उत्तर-कत्यूरी काल में कुमाऊँ के स्थानीय राज्य

    उत्तर-कत्यूरी काल में कुमाऊँ के स्थानीय राज्य

तेरहवीं शताब्दी में महान कत्यूरी राज्य के पतनोपरांत स्थानीय राज्यों का उदय हुआ, जिसे उत्तर कत्यूरी काल कहा जाता है। कत्यूरियों के कुमाऊँ राज्य का विभाजन कत्यूरी राजपरिवार की विभिन्न शाखाओं में हुआ, जिनमें मुख्यतः अस्कोट के पाल और डोटी के मल्ल थे। उत्तर कत्यूरी कालखण्ड के आरंभिक वर्षों में कुमाऊँ के स्थानीय क्षत्रपों ने पश्चिमी रामगंगा से काली नदी तक के पर्वतीय भू-भाग पर कत्यूर, बागेश्वर, द्वाराहाट, गंगोली, सीरा, सोर और कुमूं (चंपावत) राज्य स्थापित किये। तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में इन क्षेत्रीय राज्यों में शक्ति-सन्तुलन बना रहा। लेकिन पन्द्रहवीं शताब्दी में चंपावत के चंद, सीरा के मल्ल और पाली-पछाऊँ के कत्यूरियों में त्रिकोणीय संघर्ष शुरू हो गया, जिसे कुमाऊँ का त्रिकोणीय संघर्ष कहा जाता है। सोलहवीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में चंपावत के चंद त्रिपक्षीय संघर्ष में सफल हुए और आधुनिक कुमाऊँ का भूगोल चंद राज्य के रूप में स्थापित हो गया।

उत्तर-कत्यूरी काल के सन् 1279 ई. को इतिहासकार महान कत्यूरी राज्य का विभाजन वर्ष मान्य करते हैं। इस वर्ष कत्यूरी राजा त्रिलोकपालदेव के पुत्र अभयपाल ने काली के दायें तटवर्ती बगड़ीहाट के निकट लखनपुरकोट में अपनी राजधानी स्थापित की। अस्कोट-पाल और डोटी-मल्ल वंश की प्रकाशित वंशावली के आधार पर त्रिलोकपालदेव कत्यूरी वंश के 36 वें क्रमांक के राजा थे। इस प्राचीन राजवंश के मूल पुरुष सूर्यवंशी शालिवाहनदेव थे, जो अयोध्या से उत्तराखण्ड आये थे। त्रिलोकपालदेव के पुत्र अभयपाल से संबंधित वर्ष सन् 1279 तथा कत्यूरी राजवंशावली क्रमांक के आधार पर शालिवाहन लगभग पांचवीं शताब्दी में उत्तराखण्ड आये थे। शालिवाहन की वंशावली में 20 वें व 21 वें क्रमांक पर क्रमशः आसन्तिदेव और बासन्तिदेव का उल्लेख किया गया है, जो कत्यूरी घाटी के राजा थे और कत्यूरी कहलाये। इसी कत्यूरी राज्य के विघटन के फलस्वरूप तेरहवीं शताब्दी में स्थानीय राज्यों का उदय हुआ था।

