विष्णुवर्मन का ताम्रपत्र : प्रथम बारह पंक्तियों का एक ऐतिहासिक अध्ययन-

विष्णुवर्मन का ताम्रपत्र : प्रथम बारह पंक्तियों का एक ऐतिहासिक अध्ययन-

        विष्णुवर्मन का ताम्रपत्र ब्रह्मपुर और पौरव वंश के इतिहास पर प्रकाश डालने वाला एक महत्वपूर्ण स्रोत है। विष्णुवर्मन सोमदिवाकर या पौरव वंश का शासक था। इसके वंश का शासन उत्तराखण्ड में स्थित पर्वताकार राज्य में लगभग छठी शताब्दी के आस पास था, जिसकी राजधानी ब्रह्मपुर नामक नगर में थी। उत्तराखण्ड के इस प्राचीन राजवंश के अभिलेखीय स्रोत केवल तालेश्वर से प्राप्त दो ताम्रपत्र हैं। यह ऐतिहासिक स्थल अल्मोड़ा जनपद के गढ़वाल सीमा क्षेत्र पर स्थित स्याल्दे तहसील का एक गांव है, जहाँ तालेश्वर महादेव का प्राचीन मंदिर है।

         सन् 1915 ई. में तालेश्वर गांव के एक खेत की प्राचीर निर्माण का कार्य चल रहा था। इस हेतु खुदाई में दो ताम्रपत्र प्राप्त हुए थे, जो विष्णुवर्मन और उसके पिता द्युतिवर्मन के थे। अभिलेखीय साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि पौरव वंश में विष्णुवर्मन, वृषवर्मन, अग्निवर्मन, द्युतिवर्मन और विष्णुवर्मन सहित कुल पांच शासक हुए थे। तालेश्वर ताम्रपत्र को निर्गत करने वाले विष्णुवर्मन का क्रम पाँचवां था। ज्ञात अभिलेखों के अनुसार वह अपने वंश का अंतिम शासक था। ब्रह्मपुर के पौरव वंश के प्रथम शासक का नाम भी विष्णुवर्मन था। इसलिए द्युतिवर्मन के पुत्र विष्णुवर्मन को विष्णुवर्मन द्वितीय कहा जाता है। 

        पौरव शासक विष्णुवर्मन द्वितीय का तालेश्वर ताम्रपत्र, पिता द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र की भाँति मूलतः ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है, जिसका संस्कृत अनुवाद डॉ. शिव प्रसाद डबराल की पुस्तक ‘उत्तराखण्ड अभिलेख एवं मुद्रा’ में प्रकाशित हो चुका है। इस पुस्तक में विष्णुवर्मन के ताम्रपत्र की कुल 28 पंक्तियां उत्कीर्ण हैं, जिनमें से प्रथम बारह पंक्तियां और उनका विश्लेषण इस प्रकार से है-

1- स्वस्ति ।। पुरोत्तमाद् व्र (ब्र) ह्मपुरात् सकलभुवन भव भंग विभागकारियो (ऽ) नन्त मूर्त्तेरनाद्या वेद्याचिन्त्याद्भुतोद्भुत प्रभूत प्रभावाति शंयस्य-

2-क्ष्मातल विपुल विकट स्फटा पटल निकट प्ररूढ़ मणिगण किरणारुणित पाताल तलस्य (-) धरणि धरण योग्य धारणा-

3- धार (रिणो) भुजगराजरूपस्स्य (स्य) भगवद्वीरणेश्वर स्वामिनश्चरण कमलानुध्यातः सोमदिवाकर प्रांशु वंश वेश्म प्रदीपः सर्व्वप्रजानुग्र (ा)-

4- याभ्युदितप्रभावः परमभट्टारक महाराजाधिराज श्र्यश्नि (ग्नि) वर्म्मा (।) तदात्मजस्तत्पाद प्रसादादवाप्त प्राज्य राज्यः क्षपित महापक्ष विपक्ष

5- कक्ष द्युतिर्म्महाराजाधिराज श्रीद्युतिवर्म्मा (।।) तन्ननयो (तत्तनयो) नय विनय शौर्य धैर्य स्थैर्य गाम्भीर्यौदार्य गुण गणाधिष्ठित मूर्ति श्चक्क्रधर (ः)

6- इव प्रजानामार्तिहरः परमपितृभक्तः परमभट्टारक महाराजाधिराज श्री विष्णुवर्म्मा समुपचित कुशल

