तालेश्वर ताम्रपत्र और ब्रह्मपुर का इतिहास
तालेश्वर ताम्रपत्र और ब्रह्मपुर का इतिहास
सातवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास को देखें तो, उत्तर भारत पर कन्नौज के शक्तिशाली राजा हर्ष का शासन था। वह उत्तर भारत का सर्वमान्य राजा था। मध्य हिमालय का ब्रह्मपुर राज्य सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही हर्ष के अधीन आ चुका था। इस तथ्य की पुष्टि हर्ष का दरबारी कवि बाणभट्ट करता है, जिसने ‘हर्षचरित’ नामक काव्य संग्रह की रचना की थी। मध्य हिमालय के राज्यों पर हर्ष के नेतृत्व में कन्नौज का जो प्रभाव पड़ा, उसकी झलक शताब्दियों तक दिखलाई देती रही। हर्ष के पश्चात कन्नौज के प्रसिद्ध शासकों यशोवर्मन (आठवीं शताब्दी) और जयचंद गहड़वाल (बारहवीं शताब्दी) का भी प्रभाव मध्य हिमालय पर दिखलाई देता है। उत्तराखण्ड के विभिन्न इतिहासकार इसी कारण सातवीं से बारहवीं शताब्दी तक, कुमाऊँ के इतिहास को कन्नौज से अभिन्न करते हैं। विशेषतः कुमाऊँ के ‘चंद’ राजवंश को।
सातवीं शताब्दी के आस पास ब्रह्मपुर जनपद एक पर्वताकार राज्य था। इस जनपद की उत्तरी सीमा पर महाहिमालय की श्रेणियों के अन्तर्गत सुवर्णगोत्र नामक देश था। इस तथ्य की पुष्टि हर्षचरित नामक पुस्तक से होती है। हर्ष की विजयों के संबंध में हर्षचरित में प्रयुक्त एक श्लेषयुक्त पद उल्लेखनीय है, जिसमें बाण का सबसे छोटा भाई श्यामल, हर्ष विषयक कुछ सूचनाएं प्रदान करता है। इस पद में कुल नौ वाक्य हैं। नौ वाक्यों के श्लेषपद का आठवां वाक्य हिमालय से संबंधित है, जो इस प्रकार है- ‘‘परमेश्वर ने हिमाच्छादित दुर्गम प्रदेश के शासक से कर प्राप्त किया।’’ (‘‘अत्र परमेश्वरेण तुषार शैलभुवो दुर्गाया गृहीतोकरः’’)। यहाँ पर कन्नौज के राजा हर्ष को परमेश्वर कहा गया। सातवीं शताब्दी में कन्नौज राज्य के समीपवर्ती हिमाच्छादित दुर्गम प्रदेश नेपाल से कश्मीर तक विस्तारित था। अतः हर्षचरित के श्लेषयुक्त आठवें वाक्य में आये प्रदेश को ठीक से चिह्नित करने में भी विद्वानों में मतभेद है-
1- बूलर और राधाकुमुद मुकर्जी का मत हिमाच्छादित प्रदेश- नेपाल।
2- गौरी शंकर चटर्जी का मत- ब्रह्मपुर।
3- आर.एस. त्रिपाठी का मत- पहाड़ी राजकुल।
4- लेवी का मत- तुर्क प्रदेश।
बूलर और राधाकुमुद मुकर्जी का मत कन्नौज की भौगोलिक सीमा के आधार पर उचित प्रतीत होता है। जबकि आर. एस. त्रिपाठी पहाड़ी राजकुल अर्थात हिमाचल से उत्तराखण्ड के भू-भाग को हिमाच्छादित प्रदेश के दक्षिण में चिह्नित करते हैं। लेवी का मत तुर्क प्रदेश (कन्नौज राज्य से सदूर उत्तर-पश्चिमी प्रदेश था) उचित प्रतीत नहीं होता है, जो कन्नौज राज्य की सीमा से बहुत दूर था। प्राचीन मान्यताओं पर ध्यान करें तो हिमालय के पार कैलास-मानसरोवर यात्रा प्राचीन काल से चली आ रही है। अर्थात सुवर्णगोत्र देश और कन्नौज