चार चौधरी : मध्य कालीन ग्रामीण पंचायत व्यवस्था

 ‘चार चौधरी’ : मध्य कालीन ग्रामीण पंचायत व्यवस्था 

    सम्पूर्ण कुमाऊँ के प्रथम चंद राजा रुद्रचंददेव थे। इस चंद राजा ने यह महान उपलब्धि सन् 1581 ई. में काली और पूर्वी रामगंगा अंतस्थ क्षेत्र में स्थित सीराकोट को विजित कर प्राप्त की। इस विजय के साथ सम्पूर्ण कुमाऊँ राज्य चंद वंश के अधीन आ गया, जिनकी राजधानी मात्र अठारह वर्ष पहले चंपावत से अल्मोड़ा स्थानान्तरित हुई थी। तब से चंद वंशज अल्मोड़ा के चंद कहलाये। सीरकोट पर डोटी के मल्ल राजा हरिमल्ल का अधिकार था, जो रुद्रचंद के ‘मामा’ थे। सीराकोट को विजित करते ही अस्कोट राज्य के कत्यूरी वंशज राजा रायपाल चंदों के अधीनस्थ हो गये। अस्कोट के कत्यूरी वंशज नामान्त में ‘पाल’ उपाधि धारण करते थे और इस वंश के राजकुमार ‘रजवार’ कहलाते थे। अस्कोट के पाल राजवंश से रुद्रचंद ने वैवाहिक संबंध स्थापित कर सीराकोट क्षेत्र में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली थी और सरयू-काली के अंतस्थ क्षेत्र को रजवारों को दे दिया। सन् 1581 के उपरांत अस्कोट के रजवारों ने सरयू-काली अंतस्थ क्षेत्र पर अधीनस्थ शासक या सामन्त के रूप में राज्य किया। 

    सरयू-काली अंतस्थ क्षेत्र में प्राचीन सोर, सीरा और गंगोली राज्य सम्मिलित थे। चंद राजा रुद्रचंद के अंतिम वर्ष या सन् 1597 ई. का एक ताम्रपत्र प्राचीन गंगोली राज्य के किरौली गांव (वर्तमान में बेरीनाग तहसील) से प्राप्त हुआ है। यह ताम्रपत्र सन् 1999 ई. में अमर उजाला अखबार में प्रकाशित हुआ। इस ताम्रपत्र की प्रथम पाँच पंक्तियां-

श्री शाके 1519 मासानि वैशाख 7 गते

सोमवासो श्री राजाधिराज आनन्द चन्द

रजवार पाय बड़ाऊ माज केराउलि गाउ

केशव पंत दीनु केशव पंत ले पाया कै दिनु

देउल पुज कि पाठि कै पायो केराउलि गाउ

लगदि गाउ बगड़ि लेक इजरि रौत कै पायो

    अर्थात शाके 1519 के बैशाख माह के सातवें दिन, सोमवार को श्री राजाधिराज आनन्दचन्द रजवार ने बड़ाऊँ के केराउलि (किरौली) गांव को केशव पंत को दिया। केशव पंत ने देवता की पूजा-पाठ के कारण किरौली गांव, लग गांव, नदी तटवर्ती भूमि और पर्वतीय वन भूमि रौत (जागीर) के लिए पाया।

किरौली (शाके 1519) ताम्रपत्र की अंतिम सात पंक्तियां-

सर्वकर अकरो सर्वदोष निर्दोष कै मीण

खिन राईश गुंशाई पिरु गुंशाई खड़कु गंशाई

चार चौधरीक पुरु बिष्ट शालिवाण वाफिलो

केद कार्की सुर्त्ताण कार्की ’’शुभम्’’

भूमि यः प्रतिगृहणाति यश्च भूमि प्रयछति।

उभौ तौ पुण्य कर्माणो नियतं स्वर्ग गानिनौ।।

लेखित वैकुण्ठ पंडितेन

     इस ताम्रपत्र के साक्षियों में चार चौधरियों का उल्लेख किया गया है। इनमें दो चौधरी ’कार्की’ शेष दो चौधरी वाफिला (बाफिला) और बिष्ट थे। रजवार शासन के अंतर्गत सन् 1597 ई. में गंगोली राज्य में ’चौधरी’ ग्राम स्तर का एक राज्य पद था, न कि एक जाति। जबकि चंपावत के चंद राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत इतिहासकारों ने ‘चौधरी को एक जाति मान्य कर ‘चार बूढ़ा’ की चार जातियों में सम्मिलित किया। गंगोली के रजवार शासकों के प्राप्त एवं प्रकाशित हो चुके किरौली (सन् 1597 ई.) और गणाई (1610 ई.) ताम्रपत्र ’चौधरी’ को एक राज्य पद के रूप में स्थापित करते हैं। चंद कालीन राज्य प्रशासनिक व्यवस्था के कई दीर्घकालीन राज्य पद धीरे-धीरे जाति रूप में रूपान्तरित हो आज भी अस्तित्व में हैं। यथा- ’बिष्ट’, अधिकारी, नेगी, सेज्वाली, म्यांन, रौतेला, कुँवर, गुसाईं, रावत आदि।