तेरहवीं शताब्दी और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य-

        तेरहवीं शताब्दी के अंत तक उत्तराखण्ड का शक्तिशाली कत्यूरी राज्य स्थानीय क्षत्रपों में विभाजित हो चुका था। ‘‘यह युग समूचे उत्तर-भारत में बहुत राजनैतिक उथल-पुथल का भी था। दिल्ली में गुलाम वंश की स्थापना (सन् 1206 ई.) हो चुकी थी। मध्य हिमालय में यह एक ऐसा अवसर था, जब सर्वत्र बड़े राज्यों के स्थान पर छोटे-छोटे प्रान्तपति स्वतंत्र होकर महत्वाकांक्षी हो गये थे।’’ इन ऐतिहासिक घटनाओं के मूल में बारहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में हुए वाह्य आक्रमण थे। इस पर्वतीय क्षेत्र पर सन् 1191 ई. में नेपाली शासक अशोकाचल्ल ने आक्रमण किया था। वहीं दिल्ली पर तुर्क मुहम्मद गोरी ने आक्रमण किया, जिसने तराईन का प्रथम युद्ध (1191 ई.) हारने के पश्चात भी तराईन के द्वितीय युद्ध (1192 ई.) में दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान को पराजित किया था। यह एक संयोग था कि सन् 1191 ई. में भारत पर उत्तर-पश्चिम और उत्तराखण्ड पर पूर्व दिशा से वाह्य आक्रमण हुआ। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में जहाँ मुहम्मद गोरी भारत के कुछ क्षेत्रों में मुस्लिम राज्य की नींव रखने में सफल हुआ, वहीं चमोली के गोपेश्वर त्रिशूल लेखानुसार आक्रमणकारी अशोकाचल्ल ने मध्य हिमालय में ‘धर्म राज्य’ की स्थापना की थी। 

        बारहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में हुए वाह्य आक्रमण के कारण मध्य हिमालय क्षेत्र में धीर-धीरे शक्तिशाली कत्यूरी सत्ता का ह्रास होता गया। कुमाऊँ के संबंध में डॉ. रामसिंह लिखते हैं-‘‘अतः कहा जा सकता है कि लगभग 12 वीं शताब्दी के पश्चात का कालखण्ड सोर (पिथौरागढ़) सहित कुमाऊँ में छोटे-छोटे राजतंत्रों के अभ्युदय का युग था। केन्द्रीय सत्ता के दुर्बल पड़ते ही उनके स्थानीय सामन्तों ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया था।’’ उत्तराखण्ड के इतिहासकार इन स्थानीय सामन्तों को ही उत्तर कत्यूरी कहते हैं। सन् 1264 ई. के आस पास गंगोली/गंगावली क्षेत्र में भी एक स्वतंत्र सत्ता स्थापित थी, जिसे गंगोली का उत्तर कत्यूरी राजवंश कहा जाता है। गंगोलीहाट का जाह्नवी नौला अभिलेख गंगोली में उत्तर कत्यूरी राजसत्ता की पुष्टि करने वाला एक महत्वपूर्ण अभिलेख है।

तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के प्रमुख स्थानीय राज्य-  

  क- द्वाराहाट राज्य-

द्वाराहाट अपने नाम से ही प्राचीन कत्यूरी राज्य की हाट संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। यह नगर अल्मोड़ा जनपद में 29° 50‘ 33‘‘ उत्तरी अक्षांश और 79° 26‘ 52‘‘ पूर्वी देशान्तर रेखा तथा समुद्र सतह से लगभग 1510 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यह ऐतिहासिक स्थल प्राचीन मंदिरों- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गणेश, गूजर, मृत्युंजय और दूनागिरि के लिए प्रसिद्ध है। इस नगर के दक्षिण में रानीखेत, पूर्व में बगवाली-पोखर, उत्तर पूर्व में सोमेश्वर और उत्तर-पश्चिम में चौखुटिया स्थित है। भारतीय पुरातत्व विभाग के प्रथम महानिदेशक कनिंघम ने चौखुटिया को प्राचीन ब्रह्मपुर राज्य कहा था, जहाँ छठवीं शताब्दी में पौरव वंश ने शासन किया था। इस तथ्य की पुष्टि तालेश्वर ताम्रपत्र करते हैं। द्वाराहाट के निकटवर्ती बिन्ता में गगास नदी के बायें तटवर्ती स्थल पारकोट में कत्यूरी शैली का प्राचीन मंदिर और नौला स्थापित है। कोसी और गगास नदी के मध्य भू-भाग में सोमेश्वर क्षेत्र है, जहाँ कत्यूर कालीन सोमेश्वर महादेव का प्रसिद्ध मंदिर है। 

