कत्यूरी और ताम्रपत्रीय कार्तिकेयपुर राजवंश :-

कत्यूरी और ताम्रपत्रीय कार्तिकेयपुर राजवंश :-  

     उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास के मुख्य स्रोत धार्मिक ग्रंथ और विभिन्न स्थलों से प्राप्त अभिलेख हैं। इस पर्वतीय राज्य का सबसे प्राचीन राजवंश ‘कुणिन्द’ को माना जाता है, जिसका प्राचीनतम् उल्लेख महाभारत से प्राप्त होता है। द्वितीय शताब्दी ईस्वी पूर्व से तृतीय शताब्दी ई. मध्य तक कुणिन्द जनपद पंजाब से उत्तराखण्ड तक विस्तृत था। इस तथ्य की पुष्टि कुणिन्द मुद्राएं करतीं हैं, जो पंजाब के लुधियाना से उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा तक विस्तृत क्षेत्र से प्राप्त हुईं हैं। ये मुद्राएं जिस भौगोलिक क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं, उसका सबसे उत्तरी भाग कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश), दक्षिणी भाग करनाल (हरियाणा), पश्चिमी भाग लुधियाना (पंजाब) तथा पूर्वी भाग अल्मोड़ा (उत्तराखण्ड) है। मिस्र के भूगोलविद् ‘‘टाल्मी, संवत् 144-222 (87-165 ए.डी) ने व्यास, सतलुज, यमुना और गंगाजी के स्रोत्र प्रदेश की ढालों पर कुलिन्दजन के विस्तार का उल्लेख किया है।’’ कुणिन्द मुद्राओं के विभिन्न प्राप्ति स्थल, टाल्मी द्वारा दिये गये विवरण की पुष्टि करते हैं। 
     तीसरी शताब्दी में विशाल कुणिन्द जनपद को आक्रमणकारी शक जाति ने छिन्न-भिन्न कर दिया। चौथी शताब्दी में इस आक्रमणकारी जाति को मध्य हिमालय क्षेत्र में पराजित करने का श्रेय गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय को जाता है, जिसने ‘शकादित्य’ की उपाधि धारण की थी। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने स्त्री वेश में शक राजा की हत्या कर दी थी। इस घटना का उल्लेख विशाखादत्त रचित नाटक देवीचन्द्रगुप्तम् में किया गया है, जिसके अनुसार चन्द्रगुप्त द्वितीय का ज्येष्ठ भ्राता रामगुप्त शकों से पराजित होकर अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को युद्ध-दण्ड के रूप में देने को तैयार हो गया था। परन्तु चन्द्रगुप्त ने स्त्री वेश में शक राजा को मार डाला। इस घटना का उल्लेख सातवीं शताब्दी के कवि    बाणभट्ट और दशवीं शताब्दी के कवि राजशेखर ने भी अपनी रचनाओं में किया है। 
     हर्षचरित (बाणभट्ट) में उल्लेखित ’शक’ जाति को काव्यमीमांसा (राजशेखर) में ’खस’ कहा गया। जबकि खस जाति उत्तराखण्ड की प्राचीन जातियों में से एक थी, जिसका उल्लेख महाभारत में कुलिन्द, पारदा और तड.णा आदि के साथ किया गया है। राजशेखर ने लगभग छः सौ वर्ष पूर्व घटित घटना के काव्यात्मक उल्लेख में ‘शक’ को ’खस’ कहा। इस संबंध में डॉ. रामसिंह लिखते हैं- ‘‘शक तथा खस दोनों ही जातियां पशुचारक थीं। रूप-रंग और आकार-प्रकार में भी उनमें समानता थी। शकजाति के आगमन से बहुत पूर्व ही कश्मीर से पश्चिमी नेपाल तक का सारा हिमालय खशदेश बन चुका था। आगुन्तुक शक तथा अन्य जातियां कालान्तर में उसी खस सागर में विलीन हो गयीं और खस रीति-रिवाजों को अपनाकर उससे अभिन्न हो गई।’’ अतः दशवीं शताब्दी में शक और खस में विभेद करना राजशेखर के लिए कठिन था। कुमाऊँ में आज भी क्षत्रिय (योद्धा) को ’खस’ कहा जाता है और इनके लिए स्थानीय भाषा में ’खसिया’/‘खस्सी’ शब्द प्रयुक्त किया जाता है।