राज्य के मध्य कैलास-मानसरोवर की धार्मिक यात्रा एक संबंध स्थापित करती थी। भोट व्यापार दूसरा कारण हो सकता है। गौरी शंकर चटर्जी की मान्यता है कि ब्रह्मपुर के उत्तर में स्थित सुवर्णगोत्र देश हिमाच्छादित विशाल पर्वतों में था, जहाँ स्त्रियों का राज्य था। गौरी शंकर चटर्जी सुवर्णगोत्र देश (तिब्बत) के आधार पर हिमाच्छादित दुर्गम प्रदेश के दक्षिण में ब्रह्मपुर राज्य को चिह्नित करते हैं।
मध्य हिमालय के प्राचीन राज्य ‘ब्रह्मपुर’ के संबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य तालेश्वर ताम्रपत्रों से प्राप्त होते हैं। तालेश्वर गांव से प्राप्त ये दो ताम्रपत्र बीसवीं शताब्दी के छठे दशक में प्रकाशित हो पाये। इन दो ताम्रपत्रों ने उत्तराखण्ड के इतिहास में एक और राजवंश ‘पौरव’ को संबद्ध कर दिया। इस राजवंश की राजधानी ‘ब्रह्मपुर थी और राज्य का नाम ‘पर्वताकार’ था। इस राजवंश के पांच शासकों के नाम ज्ञात हो चुके हैं- विष्णुवर्म्म, वृषवर्म्म, अग्निवर्म्म, द्युतिवर्म्म और विष्णुवर्म्म द्वितीय। इनमें से अंतिम दो पौरव शासकों के ताम्रपत्र तालेश्वर गांव, तहसील स्याल्दे, जनपद अल्मोड़ा से प्राप्त हुए हैं। पौरव वंश के चौथे राजा द्युतिवर्म्मा का राज्य वर्ष 5 तथा पंचम राजा विण्णुवर्म्मा का 28 राज्य वर्ष में निर्गत ताम्रपत्र इस प्राचीन राज्य के प्रशासनिक और कर व्यवस्था के संबंध में महत्वपूर्ण सूचना प्रदान करते हैं।
ब्रह्मपुर के ताम्रपत्र-
1- ’द्युतिवर्म्म के ताम्रपत्र’ का आरंभिक अंश-
‘‘स्वस्ति (।।) पुरन्दरपुरप्रतिमाद्-व्र(ब्र)ह्मपुरात्
सकल जगन्मूलोर्ब्वीचक्क-महाभार-वहन (गुण-वमन-फण-सहस्रानन्त)-
मूडत्तराखर्ण्डर्भगवद्-व ( ी) र (णेश्वरस्वामिन-श्चरण)।
कमलानुध्यातः सोमदिवाकरान्वयो गो व्रा(ब्रा)
ह्मण-हितैषी श्रीपुरूरवः प्रभृत्यविच्छिद्यमान
-सौ (पौ) रव-राज वंशोग्निरिव वैपक्ष-कक्ष-
दहनो (भू) श्र्यग्निवर्म्मा (।) तस्य पुत्रस्तत्पाद
-प्रसादादर्वाप्त-राज्य-महिमा द्युतिमदहित,
पक्षद्यु तिहारो विवस्वानिव द्वितीयः
परम भट्टारक-महाराजाधिर(।) ज-श्री-
द्युतिवर्म्मा कुशली पर्व्वताकार-राज्ये (ऽ)
स्मद-वंश्यान्महाराज-विशेषा-न्प्रतिमान्य-
दण्डोपरिके-प्रमातर-प्रतिहार-कुमारामाप्य पीलुपत्यश्वपति-।
2- ’विष्णुवर्म्मन द्वितीय के ताम्रपत्र’ का अरंभिक अंश -
‘‘स्वस्ति (।।) पुरोत्तमाद्-व्र (ब्र) ह्मपुरात् सकलभुवन
-भव-भंग-विभागकारिणो (ऽ)नन्त-मूर्त्तेरनाद्या
-वेद्याचिन्त्याद्भुतोद्भूत-प्रभूत-प्रभावाति-शयस्य-
क्ष्मातल -विपुल-विकट-स्फटा-निकट-प्ररूढ़
मणिगण-किरणारुणित-पाताल-तलस्य(-)धरणि-धरण
-योग्य-धारणा-धार (रिणो)भुजगराजरूपस्स्य
(स्य) भगवद्वीरणेश्वर स्वामिनश्चरण-कमलानुध्यातः,
सोमदिवाकर-प्रांशु-वंश-वेश्म-प्रदीपः सर्व्वप्रजानुग्र (ा)
याभ्युदितप्रभावः परमभट्टारक-महाराजाधिराज श्र्यश्नि (ग्नि) वर्म्मा(।)