        उत्तर कत्यूरी कालखण्ड में सोमेश्वर, चौखुटिया, बिन्ता और बगवाली पोखर आदि उर्वरा कृषि क्षेत्र द्वाराहाट राज्य में सम्मिलित रहे होंगे। द्वाराहाट से एक मार्ग चौखुटिया तथा एक मार्ग सोमेश्वर होते हुए कत्यूरी राज्य की प्राचीन राजधानी बैजनाथ और बागेश्वर को जाता है। एक अन्य मार्ग बगवाली पोखर होते हुए चंद राज्य की राजधानी अल्मोड़ा को जाता है। अतः कुमाऊँ के प्राचीन इतिहास में द्वाराहाट का सामरिक महत्व अत्यधिक था। 

द्वाराहाट राज्य का उदय कत्यूरी राज्य के अवशेषों से हुआ। ‘‘यहाँ पर लगभग 64-65 देवालय व बाँवरियाँ हैं। प्रायः सब कत्यूरी राजाओं के समय के बने हुए हैं।’’ बाँवरियों को कुमाउनी में नौला कहते हैं। कत्यूरी कालखण्ड में मंदिर स्थापत्य के साथ-साथ नौला स्थापत्य का अत्यधिक विकास हुआ था। स्थापत्य कला की दृष्टि से द्वाराहाट के नौले और मंदिर उच्चकोटि के हैं। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार शीतला, द्रोणागिरि और विभांडेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार आदि गुरु शंकराचार्य ने नौवीं शताब्दी में करवाया था। द्वाराहाट के बद्रीनाथ मंदिर की मूर्ति पर संवत् 1105 उत्कीर्ण है। इसी प्रकार गणेश मंदिर में शाके 1103 उत्कीर्ण है। ‘‘द्वाराहाट के मृत्युजंय मंदिर में विजयदेव-लिहदेव का शाके 1211 तथा कालीखोली की गरुड़ारूढ़ विष्णु की भग्न प्रतिमा पर शाके 1220 अंकित लघुलेख में अनन्तपालदेव का उल्लेख प्राप्त हुआ है।’’

डॉ. रामसिंह के अनुसार तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के द्वाराहाट शासक-

   1- विजयदेव (द्वाराहाट अभिलेख के आधार पर)

    2- लिहदेव (1211/1217?) (1295 ई.) (द्वाराहाट अभिलेख के आधार पर)

   3- अणंतपालदेव शाके 1220 (सन् 1298 ई)

ख- सीरा राज्य-

गंगोली और द्वाराहाट राज्य की भाँति कुमाऊँ के पूर्वी रामगंगा और काली नदी के मध्य भू-भाग पर सीरा राज्य का उत्थान हुआ। जहाँ के मूल निवासी किरातों के वंशज वनराजी या वनरौत थे, जिन्हें भारतीय संविधान ने जनजाति की श्रेणी में भोटिया, थारू और बुक्सा आदि जातियों के साथ अनुसूचित किया है। महाभारत काल में समूचे उत्तराखण्ड पर किरातों का प्रभुत्व था। कालान्तर में अन्य वाह्य जातियों के उत्तराखण्ड में प्रवेश और स्थापित होने के कारण किरात सीरा और आस पास के राज्यों तक सीमित हो गये। बागेश्वर अभिलेख में उल्लेखित राजा त्रिभुवनराजदेव की मित्रता किरात राजा से थी। इस कारण त्रिभुवनराजदेव को विद्वान खस राजा भी कहते हैं।

        सीरा राज्य के भूगोल के निर्धारण में कुमाऊँ की प्रमुख नदियों काली, पूर्वी रामगंगा और गोरी गंगा का महत्वपूर्ण योगदान था। काली और उसकी सहायक नदियां गोरी गंगा तथा पूर्वी रामगंगा इस प्राचीन राज्य की क्रमशः पूर्वी, उत्तरी, व पश्चिमी भौगोलिक सीमा का निर्धारण करतीं थी। इस राज्य के उत्तर में प्रवाहित गोरी गंगा इसे भोट क्षेत्र तथा पूर्वी रामगंगा इसे गंगोली राज्य से पृथक करती थी। दक्षिण में सीमावर्ती राज्य सोर था, जहाँ के शासक बमशाही कहलाये थे। बम राजाओं का पारिवारिक संबध सीरा के राजाओं से था, जो रैका-मल्ल कहलाते थे। रैका-मल्ल शासक मूलतः कत्यूरी वंश की डोटी शाखा के थे। सन् 1279 ई. में कत्यूरी राज्य के विभाजन के फलस्वरूप डोटी-मल्ल और अस्कोट-पाल वंश अस्तित्व में आये थे। 

