि शाके में उत्कीर्ण की गई। लेकिन कुछ ताम्रपत्र विक्रम और शक सम्वत् दोनों में उत्कीर्ण किये गये। बालो कल्याणचंददेव के भेटा ताम्रपत्र शाके और विक्रम सम्वत् दोनों में उत्कीर्ण किया गया। चंद कालीन कुमाऊँ राज्य में शक और विक्रम दोनों सम्वत् प्रचलन में थे। चंद ताम्रपत्रों में तिथि को क्रमशः श्री संवत्, माह, पक्ष (शुक्ल या कृष्ण), तिथि अंक, वार और पर्व में लिखने की परम्परा थी।

        कुमाऊँ में शाके और विक्रम सम्वत् का प्रयोग कब से प्रारंभ हुआ स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं। लेकिन गंगोली के उत्तर कत्यूरी राजा रामचन्द्रदेव द्वारा निर्मित जाह्नवी नौला की प्राचीर पर एक प्राचीन अभिलेख स्थापित है, जिसमें विक्रम और शक सम्वत् का उल्लेख किया गया है। इस अभिलेख में उल्लेखित प्राचीनतम् तिथि विक्रम सम्वत् में 1321 उत्कीर्ण है। अर्थात सन् 1264 ई.। जबकि चंद शासकों के प्राचीनतम् प्रकाशित ताम्रपत्र चौदहवीं शताब्दी के हैं। जाह्नवी अभिलेख में तिथि इस प्रकार से उत्कीर्ण है- ‘‘संवत्सर् 1321 मासानी 4 वार 3। इस अभिलेख में माह और वार को दर्शाने हेतु अंक प्रणाली का प्रयोग किया गया है। माह और वार के नाम के स्थान पर अंक लिखने की परम्परा का अनुकरण गढ़वाल के पंवार शासकों ने भी किया। 

राजा की उपाधि- 

        उत्तराखण्ड के पौरव शासकों की उपाधि उनके ताम्रपत्रों में परम्भट्टारक महाराजधिराज तथा बागेश्वर शिलालेख में उल्लेखित राजाओं की उपाधि ’परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ थी। बागेश्वर के ’परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ उपाधि धारक को इतिहासकार कत्यूरी वंश से संबद्ध करते हैं। इस शिलालेख में उत्कीर्ण अंतिम चार राजा एक ही परिवार के थे, जिनमें से एक ललितशूरदेव थे, जिनके ताम्रपत्र गढ़वाल के पाण्डुकेश्वर और कण्डारा मंदिर से ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं। इन ताम्रपत्रों में भी इस राजा के पिता और पुत्र की उपाधि भी ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर ही उत्कीर्ण है। इसके अतिरिक्त इष्टगणदेव, ललितशूर ने ‘परमब्राह्मण्य’ तथा भूदेवदेव ने ‘परमब्राह्मणपरायण’ और ‘परमबुद्धश्रमणरिपु’ की उपाधि भी धारण की थी। उत्तराखण्ड में छठीं से दशवीं शताब्दी के कालखण्ड में ‘परम्भट्टारक महाराजाधिराज’ की उपाधि महत्वपूर्ण थी। यह उपाधि उत्तर गुप्त शासकों ने भी धारण की थी।

        चंद राजाओं ने उत्तराखण्ड के प्राचीन नरेशों की उपाधि ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज’ के स्थान पर मात्र ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि ही धारण की थी। चंद राजा बालो कल्याणचंद ने गौंछ, पिथौरागढ़ ताम्रपत्र (सन् 1556 ई.) में ‘राजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी। ‘राजाधिराज’ की उपाधि किरौली, बेरीनाग ताम्रपत्र (सन् 1556 ई.) में आनन्द रजवार ने भी धारण की थी, जो चंदों के अधीन गंगोली में एक अर्द्ध-स्वतंत्र शासक थे। संभवतः चंद काल में अर्द्ध-स्वतंत्र शासक राजाधिराज की उपाधि धारण करते थे।

विशिष्ट राज्य पद-

        पौरव और कार्तिकेयपुर ताम्रपत्रों से उपरिक, प्रमातार, प्रतिहार, कुमारामात्य, दण्डपासिक, विषयपति, पीलुपत्यश्वपति जैसे राज्य पदों का उल्लेख प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त छठीं से दशवीं शताब्दी मध्य उत्तराखण्ड पर शासन करने वाले इन दो राजवंशों के ताम्रपत्रों से दूतक, संधिविग्रहिक, कोटाधिकरणि, जयनपति, गज्जपति, सूपकारपति, नगरपति, सर्वविषयप्रधान, महासत्न्नपति, दिविरपति, देवद्रोण्यधिकृत, भोगिक-भागिक, कटुकादि अनुजीविवर्ग, राजदौवारिक, पंचमहापातक, अग्निस्वामी, अमात्य, सामंत, महासामंत, ठक्कुर, महामनुष्य, महाकर्तृकृतिक, महाराज, शरभंग, दुस्याध्यासाधनिक, दशापराधिक, चौरोद्धरणिक, शौल्किक, शौल्मिक, तदायुक्तक, विनियुक्तक पट्टाकापचारिक, अशेषभंगाधिकृत, हरत्यश्वोष्ट, बलव्यापृतक, भूतप्रेषणिक, दण्डिक, गमागमिशार्गिंक, अभित्वर, माणक, राजस्थानीय, भोगपति, नरपति, दण्डरक्षप्रतिशूरिक, स्थानाधिकृत-वर्त्मपाल, कौट्टपाल, घट्टपाल, क्षेत्रपाल, प्रान्तपाल, किशोरवरवा, गो, महिष्यधिकृत, भट्ट, महत्तम, आभीर, वणिक् श्रेष्ठि और पुरोगास्त् नामक राज्यापदाधिकारियों के अतिरिक्त अन्य कर्मचारी- भट, चट, सेवक आदि का भी उल्लेख प्राप्त होता है। 

