सोमचंद

  सोमचंद

उत्तराखण्ड का मध्यकालीन इतिहास पंवार और चंद वंश का पारस्परिक युद्धों का कालखण्ड रहा था। मध्यकालीन उत्तराखण्ड में पंवार तथा चंद वंश को क्रमशः गढ़वाल और कुमाऊँ राज्य स्थापित करने का श्रेय जाता है। चंद राजा रुद्रचंददेव सोहलहवीं शताब्दी में कुमाऊँ राज्य को स्थापित करने में सफल हुए थे। लेकिन रुद्रचंददेव से सैकड़ों वर्ष पहले चंद केवल चंपावत क्षेत्र पर शासन करते थे। कहा जाता है कि वे आरंभ में कत्यूरियों के सामन्त थे और बाद में डोटी के मल्ल राजाओं के करद हुए। चंद कौन  थे ? या चंद वंश के संस्थापक कौन थे ? विद्वानों का एक मत सोमचंद को चंपावत में चंद राज्य स्थापित करने का श्रेय देता है, तो दूसरा मत थोहरचंद को। चंपावत में चंद वंश के संस्थापक सोमचंद और थोहरचंद के शासन काल में लगभग 561 वर्षों का अंतर था। सोमचंद के पक्ष में पं. बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं-

‘‘श्री अटकिंसन ने सोमचंद के आने का संवत् 965 लिखा है, पर पं0 रुद्रदत्त पंतजी ने संवत्, सन् या शाके सब दिये हैं। उन्होंने काफी छानबीन के साथ अपने नोट लिखे हैं और उनके नोट ठीक हैं। हमने भी जो जाँच की है और काशीपुर के पुश्तनामे से मिलान किया है, तो राजा सोमचंद के आने की तिथि तो ज्ञात नहीं, पर उनके गद्दी पर बैठने की तिथि संवत् 757 विक्रमीय तथा 622 शाके शालिवाहन तदनुसार 700 सन् है।’’

एडविन थॉमस एटकिंसन (1840-1890) उन्नीसवीं शताब्दी के अंग्रेज सिविल अधिकारी थे और सन् 1862 में भारतीय सिविल सेवा में आये थे। वह बंगाल तथा उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त (आधुनिक उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड) में नियुक्त हुए थे। अप्रैल, 1876 ई. तक वह उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त के गजेटियर का प्रभारी रहे थे। उसने सन् 1881-1884 में उत्तराखण्ड का इतिहास, भूगोल और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का विस्तृत वर्णन ‘गजेटियर ऑफ द हिमालयन डिस्ट्रिक्ट ऑफ द नार्थ-वेस्टर्न प्रवेंसिस (वॉल्यूम-3)’ के नाम से लिखा। रुद्रदत्त पंत के सबंध में एटकिंसन लिखते हैं-

    ‘‘कुमाऊँ का कोई लिखित इतिहास उपलब्ध नहीं है। और इस संबंध में जो भी जानकारी हमारे पास है वह परम्पराओं पर आधारित है। परम्पराओं पर आधारित इन जानकारियों में से बहुत सी हमें स्वर्गीय रुद्रदत्त पंत के लम्बे श्रमसाध्य जीवन से प्राप्त हुईं हैं, रुद्रदत्त पंत अल्मोड़ा के एक विद्वान थे जिनकी सेवाएं हमें जॉन स्ट्रेची की बदौलत प्राप्त हुई थी।’’

        रुद्रचंद पंत और एडविन थॉमस एटकिंसन ने उन्नीसवीं शताब्दी में कुमाऊँ के इतिहास को संकलित करने का आरंभिक प्रयास किया था। बीसवीं शताब्दी के पं. बद्रीदत्त पाण्डे ने इन दोनों विद्वानों की लिखित सामग्री की सहायता से ‘कुमाऊँ का इतिहास’ नामक पुस्तक लिखी थी।

