गंगोलीहाट का मणकोटी राजवंश -

 गंगोलीहाट का मणकोटी राजवंश -  

वर्तमान में गंगोलीहाट, सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ का एक तहसील नगर है, जहाँ कालिका का सुप्रसिद्ध शक्तिपीठ है। कुमाऊँ के इस शक्तिपीठ की प्राचीनता को आदि गुरु शंकराचार्य से संबद्ध किया जाता है। इस शक्तिपीठ के प्रति स्थानीय जन मानस की ही नहीं बल्कि भारतीय सेना की भी अपार श्रद्धा है। ‘जय कालिका’ युद्ध-घोष के साथ कुमाऊँ रेजीमेंट देश के लिए कई युद्धों में सफलता प्राप्त कर चुकी है। गंगोलीहाट दो शब्दों ‘गंगोली’ और ‘हाट’ से बना है। गंगोली की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द ‘गंगावली’ से हुई है, जिसका अर्थ ‘गंगाओं की कतार’ है। जिस प्रकार ‘रावत’ से कुमाउनी शब्द ‘रौत’ या ‘रोत’ की व्युत्पत्ति हुई, गंगावली से गंगोली की हुई। ‘हाट’ भी संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ ‘बाजार’ होता है। प्राचीन काल में उत्तराखण्ड के स्थान विशेष पर ‘हाट’ का आयोजन किया जाता था, जो स्थान विशेष- जैसे डीडीहाट, द्वाराहाट, बगड़ीहाट, तैलीहाट और बाड़ाहाट के नाम से प्रसिद्ध हुए। 

        प्राचीन काल में गंगोली क्षेत्र की हाट 29° 39‘ 19‘‘ उत्तरी अक्षांश और 80° 02‘ 30‘‘ पूर्वी देशान्तर रेखा पर आयोजित की जाती थी, जिसे अब गंगोलीहाट कहा जाता है, जहाँ कत्यूरी शैली में निर्मित मंदिरों का एक समूह है। इस मंदिर परिसर में कत्यूरी शैली में निर्मित एक नौला है, जिसे जाह्नवी नौला कहा जाता है। इस भव्य नौले के वाह्य प्राचीर पर एक शिलापट्ट स्थापित है, जिसे राजा रामचन्द्रदेव ने सन् 1275 ई. में उत्कीर्ण करवाया था। ‘देव’ उपनाम के कारण गंगोली के इस राजा को उत्तर कत्यूरी राजवंशी कह सकते हैं। लेकिन इतिहासकार समग्ररूप में गंगोली के समस्त राजाओं को मणकोटी राजवंश से संबद्ध करते हैं, जिनके राज्य का अंत सोलहवीं शताब्दी में चंद राजा कल्याणचंद ने किया था।

        गंगोलीहाट के मणकोटी राजाओं के संबंध में पंडित बद्रीदत्त पाण्डे ने निम्नलिखित ऐतिहासिक तथ्य ’कुमाऊँ का इतिहास’ नामक पुस्तक में प्रस्तुत किये हैं-

1- ‘‘कत्यूरी राज्य के समय तमाम गंगोली का एक ही राजा था। उसके नगर व किले का नाम मणकोट था। राजा भी मणकोटी कहलाता था।’’

2- ‘‘गंगोली परगने में मणकोटी राजा थे। यह नेपाल में पिउठणा से आये थे और अपने को चंद्रवंशी राजपूत कहते थे।’’

3- ‘‘ये प्रायः स्वतंत्र थे। डोटी के महाराजा को साधारण कर देते थे।’’

4- ‘‘8 पुश्त तक इस वंश के राजा ने राज्य किया। बाद में चंद राजाओं ने इन्हें हराकर इनका राज्य कुमाऊँ में शामिल किया। ये लोग नेपाल के पिऊठणा नामक स्थान को चले गये। अब भी इनकी सन्तान वहाँ पर हैं।’’

5- मणकोटी राजाओं के नाम- ‘‘राजा कर्मचंद, राजा ताराचंद, राजा सीतलचंद, राजा ब्रह्मचंद, राजा हिंगलचंद, राजा पुन्यचंद, राजा अनीचंद तथा राजा नारायणचंद।’’

6- ‘‘मणकोटी राजाओं के आरम्भिक दीवान उप्रेती तथा बाद में पंत हुए।’’

7- ‘‘मणकोटी राजाओं के यहाँ लिखने का काम चौधरी करते थे।’’

