द्युतिवर्मन का ताम्रपत्र : ‘तेरहवीं से अट्ठाईसवीं पंक्ति तक का एक अध्ययन’

 द्युतिवर्मन का ताम्रपत्र : ‘तेरहवीं से अट्ठाईसवीं पंक्ति तक का एक अध्ययन’

        द्युतिवर्मन पौरव वंश का शासक था। उसके वंश का शासन उत्तराखण्ड के ब्रह्मपुर राज्य में लगभग छठी शताब्दी के आस पास था। इस वंश का इतिहास केवल ताम्रपत्रों में ही समाहित था। द्युतिवर्मन का ताम्रपत्र अल्मोड़ा जनपद के गढ़वाल सीमावर्ती तालेश्वर गांव से सन् 1915 ई. में प्राप्त हुआ। इस गांव में खेत की प्राचीर निर्माण हेतु की गई खुदाई में दो ताम्रपत्र प्राप्त हुए थे, जो द्युतिवर्मन और विष्णुवर्मन नामक राजाओं के थे। इन दो ताम्रपत्रों में राज्य एवं राजधानी का नाम क्रमशः पर्वताकार और ब्रह्मपुर उत्कीर्ण है।

राजा और वंश-

        द्युतिवर्मन का ताम्रपत्र ब्रह्मपुर और पर्वताकार राज्य के संबंध में अनेक तथ्य उपलब्ध कराता है। यह ताम्रपत्र ब्रह्मपुर को पुरों में श्रेष्ठ तथा द्युतिवर्मन को पुरूरुवा का वंशज और पौरव वंशीय घोषित करता है। अभिलेखीय साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि पौरव वंश में कुल पांच शासक हुए, जिनमें द्युतिवर्मन का क्रम चतुर्थ था। इस वंश ज्ञात पांच शासक क्रमशः विष्णुवर्मन, वृषवर्मन, अग्निवर्मन, द्युतिवर्मन और विष्णुवर्मन थे।

ताम्रपत्र की लिपि और भाषा-

        पौरव शासक द्युतिवर्मन का ताम्रपत्र मूलतः ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है, जिसका संस्कृत अनुवाद डॉ. शिव प्रसाद डबराल की पुस्तक ‘उत्तराखण्ड अभिलेख एवं मुद्रा’ में प्रकाशित हो चुका है। इस पुस्तक में द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र की तेरहवीं से अट्ठाईसवीं पंक्ति तक कुल 16 पंक्तियां इस प्रकार से उल्लेखित हैं-

13- नुमति दानेन यथा भुज्यमान स्थान परिमाण नामान्याभिलेखयितु मिति यतो मया देवभक्त्या पूर्व्वराजर्षीणां यशो (ऽ) र्थ-

14- मात्मनश्च पुण्याभिवृद्धये वृषताप शासनमिदं दत्तम् (।।) यत्र पशु कुलावदार कर्म्मान्त कोण कलिका गंगा ग्रामे गुणेश्वरा

15- वलदीपकः वक्रय (क्रय) करण भूमि भाग सद्दितश्चोर कटको जम्बु शालिका पटल्य तर पर्वतक भाविलान करवीर कोष्टा-

16- गक्षीचरण ग्रामो (मे) महासालो वुरासिका दन्तवनिकां ज्योराणायां चोरपानीयं भग्नानूपमो ड्ढभायां पुटवनकः

17- कर्क्कटस्थूणा वंजाल्युत्तरगगंगा कपिलगर्त्ता कोटरवंजः शिवमुषीच्यापुरी दाडिमिका शिंशपिका दक्षिण ( ं) पा (र्) र्श्वे

18- शरथा विषयस्ता पल्ली करवीरगर्त्ता कोल्लपुरी भेलमस्तकः कवर्कोटायां खण्डाक पल्लिका मम्दत्तो राज्यकतोली

19- श्रृगाल खोह्णका भूतपल्लिका गोग्गपल्लिका वारुणश्रमः प्रभीलापल्लिका देवदास तोली नारायण देवकुलक मा (ला)