 व (ब)ल वीर्यः पर्व्वताकार

7- राज्ये समुत्पत्स्यमानास्मद् वंशालंकारान्देवा कारान् राजलक्ष्मी ि (र्व्) वराजमान (लक्ष्मी विराजमान) मूर्त्तीन्महाराजविशेषान्प्रतिमान्य दण्डोपरिक प्रमातार

8- प्रतिहार कुमारामात्य पीलुपत्यश्वपति प्रभृत्यनुजीवि वर्ग्गमन्यांश्च भोगि भागिक करिक कुलचारिक प्रधानादि कुटुवि (म्बि) नः

9- समाज्ञापयति (।।) विदितमस्तु वस्त्रात मारि पतिशर्म्म गौग्गुलिक परिषत्प्रमुखेन देवनिकायेन सांधिकरणेन विज्ञापिताः स्मः-

10- सर्व्वस्थानेप्षु दत्तिदायक साधु प्रतिपादित प्राग् भुज्यमाना विच्छिन्न भोगीन भुवां कालेनगच्छता केचिदसत्पुरुषाः  कलि दोष-

11- लोभ ग्रहाविष्ठा आक्षेपं कुर्युं रित्यर्हन्ति भट्टारकपादाः पुण्ययशो (ऽ) भिवृद्धये तन्नाम समारोपणानुस्मरण स्थिरकरण-

12- मधिकृत्य ताम्रपट्ट दानेन प्रसादं कर्त्तु मिति यतोस्मामिर्भक्ति भावित हृदयैरनुमोदना शासनं भुवामर्थे महासत्रो-

विष्णुवर्मन का ताम्रपत्र : प्रथम बारह पंक्तियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन-

 ताम्रपत्र का आरंभ-

        पौरव शासक द्युतिवर्मन, कार्तिकेयपुर नरेशों और कन्नौज नरेश हर्ष की भाँति विष्णुवर्मन के ताम्रपत्र का आरंभ ‘स्वस्ति’ से किया गया है, जिसका अर्थ ‘कल्याण हो’ होता है। स्वस्ति के अतिरिक्त प्रथम पंक्ति में ब्रह्मपुर को सम्पूर्ण संसार का श्रेष्ठ नगर कहा गया है। पौरवों के परवर्तीर् कन्नौज नरेश हर्ष और उत्तराखण्ड के प्राचीन अभिलेखों में आरंभिक शब्द ‘स्वस्ति’ एक सार्व था। कालान्तर में कुमाऊँ के चंद राजाओं ने भी ‘स्वस्ति’ को अपने ताम्रपत्रों में स्थान दिया था। 

कुल नरेशों की प्रशंसा-

        विष्णुवर्मन के तालेश्वर ताम्रपत्र की प्रथम पाँच पंक्तियों में ब्रह्मपुर के पूर्ववर्ती पौरव नरेशों का उल्लेख उनकी प्रशंसा सहित किया गया है। इस ताम्रपत्र में सर्व प्रथम विष्णुवर्मन के दादा अग्निवर्मन तथा उसके उपरांत पिता द्युतिवर्मन की प्रशंसा की गई है। अपने पूर्ववर्ती शासकों या कुल नरेशों की प्रशंसा करने की परम्परा प्राचीन भारतीय और मुख्यतः उत्तराखण्ड के अभिलेखों की मुख्य विशेषता रही है। कन्नौज नरेश हर्ष के मधुवन और बांसखेड़ा ताम्रपत्र, उत्तराखण्ड के कार्तिकेयपुर से निर्गत ताम्रपत्रों तथा बागेश्वर शिलालेख में भी राजा द्वारा पूर्ववर्ती कुल नरेशों की प्रशंसा की गयी है। लेकिन हर्ष और कार्तिकेयपुर के अभिलेखों में पूर्ववर्ती कुल नरेशों का उल्लेख उनकी पट्टरानियों सहित किया गया है। जबकि पौरव ताम्रपत्रों में पूर्ववर्ती कुल नरेशों की पट्टरानियों का उल्लेख नहीं किया गया है।

