चंद राजा विक्रमचंददेव (सन् 1423-1437 ई.) -ः

 चंद राजा विक्रमचंददेव (सन् 1423-1437 ई.) -ः

     मध्य हिमालय में कुमाऊँ राज्य की स्थापना का श्रेय चंद राजवंश को जाता है। चंदों से पूर्व कुमाऊँ राज्य उत्तर कत्यूरी शासकों में विभाजित था। कत्यूरी राज्य का विभाजन वर्ष सन् 1279 ई. को माना जाता है, जब कत्यूरी त्रिलोकपाल के पुत्र अभयपाल कत्यूर से अस्कोट चले गये। इस कालखण्ड में कत्यूरी वंशजों का राज्य द्वाराहाट, बैजनाथ, गंगोली, अस्कोट, सोर तथा डोटी तक विस्तृत था। चंपावत के चंद शासक उत्तर कत्यूरियों के अधीनस्थ थे। कुमाऊँ में चंद राज्य का आरंभिक सत्ता केन्द्र चंपावत था। चंपावत नगर के निकट राजबूंगा चंद राज्य की आरंभिक राजधानी थी। इस वंश के संबंध में कहा जाता है कि इनके वंश मूल पुरुष ने कन्नौज से मध्य हिमालय क्षेत्र में आव्रजन किया था। कन्नौज सातवीं से बारहवीं शताब्दी तक उत्तर भारत का सत्ता केन्द्र था। चंपावत में चंद वंश को पूर्ववर्ती और परवर्ती चंदों में विभाजित किया जाता है। परवर्ती चंद राज्य के संथापक थोहरचंद थे। इनके वंशज गरुड़ ज्ञानचंद के ताम्रपत्रों से स्पष्ट होता है कि वे एक स्वतंत्र शासक थे। गरुड़ ज्ञानचंद ने स्वतंत्र शासक की उपाधि ‘महाराजाधिराज’ धारण की थी, जिसकी पुष्टि उसके प्रकाशित ताम्रपत्र करते हैं। इस राजा का राज्य क्षेत्र चंपावत से सोर राज्य (पिथौरागढ़) तक विस्तृत था। गरुड़ ज्ञानचंद और सोर के बम शासकों के ताम्रपत्रों से स्पष्ट होता है कि सोर के बम शासकों ने गरुड़ ज्ञानचंद की अधीनता स्वीकार कर ली थी। चंदों के प्रकाशित ताम्रपत्रों के आधार गरुड़ ज्ञानचंद का शासनकाल सन् 1389 से 1422 ई. तक अवश्य था।

    गरुड़ ज्ञानचंद के मृत्यूपरांत चंद राजगद्दी पर क्रमशः उद्यानचंद, हरिश्चंद और विक्रमचंद बैठे। उद्यानचंद और हरिश्चद का शासन कुछ माह का था। राजसत्ता की अस्थिरता के मध्य विक्रमचंद, चंद राजसिंहान पर बैठने में सफल रहे। इस राजा का शासन भी सोर तक विस्तृत था। इस राजा ने सन् 1423 से 1437 ई. तक लगभग चौदह वर्ष शासन किया। पारिवारिक सत्ता संषर्घ में हरिश्चंद के पौत्र भारतीचंद ने विक्रमचंद को पराजित कर दिया। विक्रमचंद के संबंध में अग्रलिखित जानकारी प्राप्त होती है-

एडविन थॉमस एटकिंसन ने ‘हिमालयन गजेटियर’ में राजा विक्रमचंद के संबंध में निम्नलिखित जानकारियां दीं हैं-

1- ‘‘वर्ष 1423 में विक्रमचंद अपने पिता के स्थान पर गद्दी पर बैठा और बालेश्वर मंदिर की मरम्मत का जो काम उद्यानचंद ने शुरू किया था उसे पूरा कराया।’’

