बागेश्वर शिलालेख और उत्तराखण्ड के प्राचीन राजवंश :-

 ‘बागेश्वर शिलालेख’ और उत्तराखण्ड के प्राचीन राजवंश :-

     उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास में कुणिन्द, पौरव और कत्यूरी राजवंश का प्रमुख स्थान है। कुणिन्द इतिहास के मुख्य स्रोत कुणिन्द मुद्राएं हैं, तो पौरव वंश की जानकारी ताम्रपत्रों से प्राप्त होती है। कत्यूरी इतिहास को बागेश्वर जनपद के कत्यूरी घाटी (गोमती घाटी) से संबद्ध किया गया है, जिसके अंतिम छोर पर बागेश्वर नगर है, जहाँ गोमती और सरयू का संगम तीर्थ है। इस तीर्थ के अंतस्थ भाग में बागनाथ का प्राचीन मंदिर है, जहाँ से ब्रिटिश काल में एक शिलालेख प्राप्त हुआ था। इस प्राचीन शिलालेख के संबंध में पंडित बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ’’ललितशूर के पुत्र भूदेव ने अपने सिंहासनारोहण के चौथे वर्ष के दान का बागेश्वर के मंदिर में एक शिलालेख लगवाया था, जो कितने ही साल हुए, लुप्त हो गया। एटकिन्सन ने शतियों से घिसे उस लेख का अंग्रेजी अनुवाद अपने ग्रन्थ में छापा है।’’ 

     लुप्त हो चुके इस शिलालेख पर बागेश्वर का नाम बाणेश्वरम् लिखा गया था। कार्तिकेयपुर नरेश भूदेवदेव के अतिरिक्त इस शिलालेख पर मसनतदेव, ...ददौ, खर्परदेव, कल्याणराजदेव, त्रिभुवनराजदेव, निम्बरदेव, इष्टगणदेव और ललितशूरदेव के नाम उत्कीर्ण हैं, जिन्हें इतिहासकार कत्यूरी राजा कहते हैं। ललितशूरदेव के दो ताम्रपत्र चमोली के पाण्डुकेश्वर मंदिर से प्राप्त हुए हैं, जिन्हें ‘कार्तिकेयपुर’ विषय (जनपद) से निर्गत किया गया था। इन ताम्रपत्रां तथा बागेश्वर शिलालेख में उल्लेखित शासकों को इतिहासकार उत्तराखण्ड का सर्वाधिक शक्तिशाली राजवंश ‘कत्यूरी’ से संबद्ध करते हैं।

  बागेश्वर शिलालेख की प्रथम पंक्ति- ‘‘स्वस्ति।। श्रीमति देदीप्ते देवद्वारदखिणे एतं बाणेश्वरं तिर्थमही पाठकगणेन।’’ का अनुवाद एडविन थॉमस एटकिंसन इस प्रकार से लिखते हैं- ओम् नमः। इस सुन्दर मंदिर के दक्षिण-भाग में विद्वानों द्वारा राजवंशावली उत्कीर्ण है।’’ उत्तराखण्ड में प्राचीन मंदिरों के अतिरिक्त नौलों के शिलापट्ट पर भी अभिलेख उत्कीर्ण करवाने की परम्परा थी। बागेश्वर के लुप्त हो चुके शिलालेख पर राजाओं के नाम उपाधि और रानी सहित -  

1- परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर भसन्तनदेव या मसन्तनदेव और उनकी महादेवी साज्यनरा देवी।

2- परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर .....ददौ । 

3- परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर खर्परदेव और उनकी महादेवी कल्याण देवी।

4- परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर कल्याणदेव और उनकी महादेवी लद्धा देवी।

5- परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर त्रिभुवनराजदेव।

6- उपाधि रहित निम्बर और उनकी रानी नाथूदेवी। 

7- परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर इष्टगणदेव और उनकी महादेवी धरा देवी।

8- परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर ललितशूरदेव और उनकी महादेवी साम देवी।

9- परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर भूदेवदेव।

 बागेश्वर शिलापट्ट पर उक्त कुल नौ राजाओं के नाम उत्कीर्ण किये गये थे, जिनमें से आठ ने ’परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ की उपाधि धारण की थी। अर्थात ये ’परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ उपाधि धारक ये आठ शासक स्वतंत्र थे। इस शिलालेख पर राजा निम्बर का नाम उपाधि रहित उत्कीर्ण किया गया था। इस तथ्य की पुष्टि ललितशूरदेव के द्वारा निर्गत कार्तिकेयपुर ताम्रपत्र भी करते हैं। निश्चित ही कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूरदेव के दादा ‘निम्बर’ स्वतंत्र शासक के स्थान पर एक अधीनस्थ शासक थे।