20- खानकः श्रीभाचर्प्पटो (ऽ) नगांल गत्तोत्तर वासो ब्रह्मपुरे कार्तिकेयपुर ग्राम कस्समज्जाव्यस्ता च भू स्ंयम्वपुरे सुवर्ण्णकार पल्लिका (द)-

21- णुण्णा (दुण्णा) वृद्धपल्लिकाचन्द्रपल्लिका वि (बि) ल्वके जय भट पल्लिका वचाकरणं ग्रमो दीपपुर्या वृद्धतरी पल्लिका क्क्रोड शूर्प्प्या वर्द्धकि पल्लिकोष्ट्राल-

22- मकः (कोष्ट्रालमकः) कटकभृष्टी डिण्डिक पल्लिका चतुश्शालो रोहागल पल्लिका शोरायां बाहिरण्य पल्लिका चन्दुला कपल्लिका भट्टिपल्लिका-

23- कार्तिकेयपुरे अतिवलाक पल्लिका विशाखिल पल्लिका अरिष्टाश्रमः अवलीनकःसन्निरायां कोट्टतले पल्लिवाटकस्तुड्. गुलकर्म्मान्तः

24- पितृगंगातटे शीर्षरण्ययः कण्ठारपार्श्वः राजपुत्रकोद्वाल कर्व्वटको व (ब) हुग्रामसहित उत्तरपथः पश्चिमद्रोण्यांउदुम्व (म्ब) रवासः

25- गोहट्टवाटकः पुष्पदन्तिका वासन्ती वनकःकरवीरिका खोह्णावनको मल्ल वस्तुको मल्लिका शिवक कराभ शालिका दण्ड वासि वतो-

26- गोलथालकश्चेति तद्युष्माभिरमीषांप्रक्षेप प्रतिषेधौ न करणीयौ न चोपद्रवः कुटुम्वि(म्ब)नां कारुकाणांच कर्त्तव्यो (।।) यत्कुर्यात्स पंचमहापातक-(संयु)

27- क्तः स्यादिति। दूतकः सान्धिविग्रहिकः प्रमातार सूर्यदत्तः लिखितं दिविरपति विष्णुदासेन।

28- उत्कीर्ण्णन्यक्षराणि सौवण्णिंकानन्तेनेकि।

  -राज्य सं. 5 पौष दि. 30

द्युतिवर्मन का ताम्रपत्र : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन :-

भुज्यमान-

        पौरव शासक द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र की तेरहवीं पंक्ति का आरंभ ‘नुमति’ शब्द से हुई है। यह शब्द बारहवीं पंक्ति के अंतिम शब्द ‘शासना’ का शेषांश है। शासनानुमति के अतिरिक्त इस पंक्ति में दानेन, यथा, भुज्यमान, स्थान, परिमाण, नामान्याभिलेखयितु, मिति, यतो, मया, देवभक्त्या, पूर्वराजर्षीणां, यशो (ऽ) र्थ- आदि शब्दों का उल्लेख किया गया है। शासनानुमति, दान, यथा, स्थान, परिणाम, मिति, नाम, अन्य, अभिलेख, पूर्व राजा, यश और देवभक्त जैसे शब्द आज भी प्रचलन में है। लेकिन इस पंक्ति में ‘भुज्यमान’ एक विशेष शब्द है, जिसका अर्थ दान में दी गई भूमि का उपभोग करने से है।

         द्युतिवर्मन के तामपत्र की तेरहवीं पंक्ति में प्रयुक्त ‘भुज्यमान’ शब्द की भाँति चंद राजाओं द्वारा निर्गत ताम्रपत्रों से भूमि दान का उपभोग करने हेतु ‘भुचणि’ और ‘भुचाउणि’ शब्द का उल्लेख प्राप्त होता है। चंद ताम्रपत्र कुमाउनी भाषा में उत्कीर्ण है, जिनके अधिकांश शब्द संस्कृत से ही लिये गये हैं। छठी शताब्दी से लगभग सात-आठ सौ वर्षों के उपरांत संभवतः भुज्यमान का कुमाउनी अपभ्रंश भुचाउणि/भुचणि हो गया।

