द्युतिवर्मन का ताम्रपत्र : ‘प्रथम बारह पंक्तियों का ऐतिहासिक अध्ययन’

 द्युतिवर्मन का ताम्रपत्र : ‘प्रथम बारह पंक्तियों का ऐतिहासिक अध्ययन’  :-

        द्युतिवर्मन का ताम्रपत्र ब्रह्मपुर और पौरव वंश के इतिहास पर प्रकाश डालने वाला महत्वपूर्ण स्रोत है। द्युतिवर्मन पौरव वंश का शासक था। उसके वंश का शासन ब्रह्मपुर राज्य में लगभग छठी शताब्दी के आस पास था। इस वंश का इतिहास केवल ताम्रपत्रों में ही समाहित था। द्युतिवर्मन का ताम्रपत्र अल्मोड़ा जनपद के गढ़वाल सीमावर्ती तालेश्वर गांव से प्राप्त हुआ था। सन् 1915 ई. में इस गांव के एक खेत की प्राचीर निर्माण हेतु की गई खुदाई में दो ताम्रपत्र प्राप्त हुए थे, जो द्युतिवर्मन और विष्णुवर्मन के थे। अभिलेखीय साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि पौरव वंश में कुल पांच शासक हुए, जिनमें द्युतिवर्मन का क्रम चतुर्थ था। इस शासक के नगर और राज्य का नाम क्रमशः ब्रह्मपुर तथा पर्वताकार था।

ताम्रपत्र की लिपि और भाषा-

        पौरव शासक द्युतिवर्मन का ताम्रपत्र मूलतः ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है, जिसका संस्कृत अनुवाद डॉ. शिव प्रसाद डबराल की पुस्तक ‘उत्तराखण्ड अभिलेख एवं मुद्रा’ में प्रकाशित हो चुका है। इस पुस्तक में द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र की कुल 28 पंक्तियां है, जिनमें से प्रथम बारह पंक्तियां और उनका विश्लेषण इस प्रकार से हैं-

1- स्वस्ति।। पुरन्दरपुर प्रतिमाद्-व्र (ब्र)ह्मपुरात् सकल जगन्मूलोर्ब्वीचक्क्र महाभार वहन (गुण वमन फण सहस्रानन्त) मूर्तेर्भगवद्-व ( ी) र (णेश्वर स्वामिन-श्चरण)।

2- कमलानुध्यातः सोमदिवाकरान्वयो गो व्रा (ब्रा)ह्मणहितैषी श्रीपुरूरवः प्रभृत्यविचिछद्यमान-सौ (पौ) रव राजवंशो अग्निरिव वैपक्ष कक्ष दहनो (भू)

3- श्र्यग्निवर्म्मा (।) तस्य पुत्रस्तत्पाद प्रसादादर्वाप्त राज्य महिमा द्युतिम दहित पक्ष द्युतिहरो विवस्वानिव द्वितीयः परमभट्टारक महाराजाधिर (ा) ज श्री-

4- द्युतिवर्म्मा कुशली पर्व्वताकारराज्ये (ऽ) स्मद वंश्यान्महाराज विशेषान्प्रति मान्य दण्डोपरिके प्रमातार प्रतिहार कुमारामाप्य पीलुपत्यश्वपति (-)

5- जयनपति गज्जपति सूपकारपतितगर (नगर) पति विषयपति भोगिक भागिक दाण्डवासिक कटुक प्रभृत्यनुजीवि वर्ग्ग सर्व्व विषय प्रधानादींश्च-

6- प्रतिवासि कुटुम्वि (बि) नः कुशलं पृष्ट्वा समाज्ञापयति विदित्तमिदमस्तु वो देवदोण्यधिकृत महासत्त्रपति त्रातैकाकिस्वामिना नय विनय श्रुत वृत-

7- सम्पन्नेन परिव्राड़ व (ब्र)ह्मचारि गौग्गुलिक परिषत्सहितेन राजदौवारिकाग्निस्वामि कारगिंक-वोट (कोट) ा धिकरणिकामात्य भद्रविष्णु पुरस्सरेण च