        सीरा राज्य की राजधानी सीराकोट में थी, जहाँ अब मलयनाथ देवता का मंदिर है। यह मंदिर एक ऊँचे पर्वत पर्वत पर है, जिसके दक्षिणी तलहटी में डीडीहाट नगर बसा है। यह नगर भी कत्यूरी हाट संस्कृति का केन्द्र था। यह नगर पिथौरागढ़ जनपद में 29° 39‘ 36‘‘ उत्तरी अक्षांश और 80° 16‘ 18‘‘ पूर्वी देशान्तर रेखा तथा समुद्र सतह से लगभग 1627 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है।

कत्यूरी राजा त्रिलोकपाल के दो पुत्र अभयपाल और निरंजनदेव थे। राज्य विभाजन के फलस्वरूप अभयपाल ने अस्कोट-पाल वंश तथा निरंजनदेव के पुत्र नागमल्लदेव ने डोटी-मल्ल वंश की स्थापना की थी। नागमल्ल के दो पुत्रों में से बड़े पुत्र शमशेरमल्ल के वंशज मल्ल तथा छोटे पुत्र अर्जुनसाही के वंशज साही कहलाये। अभिलेखीय साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में अग्रलिखित राजाओं ने सीरा पर शासन किया था।

डॉ. रामसिंह के अनुसार तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के सीरा शासक-

   1- रायतारामृगांक, निरैपालदेव के ताम्रपत्र से

   2- रायप्रतापनारायण, निरैपालदेव के ताम्रपत्र से

   3- निरैपालदेव द्वारा निर्गत ताम्रपत्र शाके 1275 (1353 ई.) के आधार पर।  

ग- सोर राज्य -

प्राचीन सोर राज्य का उदय उत्तर कत्यूरी काल में हुआ। इस राज्य के केन्द्र में वर्तमान पिथौरागढ़ नगर था, जिसे सोर घाटी भी कहा जाता है। सरयू, काली और पूर्वी रामगंगा नदी इस प्राचीन राज्य की क्रमशः दक्षिणी, पूर्वी तथा पश्चिमी भौगोलिक क्षेत्र की सीमा का निर्धारण करती है। इस राज्य के उत्तरी सीमा पर डोटी के मल्ल वंश का सीरा राज्य था। सोर राज्य के संस्थापक वंश ‘बम’ का संबंध डोटी मल्ल वंश से था। प्राकृतिक स्वरूप में इस नगर को उत्तराखण्ड का कश्मीर कहा जाता है। कश्मीर घाटी की भाँति सोर घाटी चारों ओर से ऊँचे-ऊँचे पहाड़ियों से घिरी हुई है। इसके पश्चिम में स्थित चण्डाक पहाड़ी से सोर घाटी का विहंगम दृश्य दिखलाई देता है। चण्डाक में ही मोस्टा माणू देवता का प्रसिद्ध मंदिर है। सोर घाटी में हर वर्ष एक धार्मिक यात्रा आयोजित की जाती है, जिसे हिलजात्रा कहते हैं।

        सोर शब्द की व्युत्पत्ति को डॉ. रामसिंह ‘सर’ या ‘सरोवर’ से संबद्ध करते हैं। जबकि पद्मादत्त पंत सोर को सूर्यवंशी राजाओं और सौर सम्प्रदाय (सूर्योपासक) से संबद्ध करते हैं। सोर में पौण गांव है, जिसे पौण राजा से संबद्ध किया जाता है, जिनकी धातू मूर्ति जागेश्वर मंदिर के भारतीय पुरातत्व के संग्रहालय में रखी गई है। सोर राज्य में प्राचीन कोट संस्कृति के अवशेष नौ कोट- ऊँचाकोट, भटकोट, बिलोरकोट, उदैपुरकोट, डुंगरकोट, सहजकोट, बमुवाकोट, द्योदारकोट, दूनीकोट विद्यमान हैं। प्रत्येक कोट एक राजा के अधीन था। ‘‘इसलिए इसे ‘ना ठुकुर सोर’ भी कहते हैं।

        डॉ. रामसिंह के अनुसार तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के सोर शासक-

1- आसलदेव (शक्तिब्रह्म के ताम्रपत्र से)

2- सुहड़देव (शक्तिब्रह्म के ताम्रपत्र से)

3- शक्तिब्रह्म शाके 1259 (1337 ई.)