कर्मान्त-

        चौदहवीं पंक्ति में मात्मनश् च, पुण्य, अभिवृद्धये, वृषताप, शासनमिदं, दत्तम् (।।) यत्र, पशुकुलावदार, कर्म्मान्त, कोणकलिका, गंगा, ग्रामे और गुणेश्वरा शब्द उत्कीर्ण किये गये हैं। आत्म, पुण्य, अभिवृद्धि, वृष, ताप, शासन, दत्तम्, यत्र, कर्मान्त, गंगा, ग्राम और गुण जैसे अर्थ युक्त शब्द हैं। पशुकुलावदार तथा कोणकलिका को क्रमशः कर्मान्त और नदी से संबद्ध कर सकते हैं। डॉ. शिव प्रसाद डबराल ‘कर्मान्त’ को उद्योग धन्धों के अर्थ में प्रयुक्त करते हैं। कर्मान्त के शाब्दिक अर्थ को कर्म+अंत से भी संबद्ध कर सकते हैं।

         उत्तराखण्ड में नदियों को गंगा कहने की प्राचीन परम्परा रही है। कुमाउनी में कहावत है कि- ‘‘देवता देखण जागेश्वर, गंगा नाणी बागेश्वर,।’’ संभवतः कोणकलिका उत्तराखण्ड की एक नदी थी, जिसके तट पर गांव थे।

करवीर-

        पन्द्रहवीं पंक्ति में वलदीपकः, क्रय, करण, भूमि, भाग, सद्दितश्चोर, कटको, जम्बु, शालिका, पटल्य, तर, पर्वतक, भाविलान, करवीर, कोष्टा आदि शब्द उत्कीर्ण हैं। ‘वल’ संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ- मेघ या एक असुर होता है। दीपक, क्रय, करण, भूमि और भाग शब्द आज भी प्रचलन में हैं। ‘कटक’, ‘जम्बु’ और ‘शालि’ का अर्थ क्रमशः है- सेना, जामुन और धान। 

        करवीर संभवतः एक स्थान सूचक शब्द है। विद्वान करवीरपुर को कत्यूरी राज्य की राजधानी कार्तिकेयपुर (आधुनिक बैजनाथ, जनपद बागेश्वर) से संबद्ध करते हैं। विद्वानों का मानना है कि वर्तमान बैजनाथ का प्राचीन नाम करवीरपुर था। कालान्तर में कार्तिकेयपुर हो गया था। 

        नौवीं-दशवीं शताब्दी में करवीरपुर/कार्तिकेयपुर राज्य अस्तित्व में था, जिसकी पुष्टि ‘काव्य मीमांसा’ का रचयिता कन्नौज का राजदबारी कवि राजशेखर भी करता है। कार्तिकेयपुर का सबसे महान राजा ललितशूरदेव को माना जाता है, जिसके दो ताम्रपत्र चमोली के पाण्डुकेश्वर और एक ताम्रपत्र उत्तरकाशी के कण्डारा मंदिर से प्राप्त हो चुका है। इस राजा के पुत्र भूदेवदेव का शिलालेख बागेश्वर के बागनाथ मंदिर से प्राप्त हुआ था। इस अभिलेख को आधार तथ्य मानते हुए विद्वान वर्तमान बैजनाथ को करवीरपुर /कार्तिकेयपुर मान्य करते हैं, जो बागेश्वर से पश्चिम में 20 किलोमीटर दूरी पर गोमती के बायें तट पर स्थित है। बैजनाथ में गोमती के तट पर एक प्राचीन पुरास्थल है, जो कत्यूरी स्थापत्य में निर्मित 15 मंदिर समूह के लिए प्रसिद्ध है। 