8- देव निकायेन विज्ञापितं सुरासुर जगदवन्द्यानन्त मूर्ति वीरणेश्वरस्मा (स्वा) मि नाथपादानां बलि चरुकसत्त्र प्रवर्तन दधिक्षीर घृत-

9- स्नपन गन्ध धूप प्रदीप पुप्प (पुष्प) ा र्च्चन प्रकार सन्मार्ज्जनोपलेपन कृषि कर्म्मानुष्ठान खण्ड स्फुठितावचटित पतित संस्कारार्थ परहितानुष्ठान-

10- चरित व्रतै युस्मत्पूर्व्वजै म्महाराज भिरन्यैश्चावनिपति भिस्तथानेक धर्म्म प्रसव हेतु भूर्द्दत्तिदायकैः स्वश्रेयसे भूमिपल्लिका ग्राम-

11- कर्म्मान्त विषयास्ताभ्र पट्ट पट वृषतापपत्रैः (पत्रकैरभि0) अभिलिख्याग्रहाराः प्रत्तिपादितकास्तानि च शासनान्या दीप्तकेन दग्धानि।

12- कालेन च गच्छता लुव्धाः (ब्धाः) कलि दोषग्रहा विष्टाः केचिदसत् पुरुषा लेख्यैर्व्विनाक्षेपं कुर्युरिति तदर्हन्ति भट्टारक पादाः शासना-

द्युतिवर्मन का ताम्रपत्र : ‘एक विश्लेषणात्मक अध्ययन’

  ब्रह्मपुर और वीरणेश्वर-

        द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र की प्रथम पंक्ति में पौरव शासकों की राजधानी ब्रह्मपुर और कुल देवता वीरणेश्वर का उल्लेख है। सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वैनसांग भारत आया था। उसके यात्रा विवरणानुसार वह पो-लो-कि-मो जनपद में गया था। पो-लो-कि-मो को जूलियन और कनिंघम ने संस्कृत के ब्रह्मपुर का भाषान्तर माना है। लेकिन ब्रह्मपुर की पहचान करने में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। यथा-

1- एटकिंसन, ओकले तथा राहुल के अनुसार- बाड़ाहाट (उत्तरकाशी)।

2- कनिंघम और गुप्ते के अनुसार- लखनपुर वैराटपट्टन।

3- सेंट मार्टिन और मुकन्दीलाल के अनुसार- श्रीनगर।

4- फूरर के अनुसार- लालढांग के पास पाण्डुवालासोत।

5- अन्य-’ ’बढ़ापुर, नजीबाबाद।’’

        सर्वप्रथम अलेक्जैण्डर कनिंघम ने ब्रह्मपुर की पहचान लखनपुर-बैराटपट्टन से की थी, जिसे आज चौखुटिया (अल्मोड़ा) कहते हैं। पश्चिमी रामगंगा की गेवाड़ घाटी में स्थित यह ऐतिहासिक स्थल कुमाऊँ और गढ़वाल सीमा क्षेत्र में स्थित है। लखनपुर-बैराटपट्टन पश्चिमी रामगंगा घाटी के पृथक-पृथक ऐतिहासिक स्थल हैं, जहाँ अब क्रमशः लख्नेश्वरी और बैराठेश्वर का मंदिर स्थापित है। इन दो धार्मिक स्थलों के मध्य लगभग 5 से 6 किलोमीटर की दूरी है। बैराठेश्वर या वैराठेश्वर का मंदिर रामगंगा के बायें तट पर चौखुटिया में स्थित है। जबकि लख्नेश्वरी मंदिर चौखुटिया के दक्षिण में लगभग 6 किलोमीटर दूर रामगंगा के बायें तटवर्ती पटल गांव में स्थित है। 