सातवीं शताब्दी के सोमचंद और उत्तराखण्ड-

सोमचंद के चंपावत सिंहासनारूढ़ वर्ष को विद्वानों ने सन् 700 ई. या सातवीं शताब्दी का अंतिम वर्ष निर्धारित किया। सातवीं शताब्दी का इतिहास कन्नौज और उत्तराखण्ड के सन्दर्भ में समझना आवश्यक है। इस शताब्दी में हर्ष के नेतृत्व में कन्नौज उत्तर भारत का सत्ता केन्द्र बन चुका था और कन्नौज से सुदूर उत्तर में ब्रह्मपुर राज्य अस्तित्व में था, जहाँ हर्ष काल में चीनी यात्री ह्वैनसांग ने यात्रा की थी। भारत में 14 वर्ष की यात्रावधि में ह्वैनसांग पो-लो-कि-मो जनपद में भी गया था। पो-लो-कि-मो को जूलियन और कनिंघम ने संस्कृत के ब्रह्मपुर का भाषान्तर माना है। कनिंघम ने ब्रह्मपुर की पहचान आज के चौखुटिया (अल्मोड़ा) से की, जिसकी पुष्टि तालेश्वर ताम्रपत्र करते हैं। हर्ष की मृत्यु सन् 647 ई. में हुई और योग्य उत्तराधिकारी के अभाव में कन्नौज सहित उत्तराखण्ड की शासन व्यवस्था स्थानीय क्षत्रपों के हाथों में चली गई। 

        हर्ष की मृत्यु और कन्नौज में यशोवर्मन के अभ्युदय तक उत्तर भारत में एक शक्तिशाली शासन का अकाल रहा था। कन्नौज के इस कालखण्ड (647 ई. - 700 ई.) को इतिहासकार अंध-काल कहते हैं। इस अंध-काल को मिटाने हेतु धूमकेतु की भाँति यशोवर्मन का उदय हुआ था। के. सी. श्रीवास्तव लिखते हैं कि यशोवर्मन ने संभवतः 700 ई. से 740 ई. तक शासन किया। कन्नौज में एक शक्तिशाली शासनाभाव के कारण स्थानीय राजवंशों के उदय हेतु अंध-काल एक अनुकूल समय था। इस अनुकूल समय में चंपावत में एक नवीन राजवंश का उदय सोमचंद के नेतृत्व में हुआ था। कालान्तर में इस राजा के वंशज चंद कहलाये और जिन्हें मध्य हिमालय में कुमाऊँ राज्य को पोषित करने का श्रेय जाता है। 

 सोमचंद का कुमाऊँ आगमन- 

सोमचंद कुमाऊँ में कैसे आये ? इस संबंध में हिमालयन गजेटियर के लेखक एटकिंसन दो दंत कथाओं का उल्लेख करते हैं।

 प्रथम जनश्रुति- 

‘‘प्रथम किस्सा यह है कि सुई में ब्रह्मदेव कत्यूरी के आने के बाद डोमकोट के रावत राजा ने ऐसे व्यक्ति का मातहत बनने से इनकार कर दिया जो अपने देश को छोड़ने को मजबूर हो गया हो। वहां के लोग भी दो भागों में बंट गये और अपने स्वार्थों व पूर्वाग्रहों के अनुसार कभी एक और कभी दूसरे राजा का समर्थन करने लगे। ऐसे में लोगों ने तय किया कि एक प्रतिनिधि मण्डल मैदान की तरफ इस आशय से भेजा जाय कि वह वहां के किसी शाही खानदान से उसके ऐसे एक प्रतिनिधि की मांग करे जो उन पर शासन कर सके। उन दिनों कन्नौज का चंद्रवंश समस्त भारत में प्रसिद्ध था, इसी वंश का एक व्यक्ति इलाहाबाद के उपनगर दारागंज के सामने गंगा के बाएं किनारे स्थित प्राचीन नगर झूसी में मिला। उसकी जन्मपत्री का बारीकी से अध्ययन किया गया और ज्योतिषियों ने घोषणा की कि उसके सभी ग्रह राजयोग वाले हैं तथा उसे राजा बनाए जाने से राज्य का भविष्य उज्ज्वल है। इस प्रकार उसे कुमाऊँ लाकर चंपावत का राजा बना दिया गया।’’