        सोलहवीं पंक्ति के प्रथम शब्द गक्षीचरण में पंद्रहवीं पंक्ति के अंकित दो शब्द करवीर कोष्ट को संयुक्त करने पर ‘करवीर कोष्टागक्षीचरण’ वाक्यांश बनता है। इस पंक्ति के अन्य शब्द- ग्रामे, महासालो, वुरासिका, दन्तवनिकां, ज्योराणायां, चोरपानीयं, भग्नानूपमो, ड्ढभायां और पुटवनकः हैं। इस पंक्ति के प्रथम दो शब्दों से स्पष्ट होता है कि करवीर में कोष्टागक्षीचरण नामक एक ग्राम था। चोरपानी भी एक स्थान सूचक शब्द प्रतीत होता है, जिसकी पहचान पश्चिमी रामगंगा और कोसी नदी के अंतस्थ भू-भाग में स्थित चोरपानी (रामनगर) से कर सकते हैं। महासाल, वुरासिका और दन्तवनिकां को वनों के प्रकार से संबद्ध कर सकते हैं, जिनमें से साल हिमालय क्षेत्र की गर्म नदी घाटियों और भाबर क्षेत्र का प्रमुख वृक्ष है। 

गर्त्ता-

        सत्रहवीं पंक्ति में कर्क्कटस्थूणा, वंजाल्युत्तर, गंगा, कपिल, गर्त्ता, कोट, रवंजः, शिवमुषीच्यापुरी, दाडिमिका, शिंशपिका, दक्षिणं और पार्श्वे शब्द उत्कीर्ण हैं। इस पंक्ति में उल्लेखित वंजाल्युत्तर गंगा की पहचान नहीं हो पायी है। गर्त्ता को गर्त के रूप में लें तो, गर्त के अनेक अर्थों में एक अर्थ जलाशय भी होता है। अतः कह सकते हैं कि ब्रह्मपुर राज्य में कपिल मुनि के नाम से एक जलाशय था। लेकिन डॉ. शिव प्रसाद डबराल गर्त्ता को गाड़ से संबद्ध करते हैं। उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में लघु नदी/जल धारा को गाड़ कहते हैं। अतः ब्रह्मपुर राज्य की एक लघु नदी/जल धारा का नाम कपिल मुनि के नाम से था। इसी प्रकार इस ताम्रपत्र की अठारहवीं पंक्ति में करवीर गर्त्ता का उल्लेख किया गया है।

कोट-

        उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास से संबंधित विभिन्न अभिलेखों में यह पहला अभिलेख है जिसमें ‘कोट’ शब्द का उल्लेख किया गया है। मध्य हिमालय के विभिन्न स्थलों के नामकरण में ‘कोट’ को स्थान के नामान्त में प्रयोग करने की परम्परा थी। यथा- रणचुलाकोट, वनकोट, सिमलकोट, कचलाकोट, अस्कोट आदि। कोट का अर्थ- दुर्ग होता है। क्षेत्र विशेष की सुरक्षा हेतु चिह्नित स्थलों को ‘कोट’ कहा गया। ‘‘कोट की रक्षा एंव कोट में नियुक्त सेवकादि को नियन्त्रण में रखने का कार्य ‘कोटाधिकरण’ नामक अधिकारी को सौंपा जाता था।’’ पर्वतीय क्षेत्रां में कोट के आस पास युद्ध स्थल और मंदिर का विशेष महत्व था, जिससे कोट-संस्कृति की अवधारणा का विकास हुआ। इस संस्कृति का प्रभाव सदूर उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान से नेपाल तक दिखलाई देता है। कोट संस्कृति का व्यापक प्रभाव उत्तर भारत के पर्वतीय क्षेत्र पर अधिक था।