        चौखुटिया क्षेत्र के 5 से 6 किलोमीटर के घेरे में ही पौरव वंश का ब्रह्मपुर नामक प्रसिद्ध नगर था, जिसे उनके ताम्रपत्रों में पुरों में सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। पौरव वंश के कुल देवता वीरणेश्वर का नाम कालान्तर में परिवर्तित हो वैराठेश्वर हो गया और उनके इसी नाम से इस क्षेत्र को पहचान प्राप्त हुई। कुमाउनी लोक गाथाओं में कत्यूरी राजा मालूशाही को बैराठ या वैराट का राजा कहा गया है। अतः ब्रह्मपुर का नाम परिवर्तन कत्यूरी कालखण्ड में हुआ था।

        उत्तराखण्ड में सैकड़ों नाग मंदिर हैं। लेकिन ‘वीरणेश्वर’ नाग का मंदिर कहीं भी नहीं है। विद्वान विनसर, बेड़ीनाग जैसे स्थानों को वीरणेश्वर नाग से संबद्ध करने का प्रयास करते हैं। वास्तव में चौखुटिया के निकट प्रवाहित पश्चिमी रामगंगा नदी के तटवर्ती समतल भूमि पर स्थित वैराठेश्वर ही पौरव ताम्रपत्रों में उल्लेखित वीरणेश्वर थे।

 गौ-ब्राह्मण हितैषी सोमदिवाकर वंश-

        इस ताम्रपत्र की द्वितीय पंक्ति में पौरव राजाओं को गौ-ब्राह्मण हितैषी कहा गया है। स्पष्ट है कि पौरव शासक हिन्दू धर्म के अनुयायी और ब्राह्मण धर्म के संरक्षक थे। इस पंक्ति में उन्हें सोमदिवाकर (चन्द्र और सूर्य) वंश में उत्पन्न और श्रीपुरूरवा का वंशज कहा गया है। राजपूत इतिहास पर दृष्टि डालें तो क्षत्रिय सूर्य या चन्द्र वंशी हुआ करते थे। पौरव शासकों ने अपने को सूर्य और चन्द्र वंश का समिश्रण घोषित किया था।

         राजा पुरूरुवा का उल्लेख वैदिक और पौराणिक ग्रंथों के साथ-साथ मनुस्मृति से भी प्राप्त होता है। धार्मिक ग्रंथों के अतिरिक्त पांचवीं शताब्दी के महान नाटककार कालिदास ने ‘विक्रमोर्वशीयम्’ नामक नाटक में काव्यात्मक ढंग से राजा पुरूरवा और उर्वशी के प्रेम को अलंकृत किया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार बृहस्पति की पत्नी तारा और चन्द्रमा के संयोग से बुध हुए। चंद्रवंशी बुध और सूर्यवंशी इला के विवाह से पुरूरवा का जन्म हुआ। अतः पुरूरुवा के माता-पिता के आधार पर पौरव राजाओं ने स्वयं को सोमदिवाकर का वंशज कहा। लेकिन क्षत्रियों के दो प्रमुख राजवंशों सूर्य और चन्द्र वंश का उद्भव क्रमशः सूर्य और चन्द्रमा से ही माना जाता है। अतः ब्रह्मपुर के पौरव शासक चन्द्र वंशीय थे।

  परमभट्टारक उपाधि-

        तृतीय पंक्ति में ताम्रपत्र निर्गतकर्ता पौरव राजा द्युतिवर्मन के पिता श्री अग्निवर्मन का उल्लेख किया गया है। इस पिंक्त में द्युतिवर्मन की प्रशंसा हेतु द्युति (चमक) शब्द का आलंकारिक प्रयोग किया गया है। इस राजा ने ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी। प्राचीन भारतीय इतिहास के अनुसार यह उपाधि एक स्वतंत्र शासक की हुआ करती थी। चौथी से सातवीं शताब्दी तक क्रमशः गुप्त और कन्नौज सम्राट हर्ष ने ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी। उत्तराखण्ड के पौरव नरेशों के अतिरिक्त बागेश्वर शिलालेख और कार्तिकेयपुर उद्घोष वाले ताम्रपत्रीय कत्यूरी नरेशों ने भी ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी। 