8- अंतिम मणकोटी राजा नारायणचंद के समय चंद शासक बालो कल्याणचंददेव ने गंगोली को अपने राज्य में मिला लिया। 

उक्त तथ्यों के अनुसार मणकोटी राजवंश ने गंगावली में कुल 8 पीढ़ियों तक शासन किया था। अनुमानतः इस राजवंश ने लगभग 200 वर्षों (25 गुणा 8) तक गंगोली में राज्य किया था। इस क्षेत्रीय राजवंश के पतन का श्रेय चंद राजा बालो कल्याणचंद को जाता हैं, जिसके जाखपंत ताम्रपत्र (शाके 1482/सन् 1560 ई.) में ‘गंगालो’ का उल्लेख किया गया है। इस ताम्रपत्र और अन्य चंद ताम्रपत्रों में उल्लेखित गंगालो नामक नवीन राज्य पद से स्पष्ट होता है कि कल्याणचंददेव ने सन् 1560 ई. में गंगोली पर अधिकार कर लिया था। चंदों की इस विजय ने गंगोली से मणकोटी राजवंश की सत्ता का सदैव के लिए अंत कर दिया। सन् 1560 ई. से यदि लगभग 200 वर्ष घटायें तो, मणकोटी राजवंश का शासन गंगोली में संभवतः सन् 1360 ई. के आस पास आरम्भ हुआ था। अतः उत्तर कत्यूरियों के पतनोपरांत गंगोली में मणकोटी राजवंश का उदय चौदहवीं शताब्दी में हुआ था।

गंगोली राजा धारलदेव का बैजनाथ लेख-

बागेश्वर के गरुड़ घाटी में स्थित बैजनाथ से गंगोली के राजा ’धारलदेव’ का एक प्रस्तर लेख प्राप्त हुआ है, जिसमें सन् 1352 ई. की तिथि उत्कीर्ण थी। इस प्रस्तर लेख और सन् 1360 ई. के आस पास गंगोली में मणकोटी राजवंश का उदय होना, दोनों घटनाएं एक दूसरे से अभिन्न प्रतीत होती हैं। सम्भवतः सन् 1352 ई. के आस पास ही गंगोली में सत्ता परिर्वतन की घटना घटित हुई। एक संभावना यह हो सकती थी कि जब धारलदेव मंदिर कलश निर्माण हेतु बैजनाथ गये थे, तो मणकोटी राजवंश के प्रथम राजा कर्मचंद ने गंगोली में उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर सत्ता परिवर्तन कर दिया। 

मणकोटी राजवंश का मूल निवास-

मणकोटी राजवंश का मूल निवास नेपाल के पिउठणा नामक स्थान में था। इस राजवंश द्वारा गंगोली में सत्ता परिवर्तन के तरीकों पर इस प्रकार से विवेचना कर सकते हैं- प्रथम, मणकोटी कर्मचंद ने गंगोली के अंतिम उत्तर-कत्यूरी शासक ’धारलदेव’ के राज्य पर आक्रमण कर उन्हें पराजित किया था। दूसरा, मणकोटी कर्मचंद का प्रवास गंगोली में सत्ता परिवर्तन से पूर्व हो चुका था और उन्हें सत्ता परिवर्तन हेतु स्थानीय लोगों का समर्थन प्राप्त था। प्रथम कारण बहुत ही कमजोर आधार वाला है। क्योंकि नेपाल मूल के कर्मचंद यदि गंगोली पर आक्रमण करते, तो उनके लिए सीरा या सोर राज्य पर भी अधिकार करना आवश्यक था। सन् 1352 के आस पास सीरा पर शक्तिशाली मल्ल राजा नागमल्ल, अस्कोट पर निरैपाल और सोर पर विजयब्रह्म का शासन था। गंगोली के मणकोटी राजा सीराकोट के मल्लों के करद रहे थे। अतः द्वितीय मत ही उपयुक्त प्रतीत होता है। 

मणकोटी राज्य के ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर डॉ. यशवंत सिंह कठोच लिखते हैं- ‘‘इनकी  राजधानी मणकोट में थी। गंगोलीहाट इनकी प्रमुख बस्ती थी। यह ठकुराई डोटी राज्य के अधीन थी।’’ संभवतः सन् 1352 ई. से पूर्व चंद्रवंशी कर्मचंद नेपाल के पिउठणा से गंगोली राज्य में आव्रजन कर चुके थे। तथा इनके द्वारा सत्ता प्राप्त करने का अर्थ है कि इन्होंने धारलदेव की राज्यसभा में उच्च पद प्राप्त कर लिया था। चौदहवीं शताब्दी में कर्मचंद द्वारा गंगोली में सत्ता परिवर्तन करना, स्थानीय प्रभावशाली लोगों की सहायता से संभव था।