        पर्वतीय क्षेत्रों में दुर्ग के महत्व पर इतिहासकार मदन चन्द्र भट्ट लिखते हैं- ‘‘कोट जैसे ऊँचे व सुरक्षित स्थान से शत्रु सेना को पत्थर लुड़काकर नष्ट किया जा सकता था। युद्ध के दौरान की जाने वाली पत्थरों की बारिश ‘अश्मवृष्टि‘ कहलाती थी। पर्वतीय क्षेत्रों में प्रचलित पत्थर यु़द्ध या पाषाण का प्रयोग कर लड़ने वाले योद्धाओं को पाषाणयोधिनः कहा गया है।’’

पल्लिका-

        द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र की अठारहवीं से तेईसवीं पंक्ति तक ब्रह्मपुर के कुछ पल्लिकाओं का उल्लेख किया गया है। ‘पल्लिका’ संस्कृत का शब्द है, जिसका अर्थ ‘लघु ग्राम’ होता है। ब्रह्मपुर राज्य में ग्रामीण क्षेत्र को पल्लिका और ग्राम में विभाजित किया गया था। संभवतः कालान्तर में पल्लिका से पल्ली और पाली शब्द की व्युत्पत्ति हुई। मेरे पैतृक गांव जाख रावत, तहसील बेरीनाग, जनपद पिथौरागढ़ को ‘ग्यारहपल्ली’/‘ग्यारहपाली’ भी कहा जाता है। बागेश्वर जनपद के एक गांव का नाम पन्द्रहपाली है। अल्मोड़ा जनपद के चौखुटिया क्षेत्र (प्राचीन ब्रह्मपुर) को ब्रिटिश काल में परगना ‘पाली पछाऊँ’ कहा जाता था। अतः कह सकते हैं कि ‘पाली’ शब्दावली से संबंधित गांव प्राचीन ब्रह्मपुर राज्य के अवशेष हैं। द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र की अठारहवीं से तेईसवीं पंक्ति तक निम्नलिखित 17 पल्लिकाओं का नाम उत्कीर्ण है-

1- खण्डाक पल्लिका

2- श्रृगाल खोह्णका भूत पल्लिका

3- गोग्ग पल्लिका

4- वारुणश्रमः प्रभीला पल्लिका

5- सुवर्णकार पल्लिका

6- दुण्णावृद्ध पल्लिका

7- चन्द्र पल्लिका

8- बिल्वके जयभट पल्लिका

9- दीपपुर्या वृद्धतरी पल्लिका

10- क्क्रोड शूर्प्प्या वर्द्धकि पल्लिका

11- कटक भृष्टी डिण्डिक पल्लिका

12- चतुश्शालो रोहागल पल्लिका

13- शोरायां बाहिरण्य पल्लिका

14- चन्दुलाक पल्लिका

15- भट्टि पल्लिका

16- कार्तिकेयपुरे अतिवलाक पल्लिका

17- विशाखिल पल्लिका

         पल्लिका के अतिरिक्त अठारहवीं पंक्ति में करवीर गर्त्ता, उन्नीसवीं पंक्ति में नारायण, देवकुलकला तथा बीसवीं पंक्ति में ब्रह्मपुरे कार्तिकेयपुर ग्राम का भी उल्लेख किया गया है। इतिहासकार करवीरपुर को कार्तिकेयपुर भी कहते हैं। बीसवीं पंक्ति में उल्लेखित ‘ब्रह्मपुर कार्तिकेयपुर ग्राम’ वाक्यांश से स्पष्ट होता है कि उत्तराखण्ड में एक से अधिक कार्तिकेयपुर थे। जबकि तेईसवीं पंक्ति में कार्तिकेयपुरे अतिवलाक पल्लिका का उल्लेख किया गया है।

पितृ गंगा-

चौबीसवीं पंक्ति में पितृ गंगा, तटे, शीर्षरण्ययः, कण्ठार पार्श्वः, राजपुत्र, कोद्वाल, कर्वटको, बहुग्राम, सहित, उत्तरपथः, पश्चिम, द्रोण्यांउदुम्ब, रवासः आदि शब्दों का उल्लेख किया गया है। पच्चीसवीं पंक्ति में गोहट्ट, वाटकः, पुष्प दन्तिका, वासन्तीवनकः, करवीरिकाखोह्णा, वन, कोमल, वस्तु, कोमल्लिका, शिव, ककराभ, शालिका, दण्ड, वासिवतो- आदि शब्दों को उत्कीर्ण किया गया है।