        चौदहवीं शताब्दी में कत्यूरी काल के उपरांत कुमाऊँ के चंपावत में चंद राज्य अस्तित्व में आया। चंद राजाओं ने सैकड़ों ताम्रपत्र निर्गत किये। लेकिन चंद राजाओं ने ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज’ के स्थान पर केवल ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी। अभिलेखीय साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि कत्यूरी राज्य के पतनोपरांत उपाधि से परमभटटारक शब्द विलुप्त हो गया। 

राज्य पदाधिकारी-

        द्युतिवर्मन के तालेश्वर ताम्रपत्र की चतुर्थ पंक्ति में द्युतिवर्म्मा, कुशली, पर्वताकार राज्य, दण्ड उपरिक, प्रमातार, प्रतिहार, कुमारामात्य और पीलुपत्यश्वपति का उल्लेख किया गया है। इस पंक्ति से स्पष्ट होता है कि पौरव शासक द्युतिवर्मन के राज्य का नाम पर्वताकार था और उनके प्रमुख राज्य पदाधिकारी दण्ड उपरिक, प्रमातार, प्रतिहार, कुमारामात्य, पीलुपति और अश्वपति थे। ‘उपरिक’ नामक पदाधिकारी गुप्त काल अर्थात चौथी-पांचवीं शताब्दी में भुक्ति (राज्य/प्रदेश) का सर्वोच्च अधिकारी होता था। ‘प्रमातार’ नामक अधिकारी भूमि पैमाइश का कार्य करता था।

        ब्रह्मपुर राज्य में तृतीय वरीयता का अधिकारी ’प्रतिहार’ था। ‘‘प्रतिहार अन्तःपुर का रक्षक एवं महाप्रतिहार राजमहल के रक्षकों का प्रधान होता था।’’ प्रतिहार और महाप्रतिहार गुप्त काल में केन्द्रीय अधिकारी थे। लेकिन द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र में ’महाप्रतिहार’ राज्य पद उत्कीर्ण नहीं है। जबकि उत्तराखण्ड के कार्तिकेयपुर से निर्गत पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्रां में ’महाप्रतिहार’’ राज्य पद उत्कीर्ण है, ’प्रतिहार’ राज्य पद नहीं। 

        चतुर्थ वरीयता का राज्य पदाधिकारी ’कुमारामात्य’ था। ‘‘अल्तेकर महोदय का मत है कि कुमारामात्य उच्च-पदाधिकारियों का विशिष्ट वर्ग था जो आधुनिक आई. ए. एस. वर्ग के पदाधिकारियों की भाँति था।’’ कुमारामात्य का संधि विच्छेद (कुमार $ अमात्य) के आधार पर कह सकते हैं कि राजकुमार का सलाहाकार ब्राह्मण ’कुमारामात्य’ कहलाता था। पीलुपति और अश्वपति क्रमशः हस्ति और अश्वसेना के प्रमुख थे।

  कुशली-

        पौरव नरेश द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र की चौथी पंक्ति में उल्लेखित ‘कुशली’ एक महत्वपूर्ण शब्द था, जिसका अर्थ- ‘ठीक से हैं’ होता है। मध्य हिमालय क्षेत्र से प्राप्त ताम्रपत्रां और शिलालेखों में ‘कुशली’ शब्द का विशिष्ट स्थान था।  ’कुशली’ शब्द की अभिलेखीय विशेषताएं- 

1- ’कुशली’ शब्द का उपयोग मध्य हिमालय क्षेत्र के प्राचीन ताम्रपत्रों तथा शिलालेखों में शासक और स्थान (राज्य/भुक्ति या विषय) के मध्य किया जाता था।

2- ’कुशली’ शब्द का प्रयोग अभिलेख उत्कीर्ण कर्ता शासक के उपरांत किया जाता था। जबकि अभिलेख में उत्कीर्ण अन्य शासकों के साथ ’कुशली’ शब्द प्रयुक्त नहीं किया जाता था।