प्राचीन बागेश्वर शिला पर सर्वप्रथम राजा भसन्तनदेव या मसंतनदेव का नाम उत्कीर्ण किया गया था। इस राजा के साथ उनकी रानी साज्यनरा देवी तथा तत्पश्चात पुत्र का नाम परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर उपाधि सहित ’ददौ’ (अस्पष्ट) उत्कीर्ण था। इतिहासकार इस शिलालेख में उत्कीर्ण ’भसन्तनदेव’ या ’मसंतनदेव’ को कत्यूरी वंश (कत्यूर घाटी-बागेश्वर) के प्रथम शासक ’आसन्तिदेव’ से संबद्ध करते हैं, जो उचित प्रतीत नहीं होता है। 

       यह शिलालेख एक राजवंश का नहीं बल्कि एक से अधिक राजवंशों का संयुक्त अभिलेख था, जिसका प्रथम लेखांश मसंतनदेव के पुत्र ....ददौ ने उत्कीर्ण करवाया था। इस प्रथम लेखांश का शिला पर उत्कीर्ण खर्परदेव से कोई संबंध स्पष्ट नहीं होता है। इस शिला पर दूसरा लेखांश त्रिभुवनराजदेव ने उत्कीर्ण करवाया था, जिसे प्रो. डी.डी. शर्मा खस राजा भी कहते हैं। इस द्वितीय लेखांश में त्रिभुवनराजदेव ने अपने दादा-दादी (खर्परदेव- कल्याणीदेवी) और माता-पिता (लद्धादेवी-कल्याणराजदेव) का नाम उत्कीर्ण किया। इस शिला पर तीसरा लेखांश कार्तिकेयपुर नरेश ललितशूदेव के पुत्र भूदेवदेव ने उत्कीर्ण करवाया था। इस राजा ने परम्परानुसार अपने परदादा-परदादी (निम्बरदेव-नाथूदेवी), दादा-दादी (इष्टगणदेव-धरादेवी) और माता-पिता (सामदेवी-ललितशूरदेव) का नाम उत्कीर्ण करवाया था। 

      भूदेवदेव ने शिला पर पहले से उत्कीर्ण अन्य राजाओं- मसंतनदेव, ...ददौ, खर्परदेव, कल्याणदेव और त्रिभुवनराजदेव से किसी भी प्रकार का संबंध स्थापित नहीं किया। अतः बागेश्वर मंदिर से प्राप्त शिला पर तीन पृथक-पृथक राजवंशों का अभिलेख उत्कीर्ण था। ‘‘प्रो. सरकार ने सर्वप्रथम इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया कि बागेश्वर-शिलालेख पर तीन विभिन्न राजाओं के तीन दानलेख हैं।’’

      पाण्डुकेश्वर और बागेश्वर अभिलेख में आरम्भिक वाक्यांश लिखने की शैली एक जैसी ही है। जहाँ पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रों का आरम्भ ‘‘स्वस्ति।। ‘‘श्रीमत्कार्तिकेयपुरात  सकलामरदितितनुज’’ से किया गया था, वहीं बागेश्वर शिलालेख का आरंभ ‘‘स्वस्ति।। श्रीमति देदीप्ते’’ से किया गया। इसी शिलालेख पर भूदेवदेव का लेखांश- ‘‘श्रीमल्लन्ति वस्सरात् सकलामरदितितनुज’’ से आरम्भ किया गया। संभवतः अस्पष्ट और घिसे हुए शिला में ’श्रीमत्कार्तिकेयपुरात्’ को एटकिंसन ने श्रीमल्लन्ति वस्सरात् पढ़ा हो। इस शिला पर उत्कीर्ण भूदेवदेव का लेखांश, लेखन शैली की दृष्टि से अपने पिता ललितशूरदेव के ताम्रपत्रों से अभिन्नता रखता है और ‘स्वस्ति श्रीमत्कार्तिकेयपुरात्’ के साथ अभिलेख उत्कीर्ण करवाना कार्तिकेयपुर राज्य की अभिलेख लेखन की एक मुख्य विशेषता थी। कार्तिकेयपुर राज्य की इस लेखन शैली का उपयोग सलोणादित्य वंश के राजा पद्मटदेव ने भी किया। जबकि बागेश्वर शिलालेख के ऊपरी भाग में उत्कीर्ण ददौ और त्रिभुवनराजदेव के लेखांश में ‘स्वस्ति श्रीमत्कार्तिकेयपुरात्’ वाक्यांश को प्रयुक्त नहीं किया गया। 