    चार बूढ़ा चंद काल में प्रशासनिक पद या सामंती पद था। गंगोली के किरौली और गणाई ताम्रपत्रों के ‘चार चौधरी’ के आधार पर ’चार बूढ़ा’ में कार्की, बोरा, तड़ागी, चौधरी जाति से ही संबद्ध करना उचित नहीं है। समय-समय पर इन पदों पर भिन्न-भिन्न जातियों का अधिकार रहा था। किरौली ताम्रपत्र (शाके 1519) के चार चौधरी- पुरु बिष्ट, शालिवाण वाफिलो, केद कार्की और सुत्तार्ण कार्की तथा गणाई ताम्रपत्र (शाके 1532) के चार चौधरी- पुरु गुसाई, संग्राम राउत, शिवराज मतोषु और लुमन एक दूसरे से जातिगत भिन्नता को प्रकट करते हैं। गणाई ताम्रपत्र के प्रकाशित लेख में अस्पष्टता के कारण चार चौधरियों में से अंतिम दो की जातिगत पहचान नहीं कर सकते हैं। लेकिन गणाईं ताम्रपत्र के प्रथम चौधरी पुरु गुसाईं और किरौली ताम्रपत्र के चार चौधरियों में से एक सुत्तार्ण कार्की संभवतः सन् 1621 से 1625 तक अल्मोड़ा में हुए राजाषड्यंत्रों के पीरू गुसाई और सुमतु कार्की/शकराम कार्की थे।

    किरौली ताम्रपत्र के चार चौधरियों में दो चौधरी केद और सुत्तार्ण की जाति कार्की तथा शेष दो चौधरी शालिवाण बाफिला और पुरु बिष्ट थे। आज भी ताम्रपत्रोल्लेखित किरौली गांव में पंत तथा आस पास के गांवों में उक्त चारों चौधरियों के वंशज निवास करते हैं। जैसे- कार्की क्षत्रिय, किरौली गांव के सीमावर्ती के चनौली, मनेत, जगथली, कालेटी तथा थल तहसील के सेलावन, दुमिछिन, वैरीगांव, ठठौली, सिल्दू आदि गांव में निवास करते हैं। ये मुख्यतः दो राठों- चनौली, मनेती तथा उपराठों मल्लाघर (कालेटी) और तल्लाघर वाले (जगथली) में विभाजित हैं। थल तहसील के उक्त गांवों में चनौली और मनेती राठ के ही कार्की निवास करते हैं। बाफिला क्षत्रिय थल तहसील के पड़यात तथा बेरीनाग तहसील के थर्प, कमदिना और बड़़ेत गांव में तथा बिष्ट ब्राह्मण किरौली के दक्षिणी सीमावर्ती गांव लालुका में निवास करते हैं। ये कृष्णाग्रि गोत्र के ब्राह्मण हैं।

    गणाई ताम्रपत्र (शाके 1532) में चार चौधरी में से मुरु/पुरु गुसाई और संग्राम राउत का नाम स्पष्ट उत्कीर्ण हैं। यह ताम्रपत्र अठीगांव हेतु विशु उपाध्याय के नाम निर्गत किया गया था। इस क्षे़त्र में रावत क्षत्रिय गंगोलीहाट तहसील के बांस पटान और काण्डा तहसील के रावतसेरा में निवास करते है। उपाध्याय ब्रह्मण भी गंगोली के कई गांवों में निवास करते हैं। किरौली और गणाई ताम्रपत्र में उल्लेखित चार चौधरी स्थानीय गांव विशेष के आधार पर नियुक्त थे। सोलहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में ’चौधरी’ ग्राम पंचायत स्तर का एक राज्य पद था। अतः चंद राज्य के विभन्न राज्य पदों को एक जाति विशेष तक सीमित रखना उचित नहीं है। समय व स्थान के आधार पर चंद राज्य पदों को स्थानीय क्षत्रपों में बांटा जाता था। 

