ब्रह्मपुर के पौरव राज्य में भूमि पैमाइश-

ब्रह्मपुर के पौरव राज्य में भूमि पैमाइश-

    ब्रह्मपुर की पहचान पुरातत्व विभाग के प्रथम महानिदेशक अलेक्जैंडर कनिंघम ने पश्चिमी रामगंगा घाटी में स्थित चौखुटिया के निकटवर्ती क्षेत्र से की, जिसे उन्होंने लखनपुर-वैराटपट्टन कहा। लखनपुर-वैराटपट्टन रामगंगा घाटी के पृथक-पृथक पुरास्थल हैं, जहाँ अब कमशः लख्नेश्वरी और वैराठेश्वर मंदिर स्थापित है। इन दो स्थलों के मध्य लगभग 5 से 6 किलोमीटर की दूरी है। वैराठेश्वर मंदिर रामगंगा के बायें तट पर चौखुटिया में है। जबकि लख्नेश्वरी मंदिर चौखुटिया के दक्षिण में लगभग 6 किलोमीटर दूर चौखुटिया-रामनगर सड़क के दायें तथा रामगंगा के बायें तटवर्ती गांव में है। चौखुटिया क्षेत्र के 5 से 6 किलोमीटर के घेरे में ही पौरव वंश का ब्रह्मपुर नामक प्रसिद्ध नगर था, जिसे पुरों में सर्वश्रेष्ठ कहा गया।
    ब्रह्मपुर नगर और पर्वताकार राज्य में छठी शताब्दी के आस पास पांच पौरव शासकों ने राज्य किया। चौखुटिया के निकटवर्ती तालेश्वर ग्राम से प्राप्त दो ताम्रपत्रों से ही ब्रह्मपुर का पौरव वंश उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास में अपना स्थान बना पाया। ब्रह्मपुर के संबंध में ह्वैनसांग के यात्रा विवरण से भी जानकारी प्राप्त होती है। लेकिन पौरव शासकों के संबंध में जानकारी का एक मात्र स्रोत तालेश्वर ताम्रपत्र ही हैं। इन ताम्रपत्रों में कुल देवता ‘वीरणेश्वर’ का उल्लेख किया गया है। संभवतः आज का वैराठेश्वर ही छठी शताब्दी का वीरणेश्वर मंदिर था। कत्यूरी कालखण्ड में यह मंदिर वीरणेश्वर से वैराठेश्वर हो चुका था। क्योंकि कत्यूरी राजा मालूशाही को बैराठ का राजा कहा गया।    कत्यूरी बैराठ नामक स्थान की पहचान वर्तमान चौखुटिया से ही की जाती है।
    ब्रह्मपुर के सोम-दिवाकर वंश (पौरव वंश) में क्रमशः विष्णुवर्म्मा, वृषणवर्म्मा, अग्निवर्म्मा, द्युतिवर्म्मा और विष्णुवर्म्मा द्वितीय शासक हए। अभी तक इस वंश के अंतिम दो शासकों द्युतिवर्म्मा और विष्णुवर्म्मा के ही ताम्रपत्र प्राप्त हो पाये हैं, जो अल्मोड़ा के स्याल्दे तहसील के तालेश्वर गांव से सन् 1915 ई. में प्राप्त हुए। इन ताम्रपत्रों में ब्रह्मपुर के पौरव शासकों को गौ-ब्राह्मण हितैषी कहा गया है और जिन्होंने परम भट्टारक महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। गौ-ब्राह्मण हितैषी पौरव शासक बौद्ध धर्म के प्रभाव में नहीं में नहीं थे। जबकि पड़ोसी राज्य गोविषाण बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र था, जहाँ महात्मा बुद्ध ने यात्रा की थी और सम्राट अशोक ने एक बौद्ध स्तूप बनवाया था।