पति नामान्त पदाधिकारी-

        द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र की पांचवीं पंक्ति में जयनपति, गजपति, सूपकारपति, नगरपति, विषयपति, भोगिक, भागिक, दाण्डवासिक, कटुक, प्रभृत्यनुजीविवर्ग और सर्वविषय प्रधान आदि राज्य पदाधिकारियों का उल्लेख किया गया है। ‘जयनपति’ हाथी, धोड़े आदि की सुरक्षा कवच को रखने वाला अधिकारी होता था। ‘गजपति’ हाथियों का तथा ‘सूपकारपति’ रसोई का प्रधान होता था। ‘नगरपति’ नगर का तथा ‘विषयपति’ जनपद का अधिकारी होता है। ‘सर्वविषय प्रधान’ सभी जनपदों का प्रधान होता था। सर्व विषय प्रधान पद से स्पष्ट होता है कि ब्रह्मपुर राज्य कई विषयों में विभाजित था।

        भोगिक-भागिक को देवता को भोग लगाने वाले कर्मचारी से तथा कटुक को ‘कटक’ (सेना) से संबद्ध कर सकते हैं। उत्तराखण्ड के कार्तिकेयपुर से निगर्त ताम्रपत्रां में दाण्डवासिक के स्थान पर ‘दाण्डपासिक’ उत्कीर्ण किया गया है। संभवतः यह अधिकारी पुलिस और जेल सुरक्षा से संबद्ध अधिकारी था। प्रभृत्यनुजीविवर्ग का अर्थ इत्यादि सेवक वर्ग होता है। इस ताम्रपत्र के अनुसार राज्य पदाधिकारियों को द्युतिवर्मन ने सेवक वर्ग कहा।

अमात्य भद्र विष्णु-

        छठवीं पंक्ति में प्रतिवासि, कुटुम्बि, कुशलं, पृष्ट्वा, समाज्ञापयति, विदित्त, मिदमस्तु, देव, दोण्यधिकृत, महासत्त्रपति, त्रातैकाकि, स्वामिनानय, विनय, श्रुत और वृत- जैसे शब्दों का उल्लेख किया गया है। इस पंक्ति में उत्कीर्ण दोण्यधिकृत एक राज्य कर्मचारी प्रतीत होते हैं। महासत्रपति जनता के लिए विशाल भण्डारे का आयोजन करता था। सातवीं पंक्ति में सम्पन्नेन, परिव्राड़, ब्रह्मचारि, गौग्गुलिक परिषत्स, हितेन, राजदौवारिक, अग्निस्वामि, कारगिंक, कोटाधिकरणिक के साथ द्युतिवर्मन के अमात्य भद्र विष्णु का उल्लेख किया गया है। राजदौवारिक, अग्निस्वामि और कोटाधिकरणिक आदि भी ब्रह्मपुर के राज्य कर्मचारी थे। मंदिरों में धूप या सुगंध की व्यवस्था हेतु गौग्गुलिक परिषद कार्य करता था।

 वीरणेश्वर की स्तुति-

        आठवीं पंक्ति में देवनिकायेन, विज्ञापितं, सुरासुर, जगदवन्द्यानन्त, मूर्ति, वीरणेश्वर, स्वामि, नाथपादानां, बलि, चरुकसत्त्र, प्रवर्तन, दधिक्षीर और घृत का उल्लेख किया गया है। देवता, संसार, अनन्त, मूर्ति आदि शब्दों का प्रयोग वीरणेश्वर स्वामीनाथ हेतु किया गया है, जिनके चरणों में बलि, चरु, दही, खीर और घृत चढ़ाया जाता था।

        नौवी पंक्ति के स्नपन, गन्ध, धूप, प्रदीप, पुष्पार्चन, प्रकार, सन्मार्ज्जन, उपलेपन, कृषि कर्म्मानुष्ठान, खण्ड, स्फुठितावचटित, पतित, संस्कारार्थ, परहित, और अनुष्ठान आदि शब्दों का प्रयोग वीरणेश्वर की स्तुति और अनुष्ठान हेतु किया गया है।