2- ‘‘ऊँ श्रीगणेशाय नमः। शक संवत 1345 में विष्णु के उत्तर श्यन में आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष व देव नक्षत्र में सोमवार को पृथ्वीपति एवं मकुट शिरोमणि प्रतिज्ञापूर्वक कूर्म नाम के जनपद में चम्पावत में......भूमि कुंजेशर्मा ब्राह्मण और मायासेरी को दान करते हैं।....पृथ्वीपति विक्रमचंद सच्चे कल्पद्रुम हैं जिनकी तलवार के भय से अनेकानेक नरेश उनकी सेवा में उपस्थित रहते हैं। उन्होंने क्राचल्ल द्वारा दी गई समस्त भूमि गीरीबों को दे दी और ध्वंस मंदिरो का उसी तरह मरम्मत कराने की बीड़ा उठाया जिस तरह हरि ने नाग-लोक से पृथ्वी का निर्माण। दाननामे के गवाह हैं- मधु, सेज्याल, प्रभु, विष्णु, जदुमद्गाणि, वीरसिंह गणभारी और जैलू बठयाल। पटनवीस रुद्र शर्मा द्वारा लिखा गया। शुभाम् रैचु.... यह करारनामा रामपाटनी ने बनाया।’’ 

3- ‘‘हमारे पास एक और दाननामा है, जो 1424 ईस्वी में विक्रमचंद ने कुलोमणि पांडे को एक गांव दान करते समय किया था। अपने शासन के अंतिम दिनों में विक्रमचंद ने राज-काज पर ध्यान देना कम कर दिया, जिससे उसके भतीजे को विद्रोह करने का मौका मिला और वह खसिया आबादी को अपनी तरफ करने में कामयाब रहा। खसियों का एक नेता शोर, बहादुर और इरादों का पक्का था। उसने विक्रमचंद का तख्ता पलट कर भारतीचंद को सिंहासनारूढ़ कराया, जिसके बदले में भारतीचंद ने उसे मलासगांव पुरस्कार के रूप में दिया।’’

इतिहासकार बद्रीदत्त पाण्डे अपनी पुस्तक ‘कुमाऊँ का इतिहास’ में राजा विक्रमचंददेव के बारे में निम्नलिखित जानकारियां दी हैं-

1- ‘‘राजा हरीचंद (2) के बाद राजा विक्रमचंद गद्दी पर बैठे। इनके समय का एक ताम्रपत्र बालेश्वर-मंदिर की बाबत है।’’

2- ‘‘राजा गरुड़ज्ञानचंद के समय बहुत मार-काट हुई। प्रजा चंद राजाओं के अत्याचारों से रुष्ट व दुःखी हो गई थी। इससे उन पापों के प्रायश्चित स्वरूप राजा के पुत्र-पौत्रों ने धार्मिक कार्यों को कर, लोगों को शान्त काने की ठानी।’’

3- ‘‘विक्रमचंद ने आरंभ में धार्मिक कार्य करके अन्तकाल में राजकाज छोड़ भोग-विलास में मन लगाया। इस पर उनके भतीजे भारती ने खस-जाति के लोगां को अपनी ओर कर, राज-विद्रोह का झंडा खड़ा किया।’’

4- ‘‘खस लोगां का नेता श्रीशौड़ करायत था जो उस समय एक बड़ा बहादुर तथा प्रभावशाली पुरुष था। उसने विक्रमचंद को मार भगाया और मलास गांव जागीर में पाया।’’ शौड़ करायत के बारे में एक प्राचीन लेख इस प्रकार है- 

‘‘शौड़ करायत को चेलो थर्प की भीड़ी हाली मारो,

शौड़ करायत लै सब बिसुंग कुमय्यां मिलाया राजा थाप मारी खेदी दियो।’’,

(अर्थात शौड़ करायत के पुत्र को राजा विक्रमचंद ने दुर्ग से फेंक कर मार डाला, तब शौड़ करायत ने बिसुंग के लोगों को एकत्र कर राजा को दुर्ग से भगा दिया।) ब्रिटिश काल में बिसुंग चम्पावत की एक पट्टी थी, जहाँ मुख्यतः महर, फर्त्याल, देव, ढेक और करायत क्षत्रिय निवास करते थे।

5-  ‘‘14 वर्ष राज्य कर विक्रमचंद को राज्य छोड़ भागना पड़ा।’’