सुई और डोमकोट-

‘सुई’ ब्रिटिश कालीन काली कुमाऊँ (चंपावत) परगना की एक पट्टी थी, जहाँ देवदार के झुरमुट के बीच प्राचीन सूर्य मंदिर है। सुई का प्राचीन इतिहास है। मानसखण्ड में कैलास यात्री को सुई के निकट लोहा नदी में स्नान करने को कहा गया है, जो आज की लोहावती नदी है। डोमकोट को दौणकोट भी कहा जाता है, जिसके ‘‘भग्नावशेष अब भी कोतवाल-चबूतरा व सिंगार-चबूतरा कहलाते हैं। इस दौणकोट के रावत राजा की संतानें अभी पट्टीतल्ला देश गांव सल्ली में और गुमदेश में रहती हैं। सोमचंद राजा ने दौणकोट उजाड़कर चंपावत बसाया। चंपावती नदी के किनारे होने से चंपावत नाम पड़ा।’’ वर्तमन चंपावत का तहसील परिसर ही ‘राजबूँगा’ नाम से चंदों की आरम्भिक राजधानी थी।

        सोमचंद के कुमाऊँ आगमन से संबंधित उक्त प्रथम जनश्रुति में उल्लेखित ब्रह्मदेव कौन थे ? यदि सोमचंद 700 ई. में कुमाऊँ आये तो, उसके समकालीन क्या कत्यूरी राजा ब्रह्मदेव ही थे ? इन प्रश्नों का विश्लेषण इस प्रकार से है-

ब्रह्मदेव-

        उत्तराखण्ड का कत्यूरी इतिहास मतभेदों का एक गठजोड़ है। कत्यूर घाटी से संचालित विभिन्न राजवंश के शासकों को कत्यूरी तो कह सकते हैं। लेकिन उन्हें एक वंश के सूत्र में गढ़ना इतिहास के साथ न्याय नहीं होगा। बागेश्वर शिलालेख और कार्तिकेयपुर से निर्गत ताम्रपत्रों में उल्लेखित शब्द ‘कुशली’ से स्पष्ट होता है कि कत्यूर घाटी पर शासन करने वाले मसन्तनदेव, खर्परदेव, ललितशूरदेव और पद्मटदेव आदि शासक भिन्न-भिन्न राजवंश से संबद्ध थे। कुछ विद्वान बागेश्वर शिलालेख के मसन्तनदेव को आसन्तिदेव और बासन्तिदेव से संबद्ध करते हैं, जो कत्यूर घाटी के शासक थे।

        अस्कोट के पाल और डोटी के मल्ल भी अपने को कत्यूरी वंशज बतलाते हैं। इन दोनों राजवंशों की प्रकाशित वंशावली शालिवाहन से त्रिलोकपालदेव तक लगभग एक जैसी है। लेकिन कत्यूरी राजा त्रिलोकपालदेव तक पाल-वंशावली में मल्ल-वंशावली के सापेक्ष 12 नाम अतिरिक्त हैं। इन दोनों वंशावली से स्पष्ट होता है कि त्रिलोकपालदेव के पश्चात कत्यूरी वंश पाल और मल्ल में विभाजित हो गया था। विद्वान इस विभाजन वर्ष को सन् 1279 ई. निर्धारित करते हैं। इन दोनों वंशावली के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि शालिवाहन से त्रिलोकपालदेव (तेरहवीं शताब्दी) तक ब्रह्मदेव नाम के दो कत्यूरी राजा हुए, एक का नाम वंशावली के चौथे क्रमांक तथा दूसरे का नाम 35 वें क्रमांक पर उत्कीर्ण है। जबकि त्रिलोकपालदेव का नाम वंशावली के 36 वें क्रमांक पर उत्कीर्ण है। 