अग्निवर्मन-

        प्रथम पंक्ति का शेष वाक्यांश, द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ पंक्ति के विभिन्न शब्द पौरव नरेश अग्निवर्मन की प्रशंसा में इस क्रम में प्रयुक्त किये गये हैं- विभागकारियो, अनन्त, मूर्ति, अनाद्य, अवेद्य, अचिन्त्य, अद्भुत उद्भुत, प्रभूत, प्रभाव, शंयस्यक्ष्म, अतल, विपुल, विकट, स्फटा, पटल, निकट, प्ररूढ़, मणिगण, किरण, अरुणित, पाताल, तलस्य, धरणि, धरण योग्य, धारणा, धारिणो, भुजंगराजरूपस्य, भगवद्, वीरणेश्वर, स्वामिनश्चरण, कमलानुध्यात, सोमदिवाकर प्रांशु, वंश, वेश्म, प्रदीप, सर्व प्रजा और अनुग्रयाभ्युदित आदि। उपरोक्त शब्दों में ‘वीरणेश्वर’ और ‘सोमदिवाकर’ के अतिरिक्त अन्य साहित्यिक शब्द हैं, जिनके द्वारा विष्णुवर्मन अपने दादा अग्निवर्मन का महिमा मण्डन करते हैं। 

        वीरणेश्वर स्वामी पौरव वंश के कुल देवता थे, जिनका मंदिर अल्मोड़ा के चौखुटिया में बैराठेश्वर नाम से प्रसिद्ध है। चौखुटिया क्षेत्र में स्थित बैराटपट्टन और लखनपुर को ही भारतीय सर्वेक्षण विभाग के प्रथम महानिदेशक अलेक्जैण्डर कनिंघम ने ब्रह्मपुर कहा था। पौरव शासक अपने वंश को सोमदिवाकर वंश और राजा पुरूरुवा से संबद्ध करते हैं। चन्द्रमा (सोम) के पुत्र बुध और सूर्य (दिवाकर) वंशी इला के पुत्र राजा पुरूरुवा थे, जिनका उल्लेख वैदिक ग्रंथों से भी प्राप्त होता है। संभवतः ब्रह्मपुर नरेश विष्णुवर्मन प्रथम के वंशज वैदिक कालीन राजा पुरूरुवा के वंशज होने के कारण ‘सोमदिवाकर’ और ‘पौरव’ कहलाये। 

        इस ताम्रपत्र की चतुर्थ पंक्ति में अग्निवर्मन की उपाधि परमभट्टारक महाराजाधिराज उत्कीर्ण है, जो एक स्वतंत्र शासक की उपाधि थी। गुप्त शासकों और कन्नौज नरेश हर्ष और उत्तराखण्ड के कार्तिकेयपुर नरेशों ने भी परमभट्टारक महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। जबकि कुमाऊँ के चंद राजाओं ने केवल महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी।

द्युतिवर्मन-

        चतुर्थ पंक्ति के अंतिम सात शब्दों एवं पंचम् पंक्ति के प्रथम तीन शब्दों में महाराजाधिराज द्युतिवर्मन की प्रशंसा इस क्रम में की गयी है- तदात्मजस्तत्पाद, प्रसाद, अदवाप्त, प्राज्य, राज्य, क्षपित, महापक्ष और विपक्षकक्ष ( उनके चरणों के प्रसाद से राज्य प्राप्त करने वाला, विपक्षियों की द्युति का अपहरण करने वाला)। द्युतिवर्मन द्वारा राज्य संवत् 5 वें वर्ष में निर्गत तालेश्वर ताम्रपत्रानुसार इस राजा ने भी अपने पिता अग्निवर्मन की भाँति ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी। जबकि विष्णुवर्मन द्वितीय के इस ताम्रपत्र में पिता द्युतिवर्मन की उपाधि में से परमभट्टारक शब्द विलुप्त है। द्युति का शाब्दिक अर्थ ‘चमक’ होता है। 

विष्णुवर्मन-

        पंचम् पंक्ति के प्रथम तीन शब्दों के अतिरिक्त शेष वाक्यांश विष्णुवर्मन की प्रशंसा में इस प्रकार से समर्पित किया गया है- उतन्ननयो (तत्तनयो), नय, विनय, शौर्य, धैर्य स्थैर्य, गाम्भीर्यौदार्य, गुण, गणाधिष्ठित, मूर्ति, श्चक्क्रधर। अर्थात उनके पुत्र (द्युतिवर्मन के) नीति, विनय, शौर्य, धैर्य, गम्भीरता, उदारता गुणों से पूर्ण थे। इस पंक्ति में विष्णुवर्मन को चक्रधर (विष्णु) के समान कहा गया है।। छठवीं पंक्ति में विष्णुवर्मन को प्रजा का कष्ट हरने वाला और पितृ भक्त कहा गया है। इस पंक्ति में उत्कीर्ण है कि परमभट्टारक महाराजाधिराज विष्णुवर्मन कुशल से पर्वताकार राज्य में हैं।