 घ- गंगोली राज्य-  

        मध्य हिमालय क्षेत्र में प्रवाहित सरयू और पूर्वी रामगंगा के अंतस्थ क्षेत्र को ‘गंगोली’ कहा गया। ’’सरयू और रामगंगा के बीच की रमणीक व उपजाऊ भूमि गंगावली (गंगोली) के नाम से विख्यात है।’’ वर्तमान में इस रमणीक व उपजाऊ भूमि गंगावली में पिथौरागढ़ जनपद के गंगोलीहाट, गणाई-गंगोली, बेरीनाग एवं थल तथा बागेश्वर जनपद के काण्डा, दुग-नाकुरी और कपकोट तहसील सम्मिलित हैं। यह समस्त क्षेत्र पश्चिम और दक्षिण में सरयू तथा पूर्व की ओर से पूर्वी-रामगंगा नदी से धिरा है। जबकि इस क्षेत्र के उत्तर में कफनी हिमनद का दक्षिणवर्ती पर्वत है, जिसके दक्षिणी पनढाल की विभिन्न धाराओं से ही सरयू और पूर्वी रामगंगा का उद्गम होता है। गंगोलीहाट तहसील के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित रामेश्वर मंदिर से मात्र 50-70 मीटर दूरी पर सरयू और पूर्वी रामगंगा का प्रयाग है, जिसे ‘रामेश्वर घाट’ कहा जाता है।

        रामेश्वर घाट के उत्तर और कफनी हिमनद के दक्षिणवर्ती पर्वत श्रेणी के मध्य भू-भाग या वैदिक नामकरण वाली नदियों सरयू और पूर्वी रामगंगा के अंतस्थ क्षेत्र में लगभग 760 वर्ष पूर्व एक नवीन राजवंश का उदय हुआ, जिसे गंगोली का उत्तर कत्यूरी राजवंश कहा जाता है। कुछ विद्वान गंगोली के उत्तर कत्यूरी राजवंश को मणकोटी राजवंश से भी संबद्ध करते हैं। गंगोलीहाट नगर के निकटवर्ती मणकोट नामक एक प्राकृतिक दुर्ग से संचालित राज्य को मणकोटी राज्य तथा शासकों को मणकोटी राजवंश से संबद्ध किया जाता है। गंगोली क्षेत्र का इतिहास अति प्राचीन है। प्रागैतिहासिक कालीन ताम्र-निखात संस्कृति का केन्द्र बनकोट, पाताल भुवनेश्वर गुहा और कुमाऊँ के प्रसिद्ध नाग मंदिर आदि इस क्षेत्र के प्राचीन इतिहास के प्रमुख स्रोत हैं।

         प्राचीन काल में यह क्षेत्र क्रमशः कुणिन्द, कर्तृपुर, ब्रह्मपुर, कार्तिकेयपुर और कत्यूरी राज्य का अभिन्न अंग रहा था। कत्यूरी राजवंश के पतनोपरांत तेरहवीं शताब्दी में यह क्षेत्र एक पृथक राज्य के रूप में स्थापित होने में सफल रहा था, जिसका श्रेय इतिहासकार गंगोली के उत्तर कत्यूरी राजवंश को देते हैं। इस राजवंश के अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध हैं। गंगोलीहाट नगर के जाह्नवी नौले की वाह्य प्राचीर पर स्थापित लेखयुक्त शिलापट्ट गंगोली में उत्तर कत्यूरी राज्य को प्रमाणित करता है। तेरहवीं शताब्दी का यह अभिलेख उत्तराखण्ड में केन्द्रीय सत्ता के स्थान पर क्षेत्रीय राजसत्ता के स्थापित होने को प्रमाणित करता है।