      बागनाथ शिलालेख में ’...ददौ’, ’त्रिभुवनराजदेव’ और ’भूदेवदेव’ तीन ऐसे राजा थे, जिनके नाम के साथ उनकी महादेवी (महारानी) का नाम उत्कीर्ण नहीं था। जबकि इन तीनों के अतिरिक्त इस शिलालेख में आये सभी राजाओं के नाम उनकी महादेवी सहित उत्कीर्ण थे। पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रां से भी स्पष्ट होता है कि कार्तिकेयपुर राज्य में अभिलेख निर्गत कर्ता राजा अपनी महादेवी का नाम अपने साथ उत्कीर्ण नहीं करवाता था। जबकि वह अपने वंश के पूर्ववर्ती राजाओं के साथ उनकी महादेवी का अवश्य उल्लेख करते थे। सातवीं शताब्दी के कन्नौज शासक हर्ष के बांसखेड़ा और मधुबन ताम्रपत्र भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। अतः बागेश्वर शिलालेख को ...ददौ, त्रिभुवनराजदेव और भूदेवदेव ने उत्कीर्ण करवाया था। 

      ब्रह्मपुर के पौरव और ताम्रपत्रीय कत्यूरियों के ताम्रपत्रों तथा बागेश्वर शिलालेख में ‘कुशली’ शब्द उत्कीर्ण किया गया है। ‘कुशली’ शब्द की व्युत्पत्ति ’कुशल’ शब्द में ’ई’ प्रत्यय (कुशल ᐩ ई) लगाने से होती है। जैसे- देश से देशी, सूत से सूती। कुशल शब्द संस्कृत का पुल्लिंग/विशेषण शब्द है। विशेषण रूप में कुशल का अर्थ- चतुर, प्रवीण, प्रसन्न तथा पुल्लिंग रूप में- मंगल, शिव, गुण, चतुरता होता है। ’ई’, संस्कृत का गुणवाचक प्रत्यय है। कुशल (प्रसन्न) के स्थान पर ’कुशली’ (प्रसन्नता) शब्द को उत्तराखण्ड के विभिन्न अभिलेखों में इस प्रकार से प्रयुक्त किया गया-

1- द्युतिवर्म्मन (पौरव) के ताम्रपत्र में- ‘‘द्युतिवर्म्मा कुशली पर्व्वताकार-राज्ये।’’

2- विष्णुवर्म्मन (पौरव) के ताम्रपत्र में- ‘‘ विष्णुवर्म्मा समुपचित-कुशल-व (ब) ल-वीर्यः पर्व्वताकर राज्ये।

3- ललितशूरदेव (कत्यूरी) का राज्य संवत् 21 वें वर्ष के ताम्रपत्र में- ‘‘ललितशूरदेवः कुशली अस्मिन्नेव श्रीमत्कार्तिकेयपुर विषये।‘‘

4- ललितशूरदेव का राज्य संवत् 22 वें वर्ष के ताम्रपत्र में- ‘‘ललितशूरदेवः कुशली श्रीमत्कार्तिकेयपुर विषये।‘‘

5- ललितशूरदेव का राज्य संवत् 24 वें वर्ष के ताम्रपत्र में- ‘‘ललितशूरदेवः कुशली श्रीमत्कार्तिकेयपुर विषये।‘‘

6- पद्मटदेव का राज्य संवत् 25 वें वर्ष के ताम्रपत्र में- ‘‘श्रीमत्पद्मटदेवः कुशली टंकणपुर विषये।’’

7- सुभिक्षराज का  राज्य संवत् 4 वें वर्ष के ताम्रपत्र में- ‘‘श्रीमत् सुभिक्षराज देवः कुशली टंकणपुर विषये अन्तरांगविषये च।’’

8- मसन्तनदेव के पुत्र ददौ का बागेश्वर शिलालेख में- ‘‘महाराजाधिराज परमम्बरशाय स्वैरं स्वैरं ददौ कुशली जयकुलभुक्ति।’’

9- त्रिभुवनराजदेव का राज्य संवत् 11 का बागेश्वर शिलालेख में- ‘‘श्रीत्रिभुवनराजदेवः कुशली जयकुलभुक्ति।’’

10- भूदेवदेव का राज्य संवत् 4 का बागेश्वर शिलालेख में- ‘‘श्री भूदेवदेवः ......जयकुलदुर्ग।’’