राज्य पदाधिकारी-

        सातवीं पंक्ति के अंत में दो महत्वपूर्ण राज्य पदाधिकारियों दण्डोपरिक और प्रमातार का उल्लेख किया गया है। उपरिक’ नामक पदाधिकारी गुप्त काल में भुक्ति (राज्य/प्रदेश) का सर्वोच्च अधिकारी होता था। पौरव काल में उपरिक को दण्ड देने का अधिकार भी प्राप्त हो चुका था। इसलिए पौरव ताम्रपत्रों उसे राज्य पदाधिकारियों में सर्वोच्च वरीयता प्राप्त थी। 

        राज्य पदाधिकारियों में द्वितीय वरीयता ‘प्रमातार’ नामक अधिकारी को प्राप्त थी, जो भूमि पैमाइश का कार्य करता था। इस ताम्रपत्र के अनुसार बराहदत्त पौरव नरेश विष्णुवर्मन का प्रमातार था, जिसके निर्देशन में ब्रह्मपुर राज्य की भूमि पैमाइश कुल्य, द्रोण और खारि वापं में की गयी थी। कुल्य, द्रोण और खारि वापं का प्रयोग कमशः सिंचित, असिंचित और बंजर भूमि की पैमाइश हेतु किया जाता था। बागेश्वर शिलालेख में खस राजा त्रिभुवनराजदेव का लेख उत्कीर्ण है, जिसमें ‘द्रोण’ पैमाने का उल्लेख किया गया है। कार्तिकेयपुर नरेश पद्मटदेव के पुत्र सुभिक्षराजदेव के ताम्रपत्र से नालिका, द्रोण और खारि वापं का उल्लेख प्राप्त होता है। कुल्य वापं और नालिकावापं एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।

        आठवीं पंक्ति में प्रतिहार, कुमारामात्य, पीलुपत्यश्वपति, प्रभृत्यनुजीवि, वर्ग्गमन्यांश्च, भोगिक, भागिक, करिक, कुलचारिक, प्रधानादि का उल्लेख किया गया है। इस ताम्रपत्रानुसार ब्रह्मपुर राज्य में तृतीय वरीयता का अधिकारी ’प्रतिहार’ था। ‘‘प्रतिहार अन्तःपुर का रक्षक एवं महाप्रतिहार राजमहल के रक्षकों का प्रधान होता था।’’ प्रतिहार और महाप्रतिहार गुप्त काल में केन्द्रीय अधिकारी थे। लेकिन विष्णुवर्मन तथा उसके पिता द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र में ’महाप्रतिहार’ राज्य पद उत्कीर्ण नहीं है। जबकि कार्तिकेयपुर से निर्गत और चमोली के पाण्डुकेश्वर से प्राप्त ताम्रपत्रां में ’महाप्रतिहार’’ राज्य पद उत्कीर्ण है, ’प्रतिहार’ राज्य पद नहीं। 

        ब्रह्मपुर राज्य में चतुर्थ वरीयता का राज्य पदाधिकारी ’कुमारामात्य’ था। ‘‘अल्तेकर महोदय का मत है कि कुमारामात्य उच्च-पदाधिकारियों का विशिष्ट वर्ग था जो आधुनिक आई. ए. एस. वर्ग के पदाधिकारियों की भाँति था।’’ विष्णुवर्मन के राज्य पदाधिकारियों में सैन्य विभाग के अध्यक्षों हेतु ‘पीलुपत्यश्वपति’ का उल्लेख किया गया है। इस शब्द की व्युत्पत्ति पीलुपति और अश्वपति शब्द के संधि से हुई है, जो क्रमशः हस्ति और अश्वसेना के प्रमुख थे। इस ताम्रपत्र में हस्ति सेना के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि ब्रह्मपुर राज्य का विस्तार उत्तराखण्ड के मैदानी क्षेत्रों तक विस्तृत था। पश्चिमी रामगंगा और कोसी नदी के अंतस्थ भाग में स्थित रामनगर क्षेत्र का ‘ढिकुली’ पौरव शासकां का एक उपनगर और हस्ति सेना का मुख्यालय था, जहाँ आज जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क है।