        पाल और मल्ल वंशावली में 35 वें क्रमांक के ब्रह्मदेव (ब्रह्मदेव द्वितीय) नामक राजा अविभाजित कत्यूरी राज्य के राजा त्रिलोकपालदेव के पूर्ववर्ती थे, जो बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के थे। अतः ब्रह्मदेव द्वितीय सन् 700 ई. के चंपावत राजा सोमचंद के समकालीन नहीं थे। यदि एक पीढ़ी को औसतन 20-25 वर्ष मान्य करें तो, चौथे क्रमांक वाला ब्रह्मदेव, त्रिलोकपालदेव से 640 से 800 वर्ष पूर्व के कत्यूरी राजा थे। सन् 1279 ई. से 640 वर्ष घटायें तो, सन् 639 ई. को ब्रह्मदेव प्रथम (पाल-डोटी वंशावली के 4 वें क्रमांक वाले ब्रह्मदेव) सिंहासनारूढ़ हुए थे। अर्थात सोमचंद के समकालीन ब्रह्मदेव प्रथम थे, जो संभवतः प्रथम कत्यूरी राजा शालिवाहन के पड़पौत्र थे। सोमचंद के सिहासनारूढ़ वर्ष सन् 700 ई. में वह बूढ़े हो चुके थे।

आठवीं शताब्दी आरंभ में कन्नौज-

बारहवीं शताब्दी में कश्मीर का इतिहास लिखने वाले कवि कल्हण ‘राजतरंगिणी’ नामक काव्य ग्रंथ में लिखते हैं -

कविर्वाक्पतिराजश्रीभवभूत्यादि सेवितः।

जितौ ययौ यशोवर्मा तदगुणस्तुतिवन्दिताम।।

किमन्यत्कान्यकुब्जोर्वी यमुनापरतो ऽस्य सा ।

अभूदाकालिकातीरं गृहप्रांगणवद्वशे ।।

भावार्थ- ‘‘वाक्पति, भवभूति आदि कवियों द्वारा सेवित यशोवर्मा उसका (ललितादित्य का) गुणगान करने लगा तथा यमुना से लेकर कालिका (काली) नदी तक के बीच का कन्नौज राज्य का भाग ललितादित्य के महल का आंगन बन गया।’’

     वाक्पतिऔर भवभूति कन्नौज नरेश यशोवर्मन के दरबारी कवि थे। वाक्पति ने प्राकृत भाष में ‘गौडवहो’ नामक काव्य की रचना की, जो यशोवर्मन के इतिहास का सर्वप्रमुख स्रोत है। गौडवहो के अनुसार यशोवर्मन ने मगध, बंगदेश, हिमालय क्षेत्र, पश्चिमी समुद्री क्षेत्र, मरुदेश और विन्ध्य क्षेत्र को विजित किया था। भवभूति संस्कृत का महान नाटककार था, जिसने मालतीमाधव, उत्तररामचरित तथा महावीरचरित नामक नाटकों की रचना की थी। मालतीमाधव में माधव और मालती की प्रणय कथा और उत्तररामचरित में रामायण का उत्तरकाण्ड वर्णित है। जबकि महावीरचरित में राम के विवाह से राज्याभिषेक तक की कथा वर्णित है।

        ललितादित्य मुक्तापीड कश्मीर के कार्कोट वंश का महान शासक था, जिसने सन् 724 ई. से 760 ई. तक कश्मीर पर शासन किया था। कश्मीर घाटी में स्थित अनंतनाग का मार्तण्ड मंदिर (सूर्य मंदिर) उसी के द्वारा बनवाया गया था। कल्हण के अनुसार उसने कन्नौज के अतिरिक्त कलिंग, कर्नाटक, काठियावाड़ अवन्ति और उत्तर-पश्चिमी के पहाड़ी प्रदेशों को भी विजित किया था। सन् 740 के आस पास ललितादित्य ने यशोवर्मन को पराजित कर कन्नौज के स्थान पर कश्मीर को उत्तर भारत की राजसत्ता का केन्द्र बना दिया था।