     साहित्यिक स्रोतों से स्पष्ट होता है कि चौथी शताब्दी के अन्त में चन्द्रगुप्त ने शकों को पराजित कर ‘शकादित्य’ की उपाधि के साथ मध्य हिमालय पर अधिकार कर लिया था। जबकि पूर्ववर्ती गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति लेख मध्य हिमालय में स्थित कर्तृपुर राज्य पर उसके अधिकार की पुष्टि करता है। परन्तु रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी प्रकरण से स्पष्ट होता है कि समुद्रगुप्त के मृत्यूपरांत कर्तृपुर के राजा ने अपने को स्वतंत्र शासक घोषित कर लिया था। लेकिन शीघ्र ही चन्द्रगुप्त के पराक्रम से पुनः कर्तृपुर राज्य गुप्त साम्राज्य के अधिकार में आ गया। भविष्य में शक पुनः शक्तिशाली होकर सीमान्त में उपद्रव न करें, चन्द्रगुप्त के लिए यहाँ प्रतिनिधि शासक को नियुक्ति करना आवश्यक था। 
     चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा कर्तृपुर में नियुक्त प्रतिनिधि शासक हेतु मल्ल-पाल वंश के मूल पुरुष ’शालिवाहन’ सबसे उपयुक्त प्रतीत होते हैं, जिनके वंशज आसन्तिदेव आठवीं शताब्दी में जोशीमठ से बागेश्वर की कत्यूर घाटी में आये थे और तब से कत्यूरी कहलाये। अयोध्या के सूर्यवंशी अस्कोट-पाल और डोटी-मल्ल वंश की पृथक-पृथक राजवंशावली कई पुस्तकों में प्रकाशित हो चुकी है। इन दोनों राजवंशों की वंशावली ‘शालिवाहन’ से प्रारंभ होती है और त्रिलोकपालदेव के पश्चात इनका राज्य विभाजित हो गया था। अतः राजा त्रिलोकपालदेव मल्ल-पाल वंश के अन्तिम शासक थे, जिन्हें इतिहासकार कत्यूरी कहते हैं। इनके एक पुत्र अभयपाल सन् 1279 ई. में अस्कोट (पिथौरागढ़ जनपद) में पाल वंश की नींव रखने में सफल हुए थे। इस नवीन राज्य स्थापना के साथ ही कत्यूरियों की राजवंशावली भी दो शाखाओं ‘मल्ल’ और ‘पाल’ में विभाजित हो गयी।
      अभयपाल अपने वंश के मूल पुरुष शालिवाहन के पश्चात 36 वीं पीढ़ी/क्रमांक के शासक थे। एक पीढ़ी को औसतन 25-30 वर्ष माना जाय तो, शालिवाहन का शासन उत्तराखण्ड में लगभग 900 वर्ष पहले आरंभ हुआ था। कत्यूरी राज्य विभाजन वर्ष 1279 ई. से 900 वर्ष घटायें, तो सन् 379 ई. का वर्ष निर्धारित होता है। अतः उत्तराखण्ड में मल्ल-पाल या कत्यूरी वंश के मूल पुरुष शालिवाहन द्वारा शासित राज्य चौथी शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में अस्तित्व में आ चुका था। जबकि समुद्रगुप्त की मृत्यु सन् 375 ई. में हुई थी। इस गुप्त राजा के मरणोपरांत की घटनाओं का क्रम इस प्रकार से है- उत्राखण्ड में शकों का विद्रोह, रामगुप्त की पराजय, ध्रुवस्वामिनी प्रकरण और चन्द्रगुप्त द्वितीय की शकों पर विजय। गुप्त काल की ये घटानाएं, शालिवाहन के उत्तराखण्ड में राज्य स्थापित करने के कालखण्ड से सुमेलित होती है। संभवतः चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अयोध्या के सूर्यवंशी शालिवाहन को कर्तृपुर राज्य का एक अधीनस्थ शासक नियुक्त किया। 