        आठवीं पंक्ति का पाँचवां शब्द ‘प्रभृत्यनुजीवी वर्ग’ है, जिसकी व्युत्पत्ति प्रभृति (इत्यादि) $ अनुजीवी वर्ग (सेवक वर्ग) की संधि से हुई है। पांच उच्च वरीयता क्रमांक वाले राज्य पदाधिकारियों के उपरांत प्रभृति के प्रयोग से स्पष्ट है कि पौरव नरेश विष्णुवर्मन के उच्च राज्य पदाधिकारियों की संख्या और अधिक थी। सेवक वर्ग के उपरांत अन्य राज्य पदाधिकारियों जैसे- भोगिक, भागिक, करिक और कुलचारिक, प्रधान आदि का उल्लेख किया गया। 

गौग्गुलिक परिषद्-

        इस ताम्रपत्र की नौवीं पंक्ति में उत्कीर्ण ‘गौग्गुलिक’ एक महत्वपूर्ण शब्द है, जिसकी व्युत्पत्ति ‘गुग्गुल’ में ‘इक’ प्रत्यय लगाने से हुई है। गुग्गुल संस्कृत का शब्द है, जिसका अर्थ पेड़ से प्राप्त गोंद होता है। प्राचीन काल में वृक्ष से प्राप्त गोंद का उपयोग मंदिरों में ‘धूप’ (सुगन्ध) हेतु किया जाता था। इसलिए इसे देवधूप भी कहते हैं। सामान्यतः गुग्गुल का रंग पीलापन लिए श्वेत तथा गहरा लाल होता है। अग्नि में आहूत करने पर गुग्गुल सुगंध देता है। 

        आयुर्वेद में गुग्गुल के पांच भेदों- महिषाक्ष, महानील, कुमुद, पद्म और हिरण्य का उल्लेख किया गया है। संभवतः गुग्गुल के ये पांच भेद गुग्गुल के रंग को व्यक्त करते हैं। महिषाक्ष अर्थात भैंसे की आँख जैसा पीला गुग्गुल। महानील अर्थात गहरा नीला गुग्गुल। कुमुद अर्थात लाल रंग का गुग्गुल। पद्म अर्थात लाल कमल के रंग का गुग्गुल। हिरण्य अर्थात स्वर्ण के रंग का गुग्गुल। वैज्ञानिकों के अनुसार भारत में गुग्गुल जाति के वृक्षों की दो प्रजातियां पायी जाती हैं। एक को कॉमिफोरा मुकुल तथा दूसरे को कॉ. रॉक्सबर्घाई कहते हैं।

        नौवीं पंक्ति में गुग्गुल या देवधूप की व्यवस्था हेतु ब्रह्मपुर राज्य में ‘गौग्गुलिक परिषद्’ की स्थापना की गयी थी। विष्णुवर्मन के शासन काल में मारिपतिशर्म्म इस परिषद् के प्रमुख थे। इस पंक्ति में गौग्गुलिक परिषद् और मंदिर निकाय (मंदिर प्रबंधन समिति) के मध्य संधि का उल्लेख किया गया है। संभवतः ब्रह्मपुर के गौग्गुलिक परिषद् के कार्य का सम्पादन वन में निवासरत् उत्तराखण्ड की आदिम जाति किरात या उनके वंशज ‘वनराजी’ या ‘वनरौत’ करते थे। किरातों से संधि का उल्लेख ब्रह्मपुर के पौरवों के परवर्ती तथाकथित कत्यूरी त्रिभुवनराजदेव के बागेश्वर शिलालेख से भी होता है। मंदिर समिति में ब्राह्मणों तथा गौग्गुलिक परिषद् में अवश्य ही किरातों का बहुमत रहा होगा। 