उक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि राजा विक्रमचंद सन् 1423 ई. में चंद सिंहानारूढ़ हुए और लगभग 14 वर्ष राज्य करने के पश्चात भारतीचंद और शौड़ करायत के नेतृत्व में हुए विद्रोह के कारण उसे सन् 1437 ई. में राज्य छोड़कर भागना पड़ा। प्रकाशित ताम्रपत्र शाके 1345 के अनुसार विक्रमचंद कल्पद्रुम के समान थे। उसने अपनी तलवार से बड़े-बड़े शासकों को जीता और क्राचल्लदेव ने जो भूमि प्रदान की थी, उसको इन्होंने भी सुरक्षित रखा। क्राचल्लदेव नेपाल के दुलु राज्य के शासक थे, जिन्होंने अपना लेख कार्तिकेयपुर नरेश पद्मटदेव के ताम्रपत्र के पृष्ठ भाग में उत्कीर्ण करवाया था। यह ताम्रपत्र चंपावत के बालेश्वर मंदिर से प्राप्त होने के कारण ‘बालेश्वर ताम्रपत्र’ कहलाता है। दुलु राजा क्राचल्ल ने इस लेख को सन् 1223 ई. में उत्कीर्ण करवाया था। इस ताम्रपत्र में दस स्थानीय राजाओं का उल्लेख किया गया है, जो क्राचल्ल के अधीनस्थ थे। क्राचल्ल ने जो भूमि बालेश्वर मंदिर को प्रदान की थी, उस भूमि को राजा विक्रमचंद ने 200 वर्षों के पश्चात भी मंदिर के लिए सुरक्षित रखा था। 

    बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार चंद राजा ज्ञानचंद के पश्चात पुत्र हरिहरचंद के बाद पुत्र उद्यानचंद राजा हुए। उद्यानचंद के बाद आत्मचंद शासक हुए। आत्मचंद के बाद पुत्र हरीचंद द्वितीय और हरीचंद द्वितीय के उपरांत राजा विक्रमचंद गद्दी पर बैठे। ‘‘पंडित रामदत्त ज्योतिर्विद्जी लिखते हैं कि किसी वंशावली में यह लिखा है कि कत्यूरी राजाओं ने अपनी लड़की राजा उद्यानचंद को ब्याही थी और चार पट्टियां ‘दे’, ‘अस्सी’, ‘चालसी’ ‘रंगोड़’ दहेज में दीं।’’ ये पट्टियां ब्रिटिश कालीन चम्पावत की पट्टियां थीं

    चंद शासक विक्रमचंद के प्रकाशित ताम्रपत्र (शाके 1345 या सन् 1423 ई.) में उनकी उपाधि ‘राजा’ उत्कीर्ण है। इस आधार पर कह सकते हैं कि सन् 1423 ई. में जब विक्रमचंद सिहासनारूढ़ हुए तो वे एक अधीनस्थ शासक थे। जबकि प्रकाशित ताम्रपत्र शाके 1344 या सन् 1422 ई. से स्पष्ट होता है कि विक्रमचंद के पूर्ववर्ती राजा ज्ञानचंद की उपाधि ‘राजाधिराज महाराज’ की थी। इस ताम्रपत्र में ‘सोर’ (वर्तमान पिथौरागढ़ नगर) शासक विजयब्रह्म का नाम भी उत्कीर्ण है, जिन्हें सोर के बम राजवंश से संबद्ध किया जाता है। राजाधिराज महाराज ज्ञानचंद का उत्तराधिकारी विक्रमचंद सन् 1423 ई. में एक अधीनस्थ शासक कैसे हो गया ? कारणों की समीक्षा आवश्यक है-