       गंगोली में सत्ता परिवर्तन में कर्मचंद के सहयोगी कौन थे ? पिउठणा के चंद्रवंश का नाम कैसे मणकोटी हो गया ? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर गंगोलीहाट का ‘मणकोट’ नामक दुर्ग ही दे सकता है। यह दुर्ग 29° 39‘ 54‘‘ उत्तरी अक्षांश और 80° 02‘ 27‘‘ पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। इतिहासकारों के मंतव्य विवेचन के आधार पर गंगोली के शासकों ने मणकोट से राज-काज चलाया था। मणकोट केन्द्रित शासन को ही इतिहासकार मणकोटी राजवंश की संज्ञा देते हैं। इसी प्रकार कत्यूर से संचालित राजसत्ता को इतिहासकारों ने कत्यूरी वंश कहा है। कत्यूरी घाटी से दूर संभवतः चौदहवीं शताब्दी में सत्ता परिवर्तन का खेल मणकोट में ही खेला गया था। इस कोट में ही पिउठणा के चंद्रवंशीय राजपूत कर्मचंद ने गंगोली-शासक के रूप में राज्याभिषेक करवाया और मणकोटी कहलाये। वस्तुतः सन् 1352-53 ई. के आस पास गंगोली का ‘हाट’ केन्द्रित राजसत्ता का स्थानान्तरण मणकोट में हो चुका था।

मणकोट का सामरिक महत्व -

मणकोट का सामरिक महत्व देखें, तो यह दुर्ग एक अग्रिम चौकी सा है, जो पूर्वी रामगंगा क्षेत्र (सोर-सीरा) से या कत्यूर से होने वाले आक्रमण से हाट-हनेरा क्षेत्र (वर्तमान गंगोलीहाट नगर) को सुरक्षित रख सकता था। मणकोट नामक स्थान को दुर्ग की संज्ञा जिस गुम्बद नुमा दो संयुक्त लघु पहाड़ियों से दी जाती है, उनके आस पास सुनार और उप्राड़ा गांव स्थित हैं। इस दुर्ग के निकट ही प्राचीन मंदिर के भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं, जो ’मणकेश्वर’ महादेव के नाम से प्रसिद्ध है। स्तम्भ-अवशेष और भग्न प्रस्तर-खण्डों में अलंकृत कलाकृतियों से यह मंदिर कत्यूरी कालीन प्रतीत होता है। इस मंदिर से एक मार्ग सुनार गांव, दूसरा उप्राड़ा तथा तीसरा मार्ग हाट की ओर जाता है। वर्तमान में सुनार गांव में सुनार (वर्मा) तथा उप्राड़ा मेंं पंत ब्राह्मण निवास करते हैं। उप्राड़ा के मूल निवासी उप्रेती ब्राह्मण थे, जिन्हें मणकोटी शासन काल में पंत ब्राह्मणों द्वारा शासकीय आदेशानुसार विस्थापित किया गया। इस तथ्य की पुष्टि पंडित बद्रीदत्त पाण्डे भी करते हैं-   

’‘इनके उप्रेती दीवान थे। उप्रेती मंत्री ने छल करके राजा को शिकार खेलते हुए जंगल में मरवा दिया और यह प्रकाशित कर दिया कि राजा को बाघ ने मारा है। रानी को इस बात में संदेह हुआ। उसने अपने पुत्र को पन्त ब्राह्मणों के सिपुर्द किया और आप राजा की पगड़ी के साथ सरयू-गंगा में सती हो गई। सती होते वक्त कहते हैं कि रानी ने शाप दिया- ’चूँकि कहा गया है कि मेरा पति बाघ से मारा गया है, इससे भविष्य में भी यहाँ पर लोग बाघ द्वारा मारे जावेंगे।’ गंगोली में अब तक बाघ बहुत होते हैं। किस्सा भी है- ’खत्याड़ी साग-गंगोली बाघ।’ पन्तों ने सती को दिये हुए अपने वचन को पूर्ण किया और कर्मचंद के पुत्र ताराचंद को गद्दी पर बैठाया। उप्रेतियों की भूमि उप्रेत्यड़ा उर्फ उपराड़ा भी पन्तों को जागीर में मिल गई। सब कारबार पंतों के हाथ आया। यही दीवान, पौराणिक, वैद्य व राजगुरु हुए।’’