 अग्रहार-

         प्राचीन भारतीय राज्य दर्शन में राजा द्वारा ब्राह्मणों को भूमि दान करने की परम्परा थी। ब्राह्मण को दान में दी गई भूमि को अग्रहार कहा जाता था। इस ताम्रपत्र की दशवीं और ग्यारहवीं पंक्ति भूमिदान से संबंधित है, जिसमें क्रमशः चरित, व्रतै, युस्मत्पूर्वजै, महाराज, भिरन्यैश्चावनिपति, भिस्तथानेक, धर्म, प्रसव, हेतु, भूर्द्दत्तिदायकैः, स्वश्रेयसे, भूमि, पल्लिका, ग्राम, कर्म्मान्त, विषयास्ताभ्र, पट्ट, पट, वृषतापपत्रैः, अभिलिख्याग्रहाराः, प्रतिपादित, कास्तानि, च शासनान्या, दीप्तकेन और दग्धानि आदि शब्दों का उल्लेख किया गया है। द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र को वृषताप कहा गया, जिसका अर्थ ‘अष्टधातु’ होता है।

 स्थानीय प्रशासन-

        धर्म-संस्कार से संबंधित शब्दों के अतिरिक्त दशवीं पंक्ति के अंतिम दो शब्द और ग्यारहवीं पंक्ति के आरंभिक दो शब्द क्रमशः इस प्रकार से हैं- पल्लिका, ग्राम, कर्म्मान्त और विषय। पल्लिका का अर्थ लघु ग्राम होता है। जबकि कर्म्मान्त का अर्थ स्पष्ट नहीं है। ग्राम के उपरांत और विषय के पूर्व इस शब्द के प्रयोग से अनुमान लगा सकते हैं कि कर्म्मान्त विषय से छोटी और ग्राम से बड़ी स्थानीय प्रशासनिक क्षेत्र था।

        बारहवीं पंक्ति में कालेन, च गच्छता, लुब्धाः, कलि, दोष, ग्रहा, विष्टाः, केचिदसत्, पुरुषा, लेख्यैर्व्विन, अक्षेपं, कुर्युरिति, तदर्हन्ति, भट्टारक, पादाः, शासना आदि शब्दों का उल्लेख किया गया है। भट्टारक एक उपाधि शब्द है, जिसका अर्थ पूज्य या माननीय होता है। पत्र व्यवहार में पूज्यनीय और माननीय शब्दों का प्रयोग आज भी किया जाता है।

 सारांश-

द्युतिवर्मन के ताम्रपत्र की प्रथम बारह पंक्तियां ब्रह्मपुर राज्य के राजनीतिक स्वरूप को अभिव्यक्त करतीं हैं। राज्य का नाम, राजधानी, कुलदेवता, वंश, ब्राह्मण धर्म के अनुयायी आदि की जानकारी इस ताम्रपत्र की आरंभिक दो पंक्तियों से प्राप्त हो जाती है। राजा का नाम, उपाधि और राज्य के उच्च पदों और कर्मचारियों के पदों के नाम भी इस ताम्रपत्र में उल्लेखित हैं। कुल देवता वीरणेश्वर की स्तुति, गौ संरक्षण और अग्रहार व्यवस्था इस पर्वतीय राज्य पर धर्म के प्रभाव को दर्शाते हैं। समग्ररूप से इस ताम्रपत्र की प्रथम बारह पंक्तियां ब्रह्मपुर राज्य का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करतीं हैं।


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

आरंभिक चंद

ललितशूरदेव का 21 वें राज्य वर्ष का पाण्डुकेश्वर ताम्रपत्र-

गंगोली का राजनीतिक भूगोल : एक ऐतिहासिक परिदृश्य-

बटखोरी या बड़ोखरी का दुर्ग

बनकोट