    बड़ाऊँ (बेरीनाग) क्षेत्र के चार चौधरी अर्थात जाति विशेष गांव के मुखिया को ’चौधरी’ पद प्रदान किया गया था। वर्तमान में भी जातिगत बसावट किरौली गांव के आस पास वैसा ही है जैसा कि किरौली ताम्रपत्र में उल्लेखित किया गया था। यह गांव पूर्णतः शाकाहारी पंत ब्राह्मणों का गांव है, जो स्थानीय देवता पिंगलनाग के मुख्य पुजारी हैं। संभवतः पिंगलनाग और कालीनाग देवता की पूजा-पाठ हेतु केशव पंत को क्रमशः किरौली और लग गांव (थल तहसील) रौत में प्राप्त हुए। किरौली गांव के उत्तर में स्थित खमलेख पर्वत में पिंगलनाग तथा लग गांव के उत्तर में स्थित कालीनाग डांडा में कालीनाग देवता के मूल मंदिर स्थापित हैं। किरौली के सीमावर्ती गांवों- मनेत, लालुका में क्रमशः कार्की और बिष्ट निवास करते हैं। जबकि किरौली से 4-5 किलोमीटर दूर बाफिला क्षत्रपों का थर्प गांव हैं।

    चार चौधरी की भाँति चार बूढ़ा’ व्यवस्था, चंद राज्य चंपावत में विद्यमान थी। बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ’’अपने शासन का श्रीगणेश राजा सोमचंद ने चार बूढ़ों से स्थापित किया। ये चार बूढ़े चार आलों के थे- (1)कार्की, (2)बौरा, (3)चौधरी, (4)तड़ागी।’’ प्रकाशित चंद ताम्रपत्रों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि चार बूढ़ा प्रथा का आरंभ राजा विक्रमचंददेव (सन् 1423 ई.-1437 ई.) के शासन काल से हुआ। जबकि विक्रमचंद से पूर्ववर्ती राजा गरुड़ ग्यानचंद (सन् 1389 ई.-1422 ई.) के ताम्रपत्रों से चार बूढ़ा के स्थान पर आठ बूढ़ा का उल्लेख प्राप्त होता है। चंद ताम्रपत्रों में प्रथम बार कार्की जाति का उल्लेख भारतीचंद के प्रकाशित हुड़ेती ताम्रपत्र (शाके 1373/सन् 1451 ई.) के साक्षियों में किया गया। चंदों से पूर्व, कार्की क्षत्रप डोटी-मल्ल राजाओं की सेवा में थे। डोटी-मल्ल शासकों के प्रकाशित ताम्रपत्रों (’’शाके-1343 तथा शाके-1360’’) के साक्षियों में क्रमशः डांत कार्की और विर कार्की का नाम उत्कीर्ण है। अतः कार्की जाति को सोमचंद (आठवीं शताब्दी) के चार बूढ़ा व्यवस्था की संबद्धता तक सीमित नहीं कर सकते हैं।

    बूढ़ा का अर्थ स्थानीय क्षत्रपों का नेतृत्व कर्त्ता वृद्ध व्यक्ति हो सकता है। बूढ़ा को दूसरे अर्थ में सयाना भी कहा जाता है। ‘चार बूढ़ा’ और ’चार चौधरी’ व्यवस्था समतुल्य प्रतीत होती है। बद्रीदत्त पाण्डे के शब्दां में- ’’काली कुमाऊँ के बूढ़ों के अधिकार भी सयानों के-से थे। जमीन कमाने वाले तथा राजा के बीच और भी कर्मचारी कहीं-कहीं होते थे, जिनका जमीन पर हक था। पाली में वे सयाने कहलाते थे। पाली में चार सयाने थे- 2 मनराल, 1 बिष्ट, 1 बंगारी।’’ चौखुटिया-द्वाराहाट क्षेत्र को ब्रिटिश काल में परगना पाली-पछाऊँ कहा जाता था। ’चार सयाना’ व्यवस्था में तीन स्थानीय जातियां मनराल, बिष्ट बंगारी सम्मिलित थे। इसी प्रकार गंगोली के चार चौधरी व्यवस्था में भी तीन जातियां- कार्की, बिष्ट और बाफिला सम्मिलित थे। एडविन थॉमस एटकिंसन ने चार बूढ़ा व्यवस्था में भी तीन जातियों- कार्की, तड़गी और चौधरी का उल्लेख किया। अतः बूढ़ा, सयाना, चौधरी आदि राज्य पदों (स्थानीय/ग्रामीण) को क्षेत्र विशेष, कालखण्ड और जाति के आधार पर संबद्ध कर सकते हैं। अर्थात एक निर्धारित कालखण्ड और क्षेत्र विशेष में चार बूढ़ा, चार सयाना, और चार चौधरी व्यवस्था को समायोजित कर सकते है। 


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