पौरव-द्युतिवर्म्मन, कन्नौज सम्राट हर्ष और कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के राज्य पदाधिकारी-

 पौरव-द्युतिवर्म्मन, कन्नौज सम्राट हर्ष और कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के राज्य पदाधिकारी-

गुप्त साम्राज्य के पतनोपरांत भारत में क्षेत्रीय राज्य पुनः शक्तिशाली हो गये। कश्मीर से कन्याकुमारी तक नवीन राजवंशों का उदय हुआ। प्राचीन काल से कुमाऊँ के मैदानी क्षेत्र में गोविषाण राज्य अस्तित्व में था, जहाँ की यात्रा सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वैनसांग ने की थी। इस प्राचीन राज्य के पुरातात्विक अवशेष काशीपुर के उज्जैन क्षेत्र से प्राप्त होते हैं। गोविषाण के उत्तर में पर्वतीय भू-भाग पर ‘पर्वताकार’ राज्य सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य था, जिसकी राजधानी ब्रह्मपुर थी। ब्रह्मपुर की पहचान कनिंघम ने पश्चिमी रामगंगा घाटी में स्थित चौखुटिया क्षेत्र से की। विद्वानों के अनुसार यह राज्य भागीरथी से काली नदी तक विस्तृत था। छठी शताब्दी के आस पास ब्रह्मपुर राज्य पर पौरव वंश का शासन था, जिसकी पुष्टि अल्मोड़ा के तालेश्वर गांव से प्राप्त दो ताम्रपत्र करते हैं। यह गांव चौखुटिया के निकट कुमाऊँ-गढ़वाल सीमावर्ती तहसील स्याल्दे में स्थित है, जहाँ तालेश्वर महादेव का प्राचीन मंदिर है। इस गांव से प्राप्त पौरव वंश के दो शासकों द्युतिवर्म्मन और विष्णुवर्म्मन के ताम्रपत्र प्रकाशित हो चुके हैं। तामपत्रों के आधार पर इस वंश के शासन काल को छठी शताब्दी के आस पास निर्धारित किया गया है। इन ताम्रपत्रों से ब्रह्मपुर राज्य के पदाधिकारियों का उल्लेख प्राप्त होता है।

        सातवीं शताब्दी के प्रथम दशक में थानेश्वर (हरियाणा) के पुष्यभूति वंशीय ‘हर्ष’ अपने ज्येष्ठ भ्राता राज्यवर्धन और कन्नौज शासक बहनोई गृहवर्मन के मृत्यूपरांत कन्नौज सिंहासन पर आसित हुआ। राजा हर्ष (606-647) को उत्तर भारत का अंतिम शक्तिशाली हिन्दू राजा माना जाता है। इस शासक के संबंध में जानकारी देने वाले प्रमुख पुरातात्विक स्रोतों में शिलालेख और ताम्रपत्र महत्वपूर्ण हैं। साहित्यिक स्रोत और यात्रा-विवरण भी राजा हर्ष से संबंधित ऐतिहासिक तथ्य प्रस्तुत करते हैं। इस राजा के दो ताम्रपत्र उत्तर प्रदेश के मधुबन (मऊ) और बांसखेड़ा (शाहजहाँपुर) से प्राप्त हुए हैं। इन ताम्रपत्रों से हर्ष की वंशावली के साथ-साथ राज्य पदाधिकारियों का उल्लेख भी प्राप्त होता है। राजा हर्ष का राज्य उत्तराखण्ड तक विस्तृत था, जिसकी पुष्टि बाणभट्ट द्वारा रचित पुस्तक ‘हर्षचरित’ से भी होती है।  