तदात्मजस्तत्पाद-प्रसादादवाप्त-प्राज्य-
राज्यःक्षपित-महापक्ष-विपक्षकक्ष-द्युतिर्म्महाराजाधिराज श्री द्युतवर्म्मा(।।)
तन्ननयो (तत्तनयो)नय-विनय-
शौर्य-धैर्य-स्थैर्य-गाम्भीर्यौदार्य-गुणाधिष्ठित-मूर्ति श्चक्क्रधर(ः)इव
प्रजानामार्तिहरः परमपितृभक्तः
परमभट्टारक-महाराजाधिराज श्री विष्णुवर्म्मा
समुपचित-कुशल-व (ब)ल-वीर्यः पर्व्वताकार’
द्युतिवर्म्मन् के ताम्रपत्र का हिंदी अनुवाद-
‘‘स्वस्ति। धरती पर इन्द्र की नगरी के समान ब्रह्पुर से।
धरती पर इन्द्र की नगरी ब्रह्मपुर से जो समस्त भूमण्डल के भार को वहन करने वाले सहस्र फणों से युक्त अपरिमित गुणपूर्ण अनन्त की मूर्ति भगवान वीरणेश्वर स्वामी के चरण-कमलों में लीन सोमसूर्य वंश में उत्पन्न, श्रीपुरुरवा आदि पौरवनरेशों का वंशज, गौ तथा ब्राह्मणों का हितैषी, शत्रुओं को शुष्क तृणवत् दग्ध करने में अग्नि के समान समर्थ था श्री अग्निवर्मन् उसका पुत्र, उसकी कृपा से राज्यमहिमा को प्राप्त करने वाला द्वितीय दिवाकर के समान अपने शत्रुओं की द्युति का अपहरण करने वाला परम भट्टारक महाराजाधिराज श्री द्युतिवर्म्मन अपने पर्वताकार राज्य में कुशल से हैं और अपने भूतपूर्व मान्य नरेशों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करता है। तथा अपने दण्डधर, प्रमातार, प्रतिहार, कुमारामात्य तथा हस्ति-अश्वशाला।’’
तालेश्वर ताम्रपत्रों का विश्लेषण-
इतिहासकार डॉ. शिवप्रसाद डबराल द्वारा रचित ’उत्तराखण्ड के अभिलेख एवं मुद्रा’ नामक पुस्तक में प्रकाशित तालेश्वर एवं पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों (तथाकथित कत्यूरी) के आधार पर तालेश्वर ताम्रपत्रां की विश्लेषण इस प्रकार से है-
तालेश्वर ताम्रपत्रों का आरम्भ पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों (कार्तिकेयपुर के नरेश, जिन्हें इतिहासकार कत्यूरी कहते हैं) की तरह ’स्वस्ति’ से किया गया है। मध्य काल में कुमाऊँ के चंद राजाओं ने भी अपने ताम्रपत्रों में ‘ओम् स्वस्ति’ का प्रयोग किया, जिसका अर्थ ‘कल्याण हो’ है। तालेश्वर ताम्रपत्रों में नगर उद्घोष, कार्तिकेयपुर ताम्रपत्रों की भाँति अभिलेख के आरम्भिक वाक्यांश में किया गया है। पौरव ताम्रपत्रां में नगर उद्घोष ’ब्रह्मपुर’ है, जिसे इन्द्रनगरी और पुरों में सर्वश्रेष्ठ वर्णित किया गया है। पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रां में नगर उद्घोष ’श्रीकार्तिकेयपुर’ उत्कीर्ण है। ब्रह्मपुर कहाँ था? इस संबंध में भी विद्वानों में मतभेद है, जिनमें अलेक्जेंडर कनिंघम का मत सर्वाधिक मान्य है।