चौदहवीं शताब्दी में मणकोट में सत्ता परिवर्तन का अर्थ है कि कर्मचंद की सहायता निकटवर्ती उप्रेती ब्राह्मण ही कर सकते थे। संभवतः दीवान जैसा महत्वपूर्ण पद उनको सत्ता परिवर्तन-पुरस्कार के रूप में प्राप्त हुआ था। उप्रेती ब्राह्मणों ने सत्ता परिवर्तन हेतु असफल प्रयत्न कर्मचंद की हत्या के समय भी किया था। लेकिन चतुर, वीर पंत ब्राह्मणों ने उनकी योजना को विफल कर दिया था। चौदहवीं शताब्दी में मणकोट में दो बार सत्ता परिवर्तन का खेल खेला गया। दोनों ही बार पिउठणा के चंद्रवंशी शासकां को विजयश्री प्राप्त हुई। इस प्रकार गंगोली में एक नवीन राजवंश का उदय, उत्तर-कत्यूरी सत्ता केन्द्र ’हाट’ से लगभग 2 किलोमीटर दूर एक अग्रीम चौकी जैसे दुर्ग मणकोट में हुआ, जो इतिहास में मणकोटी राजवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

मणकोटी शासकों की सूची -

क्र.सं.   मणकोटी राजा     अनुमानित शासनावधि

1 -     कर्मचंद                 1352-60 ई.  से  1380-85 ई. तक।

2 -     ताराचंद         1380-85 ई.  से  1405-10 ई. तक।

3 -     सीतलचंद         1405-10 ई.  से  1430-35 ई. तक।

4 -     ब्रह्मचंद                  1430-35 ई.  से  1455-60 ई. तक।

5 -     हिंगुलचंद         1455-60 ई.  से  1480-85 ई. तक।

6 -     पुन्यचंद                 1480-85 ई.  से  1505-10 ई. तक।

7 -     अनीचंद         1505-10 ई.  से  1530-35 ई. तक। 

8 -     नारायणचंद         1530-35 ई.  से  1555-60 ई. तक।

प्रथम मणकोटी राजा कर्मचंद के पश्चात क्रमशः ताराचंद, शीतलचंद, ब्रह्मचंद, हिंगुलचंद, पुन्यचंद, अनीचंद और नारायण चंद गंगोली राज्य के शासक हुए। इस राजवंश की राजधानी मणकोट में थी, जो एक प्राकृतिक दुर्ग था। मणकोट के शासक निकटवर्ती सीराकोट के शक्तिशाली डोटी-मल्ल शासकों के करद थे। कुमाऊँ में चंद वंश के राज्य विस्तार एवं उत्कर्ष के साथ मणकोटी राजवंश का पतन हुआ। चंद शासक बालो कल्याणचंद ने सन् 1560 ई. के आस पास गंगोली पर अधिकार कर ’गंगालो’ नामक राज्य पदाधिकारी को वहाँ का शासक नियुक्त कर दिया था। पिथौरागढ़ के जाखपंत गांव से प्राप्त शाके 1482 का ताम्रपत्र इस तथ्य की पुष्टि करता है। संभवतः शक्तिशाली डोटी-मल्ल शासकों ने मणकोटी राजवंश को अत्यधिक शक्तिहीन कर दिया था। यही कारण है कि इस राजवंश का राज्य ‘मणकोट’ के आस पास तक के गांवों तक ही सिमट गया था। थल-बागेश्वर व्यापारिक मार्ग (गंगोली का उत्तर-पश्चिमी भाग) डोटी-मल्ल शासकों के अधीन था। इस तथ्य की पुष्टि ’जयदेव प्रथा’ का प्रचलन क्षेत्र करता है, जो सीरा से काण्डा (जनपद बागेश्वर) तक विस्तृत था। एक करद राज्य के रूप में मणकोट को राजधानी बना, कर्मचंद के वंशजों ने गंगोली के दक्षिणी क्षेत्र में लगभग 200 वर्ष तक राज्य किया। स्थापत्य अवशेषों के अभाव में मणकोटी राजवंश के इतिहास को ऐतिहासिक वृत्तांतों से ही विश्लेषित कर सकते हैं।

                                                                   - डॉ. नरसिंह


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