कलि दोष-

        इस ताम्रपत्र की दशवीं पंक्ति में सर्व्वस्थानेप्षु (सर्व स्थान), दत्तिदायक (देने वाला), साधु  (सज्जन), भुज्यमान, अविच्छिन्न, भोग,  कालेनगच्छता (चिरकाल), और कलि दोष जैसे शब्द भूमि दान की व्याख्या हेतु प्रयुक्त किये गये हैं। ‘भुज्यमान’ एक विशेष शब्द है, जिसका अर्थ दान में दी गई भूमि का उपभोग करने से है। विष्णुवर्मन के पिता द्युतिवर्मन के तामपत्र की तेरहवीं पंक्ति में भी ‘भुज्यमान’ शब्द प्रयुक्त किया गया है। पौरव शासकों की भाँति दान भूमि का उपभोग करने हेतु चंद राजाओं ने अपने ताम्रपत्रों में भुज्यमान के स्थान पर ‘भुचणि’/‘भुचाउणि’ शब्द का प्रयोग किया। संभवतः भुज्यमान से ही भुचणि/भुचाउणि शब्द चंद काल में अस्तित्व में आया। 

        दशवीं पंक्ति मे कलि दोष का भी उल्लेख है, जिसे ग्यारहवीं पंक्ति का प्रथम शब्द ‘लोभ’ परिभाषित करता है। लोभ सबसे बड़ा कलिदोष है इस संबंध में तुलसीदास रचित रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड के 39 वें दोहे के उपरांत की दो चौपाइयां इस प्रकार से हैं-

              लोभइ ओढ़न लोभइ डासन। सिस्नोदर पर जमपुर त्रास न।।

              काहू की जौं सुनहिं बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई।।

भावार्थ- 

        लोभ ही उनका ओढ़ना और लोभ ही बिछौना होता है। (अर्थात लोभ ही से वे सदा घिरे हुए रहते हैं।) वे पशुओं के समान आहार और मैथुन के ही परायण होते हैं, उन्हें यमपुर का भय नहीं लगता। यदि किसी की बड़ाई सुन पाते हैं, तो वे ऐसी (दुःख भरी) साँस लेते हैं मानो उन्हें जूड़ी (ज्वर) आ गयी हो।

             जब काहू कै देखहिं बिपती। सुखी भए मानहुँ जग नृपती।।

             स्वारथ रत परिवार बिरोधी। लंपट काम लोभ अति क्रोधी।

भावार्थ-

        जब किसी की  विपत्ति देखते हैं, तब ऐसे सुखी होते हैं मानो जगत् भर के राजा हो गये हों। वे स्वार्थ परायण, परिवार वालों के विरोधी, काम और लोभ के कारण लम्पट और अत्यन्त क्रोधी होते हैं।

        कलिदोष लोभ के अतिरिक्त ग्यारहवीं के पंक्ति के ग्रहाविष्ठा, आक्षेप, भट्टारक, पुण्य यश अभिवृद्धि, समारोपण, अनुस्मरण, स्थिरकरण आदि शब्द राजा के पुण्य यश की अभिवृद्धि हेतु और दान करने हेतु प्रयुक्त किये गये हैं। ग्रह (वश में करने की क्रिया) और अविष्ठा (जिसे त्यागा न जा सके) के संधि से ग्रहाविष्ठ शब्द की व्युत्पत्ति होती है। कलिदोष ‘लोभ’ में वशीभूत करने का गुण होता है और जिसे त्याग भी नही सकते।

महासत्र-

        बारहवीं पंक्ति में मधिकृत्य, ताम्रपट्ट, दानेन, प्रसादं, कर्त्तुमिति, यतोस्मामिर्भक्ति, भावित, हृदयैरनुमोदना, शासनं, भुवामर्थे और महासत्रो शब्द प्रयुक्त किये गये हैं। डॉ. शिव प्रसाद डबराल इस पंक्ति के भावार्थ में लिखते हैं- ‘‘वस्तु हमने भक्ति व पूर्ण हृदय से महासत्र का कार्य चालू रखने हेतु उल्लिखित भूमि के संबंध में शासन देने का अनुमोदन किया है।’’ महा और सत्र से महासत्र शब्द की व्युत्पत्ति होती है, जिसका अर्थ विशाल भण्डारा होता है। पौरव नरेश विष्णुवर्मन ने अपने राज्य के 20 वें वर्ष मार्गशीर्ष माह की 5 वीं तिथि (इस ताम्रपत्र को निर्गत करने के दिन) को ब्रह्मपुर में विपिन्न लोगों के लिए महाभोज की व्यवस्था की थी। 




 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

आरंभिक चंद

ललितशूरदेव का 21 वें राज्य वर्ष का पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्र-

गंगोली का राजनीतिक भूगोल : एक ऐतिहासिक परिदृश्य-

बटखोरी या बड़ोखरी का दुर्ग

बनकोट