        शासकीय ताम्रपत्र, पौरव और पुष्यभूति वंश की भाँति उत्तराखण्ड पर शासन करने वाले कार्तिकेयपुर नरेशों के संबंध में जानकारी देने वाला एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत है। कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव और पद्मटदेव के ताम्रपत्रों से उनकी वंशावली के साथ-साथ राज्य पदाधिकारियों का उल्लेख भी प्राप्त होता है। कार्तिकेयपुर की पहचान विद्वान बागेश्वर जनपद के बैजनाथ (गरुड़) से करते हैं। बैजनाथ के निकटवर्ती बागेश्वर के बाघनाथ मंदिर से ललितशूरदेव के पुत्र भूदेवदेव का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है। इस प्राचीन शिलालेख और कार्तिकेयपुर उद्घोष वाले ताम्रपत्रों में एक समानता थी कि इनमें वंश के पूर्ववर्ती राजाओं का रानी सहित नाम उल्लेखित करने की परम्परा थी। हर्ष के ’बांसखेड़ा’ और ’मधुबन’ तामपत्रों में उनके वंश के पूर्ववर्ती राजाओं का नाम रानी सहित उल्लेखित किया गया है। जबकि ब्रह्मपुर के पौरव ताम्रपत्रों में उनके वंश के पूर्ववर्ती राजाओं के साथ रानी का नाम उत्कीर्ण करने की परम्परा नहीं थी। इस आधार पर बागेश्वर शिलालेख और कार्तिकेयपुर ताम्रपत्रों में उत्कीर्ण शासकों को हर्ष का समकालीन मान सकते हैं। अधिकांश इतिहासकार बागेश्वर शिलालेख में उत्कीर्ण राजाओं को हर्ष का परवर्ती ठहराते हैं। जबकि पौरव वंश के शासक, राजा हर्ष के पूर्ववर्ती थे। यही कारण है कि पौरव नरेश द्युतिवर्म्मन, कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव और राजा हर्ष के ताम्रपत्रों में उत्कीर्ण प्रमुख राज्याधिकारियों के नाम एक जैसे हैं। यथा-

1- द्युतिवर्म्मन के ताम्रपत्र में उल्लेखित राज्याधिकारी- 

    दण्ड-उपरिक, प्रमातार, प्रतिहार, कुमारामात्य, दूतक, संधिविग्रहिक, कोटाधिकरणि, पीलुपत्यश्वपति, जयनपति, गज्जपति, सूपकारपति, नगरपति, विषयपति, सर्वविषयप्रधान, महासत्न्नपति, दिविरपति, देवद्रोण्यधिकृत, भोगिक-भागिक, दाण्डपाशिक, कटुकादि अनुजीविवर्ग, राजदौवारिक, पंचमहापातक, अग्निस्वामी आदि का उल्लेख प्राप्त होता है।

2- कन्नौज नरेश हर्ष के ताम्रपत्र में उल्लेखित राज्याधिकारी- 

    महासामंत, महाराज, दौस्साधसाधनिक, प्रमातार, राजस्थानीय, कुमारामात्य, उपरिक, विषयपति के अतिरिक्त भट, चाट और सेवकों का उल्लेख मधुबन और बांसखेड़ा ताम्रपत्रों से प्राप्त होता है। ताम्रपत्र के अंत में दूतक, महाप्रमातार, महाक्षपटलाकरणाधिकृत और सामन्त नामक राज्यधिकारियां का भी उल्लेख प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त हर्ष के समकालीन लेखकों की पुस्तकां से दिविर, रणभाण्डागाराधिकरण, रणभाण्डगारिक, हट्टमति,, करणिक, ग्रामाक्षपटलिक, महत्तर, लेखहारक, दीर्घाध्वग आदि राज्यधिकारियों का उल्लेख प्राप्त होता है।

3- कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के ताम्रपत्र में उल्लेखित राज्याधिकारी- 