आर्किलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया के प्रथम महानिदेशक अलेक्जैंडर कनिंघम (1861-1865) ने पश्चिमी रामगंगा के तटवर्ती वैराटपट्टन की पहचान ब्रह्मपुर के रूप में की। वैराटपट्टन नामक स्थान विकासखण्ड चौखुटिया, जनपद अल्मोड़ा में है। पश्चिमी रामगंगा घाटी में नदी तटवर्ती सर्वाधिक विस्तृत क्षेत्र चौखुटिया के निकट ही ‘लखनपुर-बैराट’ को ही कनिंघम ने ब्रह्मपुर कहा। बीसवीं शताब्दी में ब्रह्मपुर के पौरव ताम्रपत्र तालेश्वर नामक गांव से प्राप्त हुए है, जो चौखुटिया के पश्चिम में गढ़वाल सीमा पर स्थित है। तालेश्वर से प्राप्त ताम्रपत्र कनिंघम के मत की पुष्टि करते है, जो उनकी मृत्यु के पश्चात प्राप्त हुए। चौखुटिया से तालेश्वर गांव की हवाई दूरी मात्र 16 किलोमीटर है।
ब्रह्मपुर प्राचीन मध्य हिमालयी क्षेत्र का एक प्रमुख नगर था, जिसका वर्णन चीनी यात्री ह्वैनसांग ने भी अपने यात्रा विवरण में किया था। इस चीनी यात्री ने ब्रह्मपुर को ‘‘पो-लो-कि-मो’’ कहा। इस चीनी यात्री ने सन् 629 ई. से 643 ई. तक भारत का भ्रमण किया था। चीनी यात्री के यात्रा-वर्णन से स्पष्ट होता है कि ब्रह्मपुर का अस्तित्व सातवीं शताब्दी में अवश्य था। इतिहासकारों में ब्रह्मपुर के पौरव शासकों के कालखण्ड को लेकर मतभेद है। कुछ विद्वान इस राजवंश को कन्नौज राजा हर्ष का पूर्ववर्ती और कुछ परवर्ती बतलाते हैं। तालेश्वर और राजा हर्ष के मधुवन-बांसखेड़ा तथा कार्तिकेयपुर तामपत्रों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि पौरव शासक हर्ष (606-647 ई.) के पूर्ववर्ती थे।
श्रीपुरवा नामक राजा के वंशज अर्थात पौरव वंश (सोम-दिवाकर वंश) का उल्लेख तालेश्वर ताम्रपत्रों में किया गया है। राजा हर्ष के दरबारी कवि बाणभट्ट ने सूर्य और चन्द्र नामक दो क्षत्रिय वंशों का उल्लेख किया है। संभवतः सोम-दिवाकर के संयोजन से मध्य हिमालय में पौरव वंश अस्तित्व में आया। सोम पहले लिखने का अर्थ है कि पिता चन्द्र वंशी और माता सूर्य वंशी। पाण्डुकेश्वर मंदिर से प्राप्त ललितशूरदेव के ताम्रपत्रों में उनके वंश का उल्लेख नहीं है। लेकिन ‘कार्तिकेयपुर’ उद्घोष वाले एक अन्य ताम्रपत्र, जो पाण्डुकेश्वर मंदिर से ही प्राप्त हुआ है, जिसमें राजा का नाम पद्मटदेव उत्कीर्ण है और उनके वंश के स्थान पर सगर, दिलीप, मान्धातृ, भगीरथ आदि सतयुगी राजाओं का उल्लेख किया गया है।
पौरव ताम्रपत्रों में ‘वीरणेश्वर भगवान’ तथा कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के ताम्रपत्रों में शिव की कृपा से ‘भगवती नन्दा’ का उल्लेख कुल देवता के रूप में किया गया है। वीरणेश्वर भगवान को धरणि-धरण और भुजंगराज कहा गया है। अतः वीरणेश्वर ही ‘शेषनाग’ का दूसरा नाम था। मध्य हिमालय के अनेक नाग मंदिर पौरव शासन की पुष्टि करते हैं। बेरीनाग या बेड़ीनाग, वीरणेश्वर का अपभ्रंश प्रतीत होता है। बेरीनाग तहसील का भुवनेश्वर गांव प्राचीन काल से ही पाताल गुहा के लिए प्रसिद्ध है। इस गुहा के द्वार पर फन फैलाये नाग की प्राकृत मूर्ति है, जिसे शेषनाग कहा जाता है। बेरीनाग के निकटवर्ती क्षेत्रों में पिंगलनाग, वासुकिनाग, धौलीनाग, फेणीनाग, हरिनाग आदि प्रसिद्ध नाग मंदिर हैं, जो स्थानीय निवासियों के इष्ट देवता के रूप में थापित है। गढ़वाल हिमालय भी नाग मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। कुमाऊँ में नाकुरी (तहसील दुग नाकुरी, बागेश्वर) तथा गढ़वाल में नागपुर नामक स्थान वीरणेश्वर भक्त ‘पौरव वंश’ के शासित क्षेत्र की पुष्टि करते हैं।