    पौरव कालखण्ड में ब्रह्मपुर से संचालित पर्वताकार राज्य सत्ता-विकेन्द्रीकरण का उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह पर्वतीय राज्य विषयों में विभक्त था और विषय के अधिकारी ’दण्ड-उपरिक’ का पौरव मंत्रीमण्डल में प्रथम स्थान था। पौरव ताम्रपत्रों में ’सामन्त’ नामक पदाधिकारी की अनुपस्थिति से स्पष्ट होता है कि ब्रह्मपुर में सामन्तवादी ढांचा विकसित नही हो पाया था। राज्य की सेना हस्ति और अश्वसेना में विभाजित थी, जिसके प्रधान क्रमशः पीलुपति और अश्वपति कहलाते थे। इस राज्य में ’प्रतिहार’ नामक राज्यपदाधिकारी रानी के महल की सुरक्षा करता था।
    ब्रह्मपुर राज्य में ’प्रमातार’ नामक पदाधिकारी भूमि पैमाइश का कार्य करता था। राज्य में भूमि माप हेतु तीन पैमाने प्रचलन में थे, जिनमें द्रोणवापं सबसे अधिक प्रचलित भूमि पैमाइश पैमाना था। इस प्राचीन राज्य में ’दिविरपति’ नामक राज्याधिकारी था, जिसके निर्देशन में ताम्रपत्रों को उत्कीर्ण करवाया जाता था। छठी शताब्दी के आस पास ब्रह्मपुर में पौरव वंश ने एक सुसंगठित और प्रगतिशील राजसत्ता को स्थापित करने में सफलता प्राप्त की, जिसके कारणों में प्रमातार नामक राज्याधिकारी और राज्य की भूमि पैमाइश व्यवस्था सबसे महत्वपूर्ण थी।
तालेश्वर ताम्रपत्र (विष्णुवर्म्मा 28 वें राज्य वर्ष ) से भूमि की पैमाइश हेतु प्रयुक्त तीन पैमानों का उल्लेख प्राप्त होता है। ये भूमि पैमाइश पैमाने हैं- खारि वापं, कुल्य वापं और द्रोण वापं। इस ताम्रपत्रानुसार खारि वापं से 4 क्षेत्रों, कुल्य वापं से 6 क्षेत्रों और द्रोणवापं से 13 क्षेत्रों में भूमि पैमाइश करवाई गई। जबकि इस ताम्रपत्र में कुल 24 क्षेत्रों का उल्लेख किया गया है। ’कुल्य’ संस्कृत का पुल्लिंग शब्द है, जिसका अर्थ होता है- अनाज नापने का एक पैमाना। ’द्रोण’ भी संस्कृत का पुल्लिंग शब्द है, जिसका अर्थ होता है- कठवत, एक पैमाना। ’कठवत’ लकड़ी का एक बर्तन होता था, जिसका प्रयोग अनाज मापने में किया जाता था। एक द्रोण 16 नाली के बराबर होता है।
पौरव वंशी विष्णुवर्म्मा के पिता द्युतिवर्म्मा के ताम्रपत्र में भूमि पैमाइश पैमाने का उल्लेख नहीं किया गया है। जबकि मध्य हिमालय के प्राचीन नगर बागेश्वर शिलालेख में त्रिभुवनराजदेव से संबंधित लेखांश में चार स्थानों पर ’द्रोण’ पैमाने का उल्लेख किया गया है। त्रिभुवनराजदेव को विद्वान ‘खस’ राजा कहते हैं। चमोली के पाण्डुकेश्वर से प्राप्त तथाकथित कत्यूरी शासक ललितशूरदेव के ताम्रपत्रों से भी भूमि पैमाइस पैमाने का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। जबकि पाण्डुकेश्वर से ही प्राप्त सुभिक्षराजदेव के ताम्रपत्र में 24 स्थानों पर द्रोणवापं का उल्लेख किया गया है। इस ताम्रपत्र में कुल्यवापं के स्थान पर ’नालिकावापं’ का प्रयोग किया है। 