    राजा ज्ञानचंद के प्रकाशित ताम्रपत्र शाके 1344 से स्पष्ट होता है कि यह राजा सन् 1422 ई. तक चंद सिंहासन पर विराजमान था। प्रकाशित चंद ताम्रपत्र इस तथ्य को बल प्रदान करते है कि अल्प समयावधि हेतु ज्ञानचंद के पश्चात उद्यानचंद शासक हुए। राजा ज्ञानचंद से संबंधित सलौनी ताम्रपत्र (शाके 1344) आश्विन तथा विक्रमचंद का चंपावत ताम्रपत्र (शाके 1345) आषाढ़ माह में निर्गत किया गया था। आश्विन शाके 1344 से आषाढ़ शाके 1345 के मध्य मात्र नौ महिनों के अंतराल में अनेक चंद उत्तराधिकारियों के नाम प्राप्त होते हैं। बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘राजा गरुड़ज्ञानचंद ने 45 वर्ष राज्य कर संवत् 1476, शाके 1341, तद्नुसार सन् 1419 में इस संसार को छोड़ दिया। उनके पुत्र कुँ0 हरिहरचंद गद्दी पर बैठै।’’ जबकि राजा ज्ञानचंद के वंशज भारतीचंद के गुमदेश (चंपावत) ताम्रपत्र (शाके 1366) में चंद वंशावली इस क्रम में उत्कीर्ण है- ज्ञानचंद- ध्यानचंद (पुत्र)- धर्मचंद (पुत्र)- हरिश्चंद (भ्राता)- प्रतापचंद (पुत्र) -भारतीचंद (पुत्र)। इस ताम्रपत्र में भारतीचंद ने अपनी वंशावली में विक्रमचंद का उल्लेख नहीं किया। जबकि बद्रीदत्त पाण्डे द्वारा उल्लेखित वंशावली का क्रम इस प्रकार से है- ज्ञानचंद - हरिहरचंद (पुत्र) - उद्यानचंद (पुत्र) - आत्मचंद (स्पष्ट नहीं) - हरीचंद (पुत्र) - विक्रमचंद (पौत्र उद्यानचंद) - भारतीचंद (विक्रमचंद का भतीजा)।

बद्रीदत्त पाण्डे और भारतीचंद की ताम्र-वंशावली से स्पष्ट होता है कि राजा विक्रमचंद, धर्मचंद के पुत्र और उद्यानचंद के पौत्र और ज्ञानचंद के पड़पौत्र थे। जबकि भारतीचंद, धर्मचंद के भाई हरिश्चंद के पौत्र और प्रतापचंद के पुत्र थे। इन्हीं संबंधों के अनुक्रम में भारतीचंद, विक्रमचंद के भतीजे हो सकते हैं। राजा ज्ञानचंद के पश्चात नौ माह के अंतराल में ध्यानचंद, धर्मचंद, हरिश्चंद और विक्रमचंद आदि का शासक होना (तीन पीढ़ियों) एक दुरूह घटना प्रतीत होती है। भारतीचंद की वंशावली से स्पष्ट होता है कि उन्होंने अपने चचेरे पितामह धर्मचंद का उल्लेख वंशावली में अपने पितामह हरिश्चंद से पहले किया। इस प्रकार उद्यानचंद के अल्प शासन के पश्चात धर्मचंद ने अवश्य शासन किया था। अन्यथा भारतीचंद को उनका नाम ताम्रपत्र में उत्कीर्ण करवाने की आवश्यकता नहीं थी। संभवतः उद्यान चंद की कुछ माह शासन करने के उपरांत मृत्यु हो गयी और उनके पश्चात इस राजा के ज्येष्ठ पुत्र धर्मचंद चंद राजसिंहासन पर बैठे। सत्ता परिवर्तन के अल्प कालखण्ड से स्पष्ट होता है कि कुछ ही दिनों में धर्मचंद की आकस्मात मृत्यु हो गई और उनके भाई हरिश्चंद चंद सिंहानारूढ़ हुए। संभवतः हरिश्चंद ने ही अपने भतीजे विक्रमचंद को अपना अधीनस्थ शासक नियुक्त किया। इसलिए चंपावत ताम्रपत्र शाके 1345 या सन् 1423 में विक्रमचंद की उपाधि राजा उत्कीर्ण थी।

    प्रकाशित ताम्रपत्र शाके 1356 या सन् 1434 में राजा विक्रमचंद का नाम ‘‘विक्रमचंददेव’’ तथा उपाधि ‘राजाधिराज महाराज’ उत्कीर्ण है। इस ताम्रपत्र के आधार पर कह सकते हैं कि चंद राजा हरिश्चंद की मृत्यु सन् 1423 से 1434 के मध्य कालखण्ड में हुई। चाचा हरिश्चंद की मृत्यूपरांत राजा विक्रमचंद ने चंद सत्ता पर पूर्णतः अधिकार कर लिया और राजाधिराज महाराज की उपाधि धारण की। संभवतः राजा हरिश्चंद की मृत्यूपरांत विक्रमचंद पारिवारिक सत्ता संघर्ष में विजय हुए। अतः बद्रीदत्त पाण्डे द्वारा उल्लेखित वंशावली में भारतीचंद के पिता प्रतापचंद पुत्र हरिश्चंद का उल्लेख राजा के रूप में नहीं किया गया है। इस पारिवारिक सत्ता संघर्ष के अंत में भारतीचंद सन् 1437 ई. में विजय हुए।