    अमात्य, सामंत, महासामंत, ठक्कुर, महामनुष्य, महाकर्तृकृतिक, महाप्रतीहार, महादण्डनायक, महाराज, प्रमातार, शरभंग, कुमारामात्य, उपरिक, दुस्याध्यासाधनिक, दशापराधिक, चौरोद्धरणिक, शौल्किक, शौल्मिक, तदायुक्तक, विनियुक्तक पट्टाकापचारिक, अशेषभंगाधिकृत, हरत्यश्वोष्ट, बलव्यापृतक, भूतप्रेषणिक, दण्डिक, दण्डपाशिक, गमागमिशार्गिंक, अभित्वर, माणक, राजस्थानीय, विषयपति, भोगपति, नरपति, अश्वपति, दण्डरक्षप्रतिशूरिक, स्थानाधिकृत-वर्त्मपाल, कौट्टपाल, घट्टपाल, क्षेत्रपाल, प्रान्तपाल, किशोरवरवा, गो, महिष्यधिकृत, भट्ट, महत्तम, आभीर, वणिक् श्रेष्ठि और पुरोगास्त् नामक राज्यापदाधिकारियों के साथ-साथ अट्ठारह वनों में निवासरत् जातियों- खष, किरात, द्रविड़, कलिंग, शौर, हूण, उण्ड्ड्र, मेद, आन्ध्र, चाण्डाल आदि का उल्लेख  प्राप्त होता है। ताम्रपत्र से अन्य कर्मचारी- भट, चट, सेवक आदि का भी उल्लेख प्राप्त होता है। द्युतिवर्म्मन के ताम्रपत्रांत में महादानाक्षयपटलाधिकृत और महासन्धिविग्राक्षपटलाधिकृत नामक उच्च पदाधिकारियों का भी उल्लेख किया गया है।

        राज्य पदाधिकारियों की उक्त सूचियों से स्पष्ट होता है कि कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के शासन काल में राज्याधिकारियों की संख्या सर्वाधिक थी। इसका कारण यह हो सकता है कि उनके ’ताम्रपत्रां को राजधानी कार्तिकेयपुर में आमंत्रित सभा में उत्कीर्ण करवाया गया था, जहाँ राज्य के समस्त पदाधिकारी उपस्थित थे। पंडित बद्रीदत्त पाण्डे ललितशूरदेव के ताम्रपत्र में उल्लेखित राज्य पदाधिकारियों की संख्या 52 निर्धारित करते हैं। जबकि हर्ष के ताम्रपत्रों से मात्र 12 राज्य पदाधिकारियों का उल्लेख प्राप्त होता है। इसका कारण यह हो सकता है कि हर्ष के ताम्रपत्रों को सैन्य शिविर से निर्गत किया गया था। अतः ताम्रपत्रों में उनके पदाधिकारी सीमित संख्या में उत्कीर्ण किये गये।  

उपरिक, प्रमातार (‘‘सर्वेवर’’), कुमारामात्य और विषयपति नामक राज्याधिकारियों के नाम ब्रह्मपुर, कार्तिकेयपुर और कन्नौज राज्य के ताम्रपत्रों से प्राप्त होते हैं। ये राज्याधिकारी गुप्त कालीन शासन व्यवस्था के भी महत्वपूर्ण अंग थे। लेकिन गुप्तों के परवर्ती पौरव (ब्रह्मपुर), पुष्यभूति (कन्नौज) और कार्तिकेयपुर राज्यों में इन राज्याधिकारियों का वरीयता क्रम भिन्न-भिन्न था। ब्रह्मपुर राज्य में जहाँ उपरिक प्रथम वरीयता क्रमांक का राज्याधिकारी था, वहीं कन्नौज और कार्तिकेयपुर राज्य में वह क्रमशः सातवें और बारहवें वरीयता क्रमांक का राज्याधिकारी था। यह वरीयता क्रम इन तीनों राज्यों के कालखण्डानुक्रम को भी निर्धारित करता है। ‘उपरिक’ नामक पदाधिकारी गुप्त काल में भुक्ति (प्रांत) का सर्वोच्च अधिकारी होता था। 