    ब्रह्मपुर से कार्तिकेयपुर तक मध्य हिमालय क्षेत्र में ‘द्रोण’ एक प्रचलित भूमि पैमाइस पैमाना था। मध्य कालखण्ड में ’द्रोण’ पैमाने का प्रायोगिक साक्ष्य गढ़वाल के पंवार वंश द्वारा निर्गत राजराजेश्वरी मंदिर ताम्रपत्र (सन् 1700 ई.) से प्राप्त होता है। जबकि समकालीन कुमाऊँ के चंद ताम्रपत्रों से भूमि पैमाइस हेतु द्रोण पैमाना प्रयुक्त करने साक्ष्य प्राप्त नहीं होते हैं। चंद काल में ‘ज्यूला’ सर्वाधिक प्रयोग किये जाने वाला भूमि पैमाइश पैमाना था।
    डॉ. यशवंत सिंह कठोच के अनुसार- ’’1 दोण = 16 नाली,  तथा 1 खार = 20 दोण।’’ जबकि डॉ. शिवप्रसाद डबराल के अनुसार- 
  ’’द्रोणवापम्- जिस खेत में द्रोण अर्थात 16 नाली, 32 सेर बीज बोया जावे
    खारीवापम्- जिस खेत में, खारी अर्थात 20 द्रोण बीज बोया जावे।
    कुल्यवापम् -संभवतः जिसमें 8 द्रोण बीज बोया जावे।’’
दोनों ही विद्वान/इतिहासकार प्राचीन भूमि पैमाइश पैमाने के संबंध में एक मत है। जबकि तालेश्वर ताम्रपत्र (विष्णुवर्म्मा) से भूमि पैमाइश पैमाने के संबंध में निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं-
1- द्रोणवापं की अधिकतम माप 14 ’द्रोण’ प्राप्त होती है। जबकि 13 स्थानों पर द्रोणवापं का उल्लेख किया गया है।
2- खारिवापं की अधिकतम माप द्वे ’खारि’ दी गयी है। जबकि 4 स्थानों पर खारिवापं का उल्लेख किया गया है।
3- कुल्य वापं की अधिकतम माप एक ’कुल्य’ उत्कीर्ण है। जबकि 6 स्थानों पर कुल्यवापं का उल्लेख किया गया है।
तालेश्वर ताम्रपत्र में सर्वाधिक ’द्रोणवापं’ तथा ’कुल्यवापं’ का छः और ’खारिवापं’ का चार बार उल्लेख किया गया है। पर्वताकार राज्य में उक्त तीनों पैमाने में सबसे सुलभ पैमाना ’द्रोणवापं था। ’द्रोण’ शब्द में गुणवाचक प्रत्यय ’ई’ लगाने से ’द्रोणी’ शब्द की व्युत्पति होती है। ’द्रोणी’ संस्कृत का स्त्रीलिंग शब्द है जिसका अर्थ- दो पर्वतों की बीच की भूमि। इसलिए डॉ. शिवप्रसाद डबराल लिखते हैं- ‘‘द्रोणी- दून, पर्वतों के मध्य चौरस उपत्यका।’’ अर्थात दो पर्वतों के मध्य विशाल चौरस भू-भाग को द्रोणी कहते हैं। इसी प्रकार दो पर्वतों के मध्य लघु आकार की चौरस भूमि को ’द्रोण’ कह सकते हैं। अतः पर्वताकार राज्य में द्रोण-भूमि (दो पर्वतों मध्य समतल भूमि) की माप हेतु द्रोणवापं का सर्वाधिक बार उपयोग किया गया।
भूमि पैमाइश पैमाने का उल्लेख पाण्डुकेश्वर से प्राप्त सुभिक्षराजदेव के ताम्रपत्र में किया गया है। इस ताम्रपत्र में तीन पैमानों- द्रोणवापं, खारिवापं और नालिकावापं का उल्लेख किया गया है। पौरव ताम्रपत्र में नालिकावापं के स्थान पर कुल्यवापं का प्रयोग किया गया है। कुल्यवापं और नालिकावापं एक ही शब्द के पर्यायवाची हैं। कुमाऊँ के बड़ाऊँ-पुंगराऊँ (बेरीनाग-थल क्षेत्र) में खेत को सिंचित करने को कुल्याना कहते हैं। ’नाली’ या ’कूल’ खेत तक जल पहुँचाने की छोटी नहर को कहते हैं। तराई-भाबर में कूल के स्थान पर ‘गूल’ शब्द प्रयोग में है। अतः सिंचित कृषि भूमि मापन हेतु ताम्रपत्रों में कुल्यवापं या नालिकावापं का प्रयोग किया गया। इस आधार पर कह सकते हैं कि असिंचित कृषि-भूमि मापन हेतु ’द्रोण’ तथा बंजर-वन भूमि मापन हेतु खारिवापं पैमाने का प्रयोग किया जाता था।