     कालान्तर में कर्तृपुर से ही कार्तिकेयपुर और कत्यूरी जैसे शब्द अस्तित्व में आये। ध्रुवस्वामिनी प्रकरण पर कवि बाणभट्ट ने कृर्तपुर को सातवीं शताब्दी में ’अरिपुर’ तथा कवि राजशेखर ने दशवीं शताब्दी में कार्तिकेय नगर कहा। संभवतः उत्तराखण्ड के तथाकथित कत्यूरी या कार्तिकयपुर के ताम्रपत्रों (नौवीं शताब्दी) में उल्लेखित ’कार्तिकेयपुर’ को दशवीं शताब्दी में राजशेखर ने ’कार्तिकेय नगर’ कहा। ‘‘यू.एन.राय का विचार है कि कार्तिकेय नगर या कार्तिकेयपुर वस्तुतः प्रयाग प्रशस्ति में उल्लिखित कर्तृपुर नामक स्थान है जो समुद्रगुप्त का पर्यन्त राज्य था।’’ भण्डारकर ने चन्द्रगुप्त और शकों के मध्य हुए युद्ध के स्थल को कार्तिकेय नगर मानते हुए, इसकी पहचान बागेश्वर जनपद के बैजनाथ ग्राम से की है।
      उत्तराखण्ड के इतिहास पर कार्य करने वाले अधिकांश विद्वान गरुड़ के निकट गोमती घाटी में स्थित  बैजनाथ को ही कार्तिकेयपुर मान्य करते हैं। बैजनाथ को कार्तिकेयपुर मानने का एक प्रमाण बैजनाथ-शिलालेख (अस्पष्ट) है, जिममें बैजनाथ को ’’वैद्यनाथ-कार्तिकेयपुर’’ कहा गया है।’’ छठी शताब्दी के पौरव ताम्रपत्र से ‘ब्रह्मपुर-कार्तिकेयपुर‘ नामक ग्राम का उल्लेख प्राप्त होता है। जबकि इस ताम्रपत्र में उल्लेखित कार्तिकेयपुर के अतिरिक्त अन्य ग्रामों के साथ ब्रह्मपुर को संयुक्त नहीं किया गया है। पौरव ताम्रपत्र में कार्तिकेयपुर के साथ ब्रह्मपुर को संयुक्त करने से स्पष्ट होता हैं कि तत्कालीन उत्तराखण्ड में एक से अधिक कार्तिकेयपुर नामक ग्राम थे। अतः कार्तिकेयपुर विषय को वैद्यनाथ-कार्तिकेयपुर के रूप चिह्नित करना कठिन है। 
यदि बैजनाथ को कार्तिकेयपुर मान भी लें तो, बागेश्वर के निकट कार्तिकेयपुर पर 22 से अधिक वर्षों तक शासन और कार्तिकेयपुर उद्घोष वाले तीन-तीन ताम्रपत्रों को निर्गत करने वाला राजा ललितशूरदेव बागेश्वर शिलालेख पर अपनी वंशावली क्यों नहीं उत्कीर्ण करवाते हैं ? जबकि इस शिलालेख का अंतिम लेखांश उनके पुत्र भूदेवदेव ने लिखवाया था। 
      उत्तराखण्ड के इतिहासकार डॉ. यशवंत सिंह कठोच लिखते हैं- ‘‘कार्तिकेयपुर, कत्यूर का संस्कृतीकृत रूप नहीं है।’’ डॉ. शिवप्रसाद डबराल कर्तृपुर राज्य को ’जोशीमठ’ से संबद्ध करते हैं। जबकि बागेश्वर जनपद का गढ़वाल सीमावर्ती क्षेत्र गोमती घाटी कत्यूर नाम से प्रसिद्ध है, जो ब्रिटिश काल में मल्ला, बिचला और तल्ला कत्यूर पट्टियों में विभाजित थी।
पं. रामदत्त त्रिपाठी के उद्धरण के आधार पर पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘आसन्तिदेव ने रणचूलाकोट (बैजनाथ) पर आक्रमण किया। नरसिंह देवता के शाप के अनुसार वह जोशीमठ से कत्यूर को आये।’’ आसन्तिदेव, शालिवाहन वंशावली में 19 वीं पीढ़ी में या अस्कोट-पाल शासक अभयपाल (सन् 1279 ई.) से 18 वीं पीढ़ी पूर्व कत्यूर के राजा थे। 25-30 वर्ष की एक पीढ़ी के आधार पर आसन्तिदेव ने अभयपाल से लगभग 450 से 540 वर्ष पूर्व कत्यूर घाटी पर राज्य किया था। निश्चित ही आसन्तिदेव का शासन लगभग सन् 739 से 829 के मध्य या आठवीं-नौवीं शताब्दी में रहा था।