        कल्हण के अनुसार कश्मीर शासक ललितादित्य ने यशोवर्मन के कन्नौज राज्य (यमुना से काली तक) को अपने महल का आंगन बना दिया था। यमुना से काली नदी तक का पर्वतीय भू-भाग ही प्राचीन उत्तराखण्ड था। यह पर्वतीय क्षेत्र कल्हण के अनुसार आठवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में कन्नौज राज्य का अभिन्न अंग था। अर्थात चंपावत के सोमचंद सहित उत्तराखण्ड के सभी स्थानीय राजा कन्नौज नरेश यशोवर्मन के करद राजा थे। एक संभावना यह भी दिखलाई देती है कि यशोवर्मन के निर्देश पर सोमचंद कन्नौज से उत्तराखण्ड आये थे।

 द्वितीय जनश्रुति-

‘‘ दूसरा किस्सा यह है कि सोमचंद कन्नौज के शासक का भाई और बदरीनाथ की यात्रा पर था। यात्रा के दौरान वह ब्रह्मदेव से मिला और वृद्ध ब्रह्मदेव उसके व्यवहार से इतना प्रसन्न हुआ कि उसने सोमचंद को कुमाऊँ में रहने का निमंत्रण दिया। सोमचंद सहमत हो गया और ब्रह्मदेव ने उससे अपनी कन्या का विवाह कर दिया तथा दहेज में चंपावत में पन्द्रह बीसी जमीन तथा तराई और भाबर में भी काफी क्षेत्र पर अधिकार दे दिया।’’

सोमचंद के चंपावत आगमन की तिथि निर्धारित नहीं हो पायी है। लेकिन पं. बद्रीदत्त पाण्डे द्वारा निर्धारित उसकी राज्याभिषेक की तिथि 700 ई. को सही मान्य करें तो, इस समय यशोवर्मन कन्नौज का शासक था। यदि द्वितीय मत को सही मान्य करें, तो सोमचंद के समकालीन कन्नौज शासक यशोवर्मन भी चंद वंशी थे। लेकिन नाम में ‘वर्मन’ शब्द संयुक्त होने के कारण विद्वान यशोवर्मन को मौखुरी वंश से संबद्ध करते हैं। हर्ष से पूर्व, छठी शताब्दी में कन्नौज पर मौखरी वंश का शासन था। हर्ष का बहनोई गृहवर्मन मौखरी वंश का अंतिम राजा था। इसी प्रकार छठी शताब्दी में उत्तराखण्ड के ब्रहमपुर राज्य में भी वर्मन राजाओं का शासन था, जिनके वंश को उनके द्वारा निर्गत ताम्रपत्रों में ‘पौरव वंश’ कहा गया है। वर्मन नामान्त के आधार पर कह सकते हैं कि यशोवर्मन का मौखुरी या पौरव वंश से अवश्य संबंध रहा होगा।

ब्रह्मपुर के पौरव शासक चन्द्र और सूर्य वंश के मिश्रित थे। उनके ताम्रपत्रों में ‘सोमदिवाकर’ उत्कीर्ण है। जबकि सामान्यतः क्षत्रियों को सूर्य या चन्द्र वंश से संबद्ध किया जाता है। उत्तराखण्ड के इतिहास को देखें, तो कत्यूरी सूर्यवंशी और चंद चन्द्रवंशी थे। सोमचंद के संबंध में समग्ररूप से बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘ कोई कहते हैं कि सोमचंद झूसी से आये, कोई कहते हैं कि लोग उन्हें बुला लाये। कोई कहते हैं कि वह बदरीनाथ यात्रा पर आये थे। वह चंदेल राजकुमार थे। चंदेले राजपूत कुमाऊँ में गद्दी पर बैठने पर चंद कहे गये। वही वंश का नाम हो गया।’’

 


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