तालेश्वर से प्राप्त द्युतिवर्म्मा और विष्णुवर्म्मा के ताम्रपत्र में ’कुशली’ शब्द का प्रयोग ताम्रपत्र निर्गत करने वाले राजा के नाम और राज्य के नाम के मध्य किया गया है। जैसा कि-‘‘परम भट्टारक, महाराजाधिराज श्री द्युतिवर्म्मा कुशली पर्व्वताकार राज्ये।’’ इसी प्रकार विष्णुवर्म्मा के ताम्रपत्र में उनके नाम और पर्वताकार राज्य के मध्य में ’कुशली’ शब्द प्रयुक्त किया गया है। कार्तिकेयपुर ताम्रपत्रों में भी इसी प्रकार से ‘कुशली’ शब्द का प्रयोग किया गया है, लेकिन ’राज्य’ के स्थान पर इन ताम्रपत्रों में ’विषय’ का उल्लेख गया है। ‘कुशली शब्द’ का शाब्दिक अर्थ है- अच्छे हैं या ठीक-ठाक हैं। ‘विषय’ को ‘जनपद’ की संज्ञा दी जाती है। ‘राज्य’ शब्द राजा द्वारा शासित प्रदेश हेतु प्रयुक्त किया जाता था।
तालेश्वर ताम्रपत्रों में राज्य पदाधिकारियों की वरीयता क्रम में राजा के पश्चात उपरिक का उल्लेख है। ‘‘गुप्त काल में प्रान्त को देश, अवनी अथवा भुक्ति कहा जाता था। भुक्ति के शासक को ’उपरिक’ कहा जाता था।’’ अतः ब्रह्मपुर राज्य भुक्तियों (प्रान्तांं) में विभाजित था और उनके राज्य में भुक्ति-शासक (उपरिक) को सर्वोच्च राज्याधिकारी का सम्मान प्राप्त था।
पौरव ताम्रपत्रों में शासकों को ’गौ-ब्राह्मण हितैषी’ के रूप में वर्णित किया गया है और उन्होंने केवल ’परम भट्टारक-महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी। भट्टारक का संज्ञा अर्थ- सूर्य, राजा तथा विशेषण अर्थ- पूज्य और माननीय होता है। अतः परम भट्टारक का अर्थ- अत्यधिक पूज्यनीय। आज भी पत्र लिखने में परम पूज्यनीय शब्द उपयोग में लाया जाता है, जो सम्मान सूचक विशेषण शब्द है। जबकि पाण्डुकेश्वर/कार्तिकेयपुर नरेशों ने ’परमब्राह्मण’ के साथ-साथ ’परमेश्वर’, ’परममाहेश्वर’, ’परम भट्टारक महाराजाधिराज’ आदि उपाधियां धारण की थी। संभवतः कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव और भूदेवदेव ने मध्य हिमालय में बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव के प्रत्युत्तर ‘परमब्राह्मण’ की उपाधि धारण की थी। जबकि इन नरेशों द्वारा परमेश्वर (शिव) या परममाहेश्वर (शिव) की उपाधि धारण करना स्थानीय प्रभाव (किरात/शिव) प्रकट करता है। इसलिए स्कन्द पुराण में शिवत्व के प्रभाव कारण गढ़वाल को केदारखण्ड और कुमाऊँ को मानसखण्ड कहा गया।
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