डॉ. रामसिंह के अनुसार तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के गंगोली के शासक-

 1-राजा रामचंद्रदेव 1267ई., 1275ई. जाह्नवी नौला अभिलेख

 2- राजा हमीरदेव (धारलदेव के बैजनाथ-अभिलेख के आधार पर)

 3-लिंगराजदेव (धारलदेव के बैजनाथ-अभिलेख के आधार पर)

 4- धारलदेव शाके 1274 (1352 ई.) बैजनाथ अभिलेख।

 च- कुमूं राज्य- 

तेरहवीं शताब्दी में कुमूं राज्य पर चंद राजवंश का अधिकार था। वर्तमान चंपावत नगर ही प्राचीन कूमूं राज्य का केन्द्र था, जहाँ कत्यूरी कालीन बालेश्वर मंदिर है। यह मंदिर कत्यूरी स्थापत्य कला का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है। चंद राजवंश के आरंभिक राजा के संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है। एक मत के अनुसार सोमचंद और दूसरे मतानुसार थोहरचंद प्रथम चंद राजा थे। सोमचंद आठवीं तथा थोहरचंद तेरहवीं शताब्दी के शासक थे। सन् 1223 में दुलू (नेपाल) के शासक क्राचल्लदेव ने उत्तराखण्ड पर आक्रमण किया, जिसका प्रमाण देशटदेव के ताम्रपत्र से प्राप्त होता है। देशटदेव दशवीं शताब्दी के कार्तिकेयपुर नरेश थे, जिनका ताम्रपत्र चंपावत के बालेश्वर मंदिर से प्राप्त हुआ। इस ताम्रपत्र के पृष्ठ भाग में का्रचल्लदेव का लेख उत्कीर्ण है। इस अभिलेख में 10 माण्डलिक राजाओं का उल्लेख किया गया है, जिनमें दो शासक विद्याचन्द्र और विनयचन्द्र थे। चन्द्र नामांत के कारण इन दो माण्डलिक शासकों से चंद वंश से संबद्ध करते हैं। लेकिन ‘कुमाऊँ का इतिहास’ नामक पुस्तक में उल्लेखित चंद वंशावली से उक्त चन्द्र नामान्त वाले माण्डलिकों के नाम प्राप्त नहीं होते हैं।

डॉ. रामसिंह के अनुसार तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के कुमूं शासक-

1- कर्मचंद नौलालेख शाके 1178 (1256 ई.)

2- नरचंद्र(ताम्रपत्र) संवत् 1377 वि. (1320 ई.)

        तेरहवीं शताब्दी में कुमाऊँ के क्षेत्रीय राजाओं में अस्कोट के अभयपाल (सन् 1279), चंपावत के कर्मचन्द (सन् 1256), द्वाराहाट के अनन्तपालदेव (सन् 1298) और गंगोली के रामचन्द्रदेव (सन् 1264-1275) समकालीन थे। इसी प्रकार चौदहवीं शताब्दी में सोर के शक्तिब्रह्मदेव (सन् 1337), वीर ब्रह्मदेव (सन् 1376), सीरा के निरैपालदेव (सन् 1353), गंगोली के धारलदेव (सन् 1352) और चंपावत के चंद राजा अभयचंद (सन् 1374) भी समकालीन थे। चंपावत के चैकुनी बोरा अभिलेख (शाके 1298 माघ सुदि पंचमी शुक्रवार) में राजा अभयचंद के साथ वीर ब्रह्मदेव का उल्लेख किया गया है। इनके अतिरिक्त कत्यूर से लखनपाल के पुत्र सहणपालदेव (सन् 1307) और बागेश्वर से जैचंददेव (सन् 1330) के अभिलेख भी प्राप्त हुए हैं, जो उत्तर कत्यूरी कालखण्ड में कुमाऊँ के स्थानीय क्षेत्रीय क्षत्रप थे।


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