   निष्कर्ष-

1- ‘कुशली’ शब्द का उपयोग ताम्रपत्रों (पौरव और कत्यूरी) और शिलालेख (बागेश्वर) में शासक और स्थान (राज्य/भुक्ति और विषय) के मध्य में किया गया है।

2- ‘कुशली’ शब्द को अभिलेख उत्कीर्ण करवाने वाले शासक के पश्चात लिखा जाता था, जो उस राजा के सकुशल होने को प्रमाणित करता था। जबकि अभिलेख में उत्कीर्ण अन्य शासकों के साथ ’कुशली’ शब्द प्रयुक्त नहीं किया जाता था।

संभवतः भूदेवदेव और जयकुलभुक्ति के मध्य का ’कुशली’ शब्द बागेश्वर के घिसे हुए शिलालेख में पढ़ने में न आया हो। भूदेवदेव के अतिरिक्त उक्त सभी अभिलेख निर्गत करने वाले राजाओं के नाम और प्रशासनिक क्षेत्र के मध्य ’कुशली’ शब्द को प्रयुक्त किया गया था। अतः अभिलेख उत्कीर्ण करवाने वाले शासक के नामोपरांत ’कुशली’ शब्द प्रयुक्त करने की परम्परा प्राचीन उत्तराखण्ड में प्रचलित थी। पौरवों के परवर्ती और कार्तिकेयपुर नरेशों के पूर्ववर्ती कन्नौज सम्राट हर्ष के ताम्रपत्रों से ’कुशली’ शब्द प्राप्त नहीं होता है। यथा- ’महाराजाधिराज श्री हर्षः अहिच्छत्र भुक्तावंगदीयवैषयिक’। यहाँ राजा हर्ष और भुक्ति अहिच्छत्र के मध्य ’कुशली’ शब्द प्रयुक्त नहीं किया गया।

 उत्तराखण्ड के जयकुल भुक्ति, ब्रह्मपुर और कार्तिकेयपुर नरेशों के अभिलेखों में ’कुशली’ शब्द को प्रयुक्त करने से स्पष्ट होता है कि बागेश्वर शिलालेख एक नहीं, एक से अधिक राजवंशों का अभिलेख था। अभिलेख में ‘...ददौ’ और जयकुल भुक्ति के मध्य ’कुशली’ शब्द प्रयुक्त किया गया था। अतः बागेश्वर शिलालेख का प्रथम उत्कीर्ण कर्ता ’....ददौ’ था। इस शिलालेख पर दूसरा लेखांश ‘खर्परदेव’ के पौत्र ‘त्रिभुवनराजदेव’ ने राज्यारोहण के ग्यारहवें वर्ष उत्कीर्ण करवाया था। तीसरा और अंतिम लेखांश ‘निम्बर’ के प्रपौत्र ‘भूदेवदेव’ ने राज्य संवत् चार को उत्कीर्ण करवाया था। 

      वर्तमान बागेश्वर नगर, प्राचीन काल में एक ‘भुक्ति’ (राज्य) था, जिसका नाम ‘जयकुल’ था। उत्तराखण्ड के प्राचीन अभिलेखों में उल्लेखित कार्तिकेयपुर, टंकणपुर और अंतरांग आदि नगर प्राचीन काल में एक ‘विषय’ (जनपद) थे। 

उत्तराखण्ड के इतिहासकारों द्वारा बागेश्वर शिलालेख में उत्कीर्ण सभी शासकों को एक वंश (कत्यूरी वंश) से संबद्ध करना, उक्त तथ्यों के क्रम में उचित प्रतीत नहीं होता है। ‘‘कार्तिकेयपुर के राजाओं के लिए कत्यूरी नामक अबाध प्रयोग सर्वप्रथम एडविन टी. एट्किन्सन ने अपने हिमालयन डिस्ट्रिक्ट्स (खण्ड 2, 1884 ई.) में किया। उसकी यह भ्रान्त धारणा अनुश्रुतियों एवं सुनी-सुनायी बातों पर अवलम्बित थी। उसकी इस भ्रान्ति ने क्रमागत दो राजवंशों को एक मान लिया।’’ एटकिन्सन की एक अवधारणा के कारण इतिहासकारों ने मसन्तनदेव, खर्परदेव, निम्बर और सलोणादित्य को कत्यूरी वंश से संबद्ध कर दिया। जबकि मसन्तनदेव, खर्परदेव और निम्बर में केवल इतना ही विशिष्ट संबंध है कि उनकी राजवंशावली बागनाथ शिला पर उत्कीर्ण थी तथा इनके वंशजों ने कत्यूर क्षेत्र पर शासन किया था।


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