विक्रमचंद के प्रकाशित ताम्रपत्र शाके 1356 का आरंभ ‘श्री गणेशायः नमः’ से होता है। जबकि इस राजा का आरम्भिक ताम्रपत्र शाके 1345 या सन् 1423 ई. से ज्ञात होता है कि जब वे राजा थे, तो चंद परम्परा के अनुसार ताम्रपत्र का आरंभ ‘‘ओ3म् स्वस्ति’’ से किया गया। लेकिन जब इस राजा ने महाराजा की उपाधि धारण की तो उसने ताम्रपत्र का आरंभ श्री गणेशाः नमः से करवाया। चंद इतिहास में विक्रमचंद एक मात्र चदं राजा थे, जिन्होंने श्री गणेशाः नमः’ को अपने ताम्रपत्र के प्रारंभ में प्रयुक्त किया। तथा वे राजाधिराज महाराज की उपाधि धारण कर अपने नाम के अंत में ‘देव’ उपाधि को भी धारण करने वाले प्रथम चंद राजा थे। विक्रमचंददेव के इस ताम्रपत्र से चार थान, चार बूढ़ा, बाइस सास जैसे आरम्भिक चंद प्रशासनिक पदाधिकारियों का भी उल्लेख प्राप्त होता है। गरुड़ ज्ञानचंद के शासन काल से उपेक्षित स्थानीय कठायत क्षत्रपों का समर्थन प्राप्त करने में विक्रमचंददेव सफल रहे थे।

    सन् 1423 ई. में जब विक्रमचंद की उपाधि राजा की थी, तो ताम्रपत्र में उनका नाम मात्र ‘विक्रमचंद’ उत्कीर्ण था। सन् 1434 ई. तक उन्होंने राजाधिराज महाराजा की उपाधि धारण कर ली थी और नाम के अंत में ‘देव’ उपाधि को धारण करना यह संकेत करता है कि विक्रमचंद का संबंध कत्यूरी राजवंश से अवश्य था। क्योंकि मध्य हिमालय में चंदों से पूर्व कत्यूरी शासक ही देव उपाधि धारण करते थे। इस तथ्य के अतिरिक्त एकान्य तथ्य का उल्लेख बद्रीदत्त पाण्डे करते हैं कि राजा उद्यानचंद का विवाह कत्यूरी राजवंश में हुआ था। दहेज में चार पट्टियां दे, अस्सी, चालसी तथा रंगोड़ प्राप्त हुए थे। नाम के अंत में देव तथा पितामह का कत्यूरियों के साथ वैवाहिक संबंध से चंद राजा विक्रमचंद का कत्यूरी राजवंश से निकट का संबंध अवश्य था। चंद ताम्रपत्रों का आरम्भ सामान्यतः ओ3म् स्वस्ति से करने की परम्परा थी। लेकिन विक्रमचंद ने ‘श्रीगणेशाः नमः’ से ताम्रपत्र का आरम्भ करवाकर चंद-ताम्रपत्र लेखन परम्परा को आंशिक रूप से परिवर्तित करने का प्रयास किया। प्राचीन गंगोली राज्य (सरयू-पूर्वी रामगंगा अंतस्थ क्षेत्र) के उत्तर कत्यूरी शासक रामचंद्र (सन् 1264-1275) का एक शिलापट्ट अभिलेख गंगोलीहाट के जाह्नवी नौले के प्राचीर पर गढ़ा है। इस अभिलेख का आरम्भ ‘गणेश’ से ही किया गया है। अतः विक्रमचंद ने पारिवारिक संबंधों के अंतर्गत ही ताम्रपत्र लेखन में कत्यूरियों का अनुकरण किया।