        चौदहवीं शताब्दी के चंद राजा अभयचंद के शाके 1306 या सन् 1384 ई. के प्रकाशित ताम्रपत्र में सर्वप्रथम ’बाइसै सहस का पाउला’ और ’पंद्र विसि’ राज्य पद का उल्लेख किया है। राजा अभयचंद से राजा रुद्रचंद (1568-1597) तक के लगभग दो सौ वर्षों के शासन काल में अनेक विशिष्ट राज्य पदों का उल्लेख प्रकाशित चंद ताम्रपत्रों से प्राप्त होता है। उनमें मुख्य है- ’चार थान’, ’आटू विस का बूढ़ा’, ’चार बूढ़ा’, ’पन्द्रह शय’, ’छइ गौर्या’, विसुंगा,  गंगोलो और बारह अधिकारी आदि। रुद्रचंद के पुत्र लक्ष्मीचंद के शासनादेशों से नेगी, रतगलि और सिकदार आदि राज्य पदों को उल्लेख प्राप्त होता है। छः थर नामक राज्याधिकारी का उल्लेख राजा दिलीपचंद के ताम्रपत्र से प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त चंद ताम्रपत्रों से प्रधान, राजगुरु, राजपुरोहित आदि उच्च राज्य पदों का भी उल्लेख प्राप्त होता है। 

        ब्रह्मपुर और कार्तिकेयपुर से संचालित राजतंत्रों के कुछ राज्य पद समान थे। लेकिन कार्तिकेयपुर और चंद राज्य का कोई भी राज्य पद सुमेलित नहीं है। कार्तिकेयपुर राज्य से चार सौ वर्ष उपरांत अस्तित्व में आये चंद राज्य के राज्य पदों में आमूल-चूल परिवर्तन देखने को मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये दोनों राज्य, राज्य व्यवस्था के दो भिन्न-भिन्न स्वरूप को अपनाये हुए थे। जहाँ कार्तिकेयपुर राज्य उच्चकोटि के राजतंत्र के साथ-साथ गौरवशाली राजशाही को प्रतिबिंबित करता है, वहीं चंद राज्य जातिगत समूहों से सहायता प्राप्त राजतंत्र को अभिव्यक्त करता है। इतिहासकार चंद राज्य के जातिगत समूह को महर और फर्त्याल दल में विभाजित करते हैं।

  भाषा और लिपि-

पौरव ताम्रपत्र संस्कृत भाष एवं उत्तर गुप्त ब्राह्मी में उत्कीर्ण हैं। जबकि कार्तिकेयपुर के ताम्रपत्रों की भाषा संस्कृत और लिपि कुटिला है, जो नौवीं-दशवीं शताब्दी के पालवंश के अभिलेखां में उत्कीर्ण लिपि से मेल खाती है। जबकि चंद ताम्रपत्र कुमाउनी और संस्कृत भाषा तथा देवनागरी लिपि में उत्कीर्ण हैं। अधिकांश चंद ताम्रपत्र स्थानीय कुमाउनी भाषा में उत्कीर्ण हैं। लेकिन संस्कृत के श्लोकों को चंद ताम्रपत्रों में विशेष निर्देश देने हेतु प्रयुक्त किया गया है। जैसे भारतीचंद के तोलीपाण्डे ताम्रपत्र (सन् 1451) और बालो कल्याणचंद के जाखपंत, पिथौरागढ़ ताम्रपत्र सन् 1560 के अंत में उत्कीर्ण श्लोक-

                            स्वदत्तां पर दत्तां वा यो हरेच्च वसुंधरा ।

                            षष्टीर्वर्ष सहस्राणी बिष्टायां जायते कृमि।।

        भावार्थ- अपने द्वारा दी हुई, दूसरे द्वारा दी गई भूमि को जो छीनता है, वह साठ हजार वर्ष पर्यन्त तक बिष्टा में कीड़ा होकर जन्म लेता रहता है।

        यह श्लोक दान दी गई भूमि को सुरक्षित करने हेतु एक धार्मिक निर्देश की भाँति है, जिसका पालन न होने पर कठोर शाप की कामना की गई। इस श्लोक का प्रयोग कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव ने भी अपने ताम्रपत्रों में किया। नौवीं-दशवीं शताब्दी में प्रचलित दान भूमि को सुरक्षित करने हेतु उपयोगी श्लोक को पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी के चंद राजाओं ने भी अपनाया, जो ब्राह्मण धर्म के प्रभाव को रेखांकित करता है।

 डॉ नरसिंह 


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