पंचमहापातक-

        छब्बीसवीं पंक्ति में गोल, थाल, कश्चेतित, द्युष्माभिरमीषां, प्रक्षेप, प्रतिषेधौ, न करणीयौ, न चोपद्रवः, कुटुम्बिनां, कारुकाणां, च कर्त्तव्यो (।।) यत्कुर्यात्स पंचमहापातक- (संयु) आदि शब्दों का उल्लेख किया गया है। ‘पंचमहापातक’ शब्द पंच+महा+पातक के संधि से बना है जहाँ ‘पातक’ का अर्थ ‘पाप’ या नीचे गिरने वाला होता है। ‘पंचमहापातक’ संस्कृत का पुल्लिंग शब्द है, जिसका अर्थ ‘पांच प्रकार के महापाप’ होता है। हिन्दू धर्म शास्त्रों द्वारा वर्णित पांच प्रकार के महापाप-

1- ब्रह्महत्या।

2- सुरापान।

3- चोरी।

4- गुरु-स्त्री गमन।

5- उक्त चार पातकों को करने वाले का संसर्ग।

सूर्यदत्त और विण्णुदासेन-

        सत्ताईसवीं पंक्ति में तीन राज्य पदों दूतक, सान्धिविग्रहिक और प्रमातार पर नियुक्त सूर्यदत्त तथा ताम्रपत्र के लेखक (दिविरपति) विष्णुदासेन का नाम उत्कीर्ण है। गुप्त प्रशासन की भाँति एक व्यक्ति को एक से अधिक राज्य पदों पर नियुक्त करने की परम्परा पौरव राज्य में भी थी। गुप्त काल की भाँति ब्रह्मपुर राज्य में लेखन विभागाध्यक्ष को ‘दिविरपति’ कहा जाता था। जबकि कन्नौज नरेश हर्ष और कार्तिकेयपुर राज्य के ताम्रपत्रों में दिविरपति के स्थान ‘‘महाक्षपटलाधिकरणधिकृत’’ नामक राज्य पदाधिकारी का उल्लेख किया गया है।

        अट्ठाईसवीं पंक्ति में उत्कीर्ण, न्यक्षराणि और सौवण्णिंकानन्तेनेकि शब्दों का उल्लेख किया गया है। अर्थात ताम्रपत्र ‘‘उत्कीर्णकर्ता सुवर्णकार अनन्त।’’ ताम्रपत्र टंकणकर्ता सुवर्णकार आरंभिक चंद ताम्रपत्रों में ‘सुदार’ और परवर्ती चंद ताम्रपत्रों में ‘सुनार’ हो गया। -राज्य सं. 5 पौष दि. 30

सारांश- 

द्युतिवर्मन के तालेश्वर ताम्रपत्र की अंतिम सोलह पंक्तियों में दानपत्र के उपभोग (भुज्यमान), लघु ग्राम (पल्लिका), पर्वतीय दुर्ग (कोट) एवं दुर्ग संरक्षक (कोटाधिकरण), दूतक, सान्धिविग्रहिक और प्रमातार का उल्लेख किया गया है। महत्वपूर्ण स्थलों में करवीर और कार्तिकेयपुर (कत्यूरी राज्य की राजधानी) तथा नदियों में पितृ गंगा, वंजाल्युत्तर गंगा और कोणकलिका गंगा का उल्लेख किया गया है। यह तामपत्र पंचमहापातक का उल्लेख करता है। समग्ररूप से इस ताम्रपत्र की उपरोक्त पंक्तियां ब्रह्मपुर के व्यवस्थित और सुरक्षित राज्य होने की पुष्टि करता है।




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