        हर्ष और कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के शासन काल में सामन्तीय व्यवस्था का उदय हो चुका था। अतः दोनों ही शासकों के ताम्रपत्रों में उच्च वरीयता क्रमांक पर सामन्त और महासामन्त का उल्लेख किया गया। जबकि ब्रह्मपुर राज्य के पौरव ताम्रपत्रों से सामन्त और महासामन्त का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। सामन्त पद के आधार पर पौरव कालखण्ड को राजा हर्ष (606-647 ई.) से पूर्ववर्ती कालखण्ड में निर्धारित कर सकते हैं। विद्वानों का मत है कि भारत में सामन्तीय व्यवस्था का श्रीगणेश छठी शताब्दी के आस पास हुआ था। अतः भारत में सामन्तीय व्यवस्था से पूर्व ही ब्रह्मपुर का पौरव वंश अस्तित्व में आ चुका था।

        पौरव नरेश द्युतिवर्म्मन और हर्ष के ताम्रपत्रों में उत्कीर्ण राज्याधिकारियों की सूची से मात्र उपरिक, प्रमातार, कुमारामात्य, दूतक और विषयपति नामक पदाधिकारी तथा पौरव और कार्तिकेयपुर ताम्रपत्रों में उत्कीर्ण राज्याधिकारियों की सूची से उपरिक, प्रमातार, प्रतिहार, कुमारामात्य, संधिविग्रहक, दण्डपाशिक, अश्वपति और विषयपति नामक पदाधिकारी ही सुमेलित होते हैं। हर्ष और कार्तिकेयपुर के ताम्रपत्रों में उत्कीर्ण राज्याधिकारियों की सूची से सामन्त, महासामन्त, महाराज, उपरिक, प्रमातार, कुमारामात्य, राजस्थानीय, दौस्साधसाधनिक और विषयपति नामक पदाधिकारी के साथ-साथ चाट-भाट जैसे सेवकों के नाम भी सुमेलित होते हैं।

    हर्ष और ललितशूरदेव के ताम्रपत्रों में महाराज, राजस्थानीय (‘‘राजभवन के अधिकारी’’) और दौस्साधसाधनिक (‘‘कठिन कार्यों को हल करने वाले’’) जैसे उच्च वरीयता वाले नवीन पदाधिकारियों का उल्लेख प्राप्त होता है। संभवत‘ः सामन्त, महासामन्त, महाराज, राजस्थानीय और दौस्साधसाधनिक जैसे पदों का सृजन पौरव काल के पश्चात हुआ था।

पौरव वंशीय द्युतिवर्म्मन और ललितशूरदेव के ताम्रपत्रों में क्रमशः संधिविग्रहिक और महासंधिविग्रह का उल्लेख प्राप्त होता है। हर्ष के ताम्रपत्र सैनिक शिविरों से निर्गत किये गये थे। लेकिन महासंधिविग्रह नामक महत्वपूर्ण पदाधिकारी का उल्लेख बांसखेड़ा और मधुबन ताम्रपत्र से प्राप्त नहीं होता है। संभवतः हर्ष ने इस पदाधिकारी का कार्य दूतक नामक उच्च पदाधिकारी को दे दिया था। इसी प्रकार द्युतिवर्म्मन और हर्ष के ताम्रपत्रों से दिविरपति (लेखक) का उल्लेख प्राप्त होता है। जबकि ललितशूरदेव के राज्य संवत् 21 माघ वदि 3 तिथि को निर्गत ताम्रपत्र में दिविरपति के स्थान पर ‘‘लिखितमिदं’’ उत्कीर्ण किया गया है। इस ताम्रपत्र के लेखक ‘आयट अववना’ थे, जो ‘‘महासन्धिविग्रहाक्षपटलाधिकृत’’ (संधि और लेखन विभागाध्यक्ष) पद पर नियुक्त थे। कुमाऊँ के चंद ताम्रपत्रों में भी लेखक हेतु ‘लिखितमिदं’ शब्द प्रयुक्त किया जाता था।

कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के ताम्रपत्र में कोट्टपाल (संभवतः कोट का रक्षक), घट्टपाल (संभवतः घराटों का रक्षक या घाटियों का रक्षक), क्षेत्रपाल (संभवतः गांव का रक्षक), वर्त्मपाल (सड़क का रक्षक) और प्रांतपाल (प्रांत का रक्षक) आदि पदाधिकारियों का भी उल्लेख किया गया है। जबकि पौरव और हर्ष के ताम्रपत्रों से पर्वतीय क्षेत्र के इन स्थानीय पदाधिकारियों का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। अतः पर्वतीय क्षेत्र के राज्य पदाधिकारियों का उल्लेख करने वाले कार्तिकेयपुर ताम्रपत्र, स्थानीय जन-जीवन का राज्य पर प्रभाव दर्शाते हैं।

    प्राचीन भारत में ‘कोट’ संस्कृति का व्यापक प्रभाव देखने को मिलता है। पर्वतीय प्राकृत दुर्ग को ‘कोट’ कहा जाता था। विशेषतः स्थानों के नामकरण पठानकोट (पंजाब), नगरकोट (हिमाचल प्रदेश), कपकोट (बागेश्वर), रणचूलाकोट (कत्यूर, बागेश्वर), वनकोट (गणाई गंगोली), सीराकोट और अस्कोट (डीडीहाट, पिथौरागढ़) आदि अब प्राचीन ‘कोट’ संस्कृति के प्रतीक मात्र हैं। कोटों के प्रवेश द्वार को कोटद्वार कहा गया।

घट्टपाल भी एक मध्य हिमालय का एक विशिष्ट भौगोलिक पदाधिकारी था, जो घराट तंत्र का रक्षक था। लेकिन पंडित बद्रीदत्त पाण्डे घट्टपाल को घाटियों का रक्षक बतलाते हैं। घराट तंत्र का विकास नदी घाटियों में ही हो पाता है। अतः घराट रक्षक और घाटी रक्षक एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं। क्षेत्रपाल नामक राज्य पदाधिकारी संभवतः गांव/क्षेत्र जैसी प्रशासनिक इकाई का पदाधिकारी था। वर्तमान में ‘क्षेत्रपाल’ कुमाऊँ क्षेत्र का एक स्थानीय ग्राम देवता हैं, जिनका उल्लेख पूजा-पाठ के अवसर पर भी किया जाता है। पौरव वंश के तालेश्वर ताम्रपत्र (विष्णुवर्म्मा) में 24 क्षेत्रों का उल्लेख किया गया है, जहाँ कुल्य, द्रोण और खारि पैमाने द्वारा मापन किया गया था।

राज्याधिकारियों की संख्या दृष्टि से कार्तिकेयपुर उद्घोष वाले ताम्रपत्र अधिक महत्वपूर्ण हैं, जिनमें पर्वतीय क्षेत्र के स्थानीय पदाधिकारियों के साथ-साथ वनों में निवास करने वाली जातियों का उल्लेख भी किया गया है। ललितशूरदेव के राज्याधिकारियों की सूची, उपरोक्त वर्णित दोनों राज्यों की सूची से अधिक विस्तृत है। हिमालयन गजेटियर के लेखक एडविन थॉमस एटकिंसन और पंडित बद्रीदत्त पाण्डे ने ललितशूरदेव के राज्याधिकारियों की सूची का सुमेलन बंगाल के पाल शासकों की सूची से किया। पाल वंश की सूची से पर्वतीय क्षेत्र के विशेष राज्याधिकारियों जैसे- वर्त्मपाल, कौट्टपाल, घट्टपाल और क्षेत्रपाल का नाम सुमेलित नहीं होता है। इसी प्रकार महाराज, महामनुष्य, ठक्कुर, राजस्थानीय, पट्टाकोपचारिक, शेषभंगाधिकृत और बलव्यापृतक आदि कार्तिकेयपुर राज्य पद भी पाल शासकों की सूची से प्राप्त नहीं होते हैं। 


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