      इतिहासकार आसन्तिदेव को बागेश्वर शिलालेख का मसन्तनदेव (भसन्तनदेव) बतलाते हैं, जो उचित तथ्य प्रतीन नहीं होता है। क्योंकि मसन्तनदेव के उत्तराधिकारी ‘ददौ’ थे। जबकि आसन्तिदेव के उत्तराधिकारी क्रमशः बासन्तिदेव और कटारमल्लदेव थे। अतः आसन्तिदेव को प्रथम कत्यूरी शासक के स्थान पर कत्यूर घाटी का प्रथम शालिवाहन वंशज कह सकते हैं, जिन्होंने सन् 739 ई. के आस पास रणचूलाकोट (कत्यूर घाटी) पर आक्रमण किया था। कत्यूर को विजित करने के पश्चात आसन्तिदेव ने अपने पुत्र बासन्तिदेव की सहायता से ब्रह्मपुर (चौखुटिया) को भी विजित किया। ‘‘गानेवाले भड़ कहते हैं- 
          आसन वाका वासन वाका सिंहासन वाका,
          वाका    ब्रह्म     वाका     लखनपुर।’’
एडविन थॉमस एटकिंसन के अनुसार आसन व वासन इस छंद में कत्यूरी राजाओं के नाम हैं। ब्रह्म व लखनपुर तो वास्तव में राज्य व राजधानी के नाम हैं। इस लोक छंद के आधार पर विद्वान ‘आसन’ को आसन्तिदेव तथा ‘वासन’ को वासन्तिदेव से संबंध करते हैं। ‘ब्रह्म’ को ब्रह्मपुर और लखनपुर को चौखुटिया के निकटवर्ती लखनपुर से संबद्ध करते हैं। चीनी यात्री ह्वैनसांग के यात्रा विवरण से स्पष्ट होता है कि ब्रह्मपुर राज्य का अस्तित्व सातवीं शताब्दी में भी था। यह लोक छंद आठवीं शताब्दी में ब्रह्मपुर पर कत्यूरी आसन्तिदेव और उनके उत्तराधिकारी बासन्तिदेव के प्रभाव की पुष्टि करता है।
इतिहासकार बागेश्वर एवं पाण्डुकेश्वर के अभिलेखों में उत्कीर्ण शासकों को भी कत्यूरी वंश से संबद्ध करते हैं। यदि अस्कोट-पाल और डोटी-मल्ल शासक कत्यूरी वंशज थे, तो कार्तिकेयपुर और बागेश्वर अभिलेख में उत्कीर्ण राजा कत्यूर घाटी के शासक तो हो सकते हैं, लेकिन कत्यूरी वंश या शालिवाहन वंशज नहीं हो सकते हैं। इस संबंध में निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत हैं-
1- बागेश्वर शिलालेख में उत्कीर्ण किसी भी राजा का नाम पाल-मल्ल वंशावली से सुमेलित नहीं होता है। इस अभिलेख में उत्कीर्ण राजाओं का कत्यूरी वंश (पाल-मल्ल वंश) से कोई संबंध भी स्थापित नहीं होता है। यह शिलालेख पृथक-पृथक तीन राजवंशों से संबद्ध है, जिसमें क्रमशः मसन्तनदेव, खर्परदेव तथा निम्बर की वंशावली उत्कीर्ण है।
2- पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों में उत्कीर्ण किसी भी राजा का नाम, पाल-मल्ल वंशावली से सुमेलित नहीं होता है। अतः इन ताम्रपत्रां में उत्कीर्ण शासक कत्यूरी (पाल-मल्ल) वंश के नहीं थे। ये ताम्रपत्र उत्तराखण्ड के दो राजवंशों निम्बर और सलोणादित्य की वंशावली को प्रकाश में लाते हैं। 
3- बागेश्वर शिलालेख से स्पष्ट होता है कि मसन्तनदेव, खर्परदेव या निम्बर वंश के अस्तित्व में आने से पूर्व ही बागेश्वर मंदिर अस्तित्व में था। इस शिलालेख के प्रथम पंक्ति में लिखा है- ’इस सुन्दर मंदिर के दक्षिण-भाग में विद्वानों द्वारा रचित राजवंशावली उत्कीर्ण है।’ अर्थात मध्य हिमालय के राजा अपनी वंशावली इस शिलालेख में उत्कीर्ण करवाते थे। शालिवाहन का वंश या कत्यूरी वंश (मल्ल-पाल वंश) वर्तमान में भी अस्कोट-राजपरिवार के रूप में अस्तित्व में है। लेकिन इस वंश के किसी भी शासक का नाम बागेश्वर शिलालेख में उत्कीर्ण न होना रहस्यमयी घटना है। 

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