    विक्रमचंद के भतीजे भारतीचंद के ताम्रपत्र शाके 1366 में जो वंशावली दी हुई है, उसमें विक्रमचंददेव का नाम न होना यह प्रमाणित करता है कि हरिश्चंद की मृत्यूपरांत चंद राजसत्ता के लिए संघर्ष हुआ। इस सत्ता संघर्ष ने चंद राजवंश को दो धड़ों में विभाजित हो गया। विक्रमचंद, जो सन् 1423 ई. में राजा की उपाधि से विभूषित थे ने राजा हरिश्चंद की मृत्यूपरांत चम्पावत के राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। दूसरा धड़ा भारतीचंद के पिता प्रतापचंद का था, जिनका उल्लेख शाके 1366 के ताम्रपत्र से प्राप्त होता है। संभवतः इन्होंने चंपावत के पश्चिम में स्थित चौगर्खा को सत्ता का केन्द्र बनाया, जिसे इनके पितामह उद्यानचंद ने विजित किया था। 

    विक्रमचंद का सोर (पिथौरागढ़ नगर) पर अधिकार था। इसका प्रमाण प्रकाशित शाके 1349 या सन् 1427 का ताम्रपत्र करता है, जिसे सोर राजा विजयब्रह्म ने भूमिदान करने हेतु निर्गत किया था। इस ताम्रपत्र के साक्षी वही लोग थे, जो ज्ञानचंद के शाके 1344 या सन् 1422 ई. के ताम्रपत्र के साक्षी थे। जैसे-हरिब्रह्म, देवाकर उप्रेति, नारसिंग विष्ट आदि। ज्ञानचंद के एक अन्य ताम्रपत्र शाके 1342 या सन् 1320 ई. से सहयोगी दानकर्त्ता के रूप में उनके साथ राजा विजयब्रह्म का नाम भी प्राप्त होता है। सोर शासक विजयब्रह्म ने राजा की उपाधि धारण की थी, जो चंद शासकों- ज्ञानचंद, उद्यानचंद, धर्मचंद, हरिचंद और विक्रमचंद के अधीनस्थ थे। ज्ञानचंद और विजयब्रह्म के ताम्रपत्र इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि ज्ञानचंद से विक्रमचंद के कालखण्ड में चंद राजसत्ता में जो निरन्तर परिवर्तन हुए उनका प्रभाव प्रांत स्तरीय शासन में नहीं दिखलाई दिया। सोर के ‘बम’ शासकों को कत्यूरियों की एक शाखा का माना जाता है, जिनका संबंध डोटी के मल्ल राजवंश था। 

    उक्त विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि विक्रमचंद आरंभ में अपने चाचा हरिश्चंद के अधीनस्थ शासक थे। अपने पिता धर्मचंद की आकस्मिक मृत्यु के समय विक्रमचंद संभवतः अल्प-वयस्क था। इसी कारण चंद सिंहासन पर हरिश्चंद को बैठाया गया। लेकिन हरिश्चंद की मृत्यूपरांत स्थानीय क्षत्रपों की सहायता से विक्रमचंद स्वतंत्र शासक बन गये। इस चंद राजा का राज्य चंपावत से पिथौरागढ़ तक विस्तृत था। संभवतः पारिवारिक सत्ता संघर्ष में हरिश्चंद के पुत्र प्रतापचंद और पौत्र भारतीचंद ने उनका निरन्तर विरोध किया। पारिवारिक विरोध के उपरांत भी विक्रमचंद ने लगभग 14 वर्षों तक शासन किया। अपने शासकीय कालखण्ड में उन्होंने बालेश्वर मंदिर का पुनरोद्धार किया, जिसे दशवीं शताब्दी में कत्यूरियों ने निर्मित किया था। इस राजा ने नाम के अंत में ‘देव’ उपाधि और ताम्रपत्रों का आरम्भ श्री गणेशाः नमः से करवा कर कत्यूरियों का अनुकरण करने का प्रयास किया। पारिवारिक सत्ता संघर्ष में भतीजे भारतीचंद ने शौड़ करायत की सहायता से विक्रमचंद को पराजित कर दिया। संभवतः विक्रमचंद ने डोटी राज्य में शरण लीं और इस कारण डोटी और भारतीचंद के मध्य बारह वर्षीय युद्ध हुआ।


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