कार्तिकेयपुर नरेश पद्मटदेव के पुत्र सुभिक्षराजदेव के पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्र में 20 द्रोणवापं, 4 खारिवापं और 6 नालिकावापं का उल्लेख किया गया है। यदि इतिहासकारों के तथ्य- 20 द्रोणवापं बराबर 1 खारिवापं को मान्य करें तो, इस ताम्रपत्र में 20 द्रोणवापं के स्थान पर 1 खारिवापं लिखना चाहिए था। लेकिन लिखा गया 20 द्रोणवापं। अतः स्पष्ट है कि भूमि पैमाइश के ये पैमाने भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमि (समतल भूमि, सिंचित भूमि और बंजर भूमि) हेतु प्रयुक्त किये जाते थे। 
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि तालेश्वर ताम्रपत्र में उल्लेखित भूमि पैमाइश पैमाने मुख्यतः तीन प्रकार की भूमि हेतु प्रयोग में लाये जाते थे- द्रोण-भूमि, कुल्य-भूमि और खारि-भूमि। संभवतः कुल्यवापं या नालिकावापं से ’नाली’ (अनाज मापक) शब्द की व्युत्पत्ति हुई। कुल्यवापं या नालिकावापं को नाली से संबद्ध करें तो, एक कुल्यवापं बराबर एक नाली। ‘‘एक नाली भूमि प्रायः 244 वर्ग गज क्षेत्र घेरती है।’’ कुल्यवापं भूमि में सिंचाई सुविधा के कारण असिंचित भूमि के सापेक्ष कम मात्रा में बीज की आवश्यकता होती है। अतः एक इकाई कुल्य-भूमि की माप और एक इकाई द्रोण-भूमि या खारि-भूमि की माप एक समान नहीं हो सकती है।
    यदि धान की फसल हेतु एक निश्चित बीज पात्र का प्रयोग करते हैं, तो इकाई कुल्य भूमि के सापेक्ष, इकाई द्रोण-भूमि हेतु अधिक बीज की आवश्यता होगी। इसे आधुनिक परिप्रेक्ष्य में धान (कुल्य-भूमि) और गेहूँ (द्रोण-भूमि) की फसल के संदर्भ में समझें- 3 से 4 नाली धान और 25 से 30 नाली गेहूँ एक एकड़ भूमि के लिए उपयुक्त होता है। अतः इकाई भूमि की बुआई में धान और गेहूँ का औसतन बीजानुपात 1ः8 रहता है। इस आधार पर 1 कुल्यवापं, 8 द्रोणवापं के बराबर हो सकता है। खारि-भूमि का प्रयोग पशुचारण और पशुचारा हेतु किया जाता था। खारि-भूमि का क्षेत्र विस्तार अधिक होने के कारण 1 खारिवापं, 20 द्रोणवापं के बराबर संभव है। लेकिन भूमि की उपजाऊ क्षमता के आधार पर 1 खारिवापं को 20 द्रोणवापं निर्धारित नहीं कर सकते हैं।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

आरंभिक चंद

ललितशूरदेव का 21 वें राज्य वर्ष का पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्र-

गंगोली का राजनीतिक भूगोल : एक ऐतिहासिक परिदृश्य-

बटखोरी या बड़ोखरी का दुर्ग

बनकोट