रोहिला आक्रमण -ः तराई-भाबर में झड़प और बड़ोखरी का दुर्ग-

 रोहिला आक्रमण -ः तराई-भाबर में झड़प और बड़ोखरी का दुर्ग-

        कुमाऊँ राज्य पर प्रथम रोहिला आक्रमण सन् 1743-44 ई. में किया गया था। इतिहास में प्रथम बार कुमाऊँ राज्य की राजधानी अल्मोड़ा पर मुस्लिम आक्रमण की सफल योजना रोहिला सरदार अली मुहम्मद (1726-1748) ने तैयार की थी। इस अभियान का तात्कालिक उद्देश्य चंद राजा से प्रतिशोध लेना तथा भविष्य हेतु कुमाऊँ की पहाड़ियों को अपने लिए सुरक्षित करना था। रोहिला सरदार ने 10 हजार की सेना के साथ अपने तीन सरदारों हाफिज रहमत खाँ, पैंदाखाँ और बक्सी सरदार खाँ को कुमाऊँ पर चढ़ाई हेतु भेजा।

        रोहिला आक्रमण दक्षिण दिशा से चंद राज्य पर होने वाला पहला सफल आक्रमण था। अन्यथा इस पर्वतीय राज्य पर नेपाल और गढ़वाल की ओर से ही आक्रमण होते थे। कुमाऊँ राज्य का अस्तित्व चंद काल में आया। सम्पूर्ण कुमाऊँ के प्रथम चंद राजा रुद्रचंद (1565-1597) थे, जिन्होंने मुगल बादशाह अकबर (1556-1605) से तराई-भाबर पर शासन करने का अधिकार सन् 1588 ई. में प्राप्त किया था। इसलिए उन्हें सम्पूर्ण कुमाऊँ का प्रथम चंद राजा कहा जाता है।

         रुद्रचंद के उपरांत लक्ष्मीचंद (1597-1621) और बाजबहादुरचंद (1638-1678) के भी मुगल शासकों से अच्छे संबंध थे। इन चंद शासकों ने मुगल दरबार में अपनी उपस्थिति दर्ज करवायी थी। ये कुमाउनी राजा क्रमशः अकबर, जहाँगीर (1605-1627) और शाहजहाँ (1628-58) के समकालीन थे। रुद्रचंद लाहौर दरबार में तथा लक्ष्मीचंद और बाजबहादुरचंद दिल्ली दरबार में पर्तवीय क्षेत्र की महत्वपूर्ण वस्तुओं को उपहार में लेकर गये थे। मुगलों के समर्थन से ही चंद राजा तराई-भाबर में अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने में सफल रहे थे। 

         औरंगजेब (1658-1707) की मृत्यु के पश्चात मुगलों का पतन आरंभ हो गया था। क्षेत्रीय स्तर पर नवीन राजवंशों का उत्थान और राज्य विस्तार के कारण मुगल राजसत्ता दिल्ली तक ही सीमित हो चुकी थी। इसी अनुक्रम में कुमाऊँ राज्य के दक्षिण में अवध और रोहिला राज्य का उदय हुआ, जो कुमाऊँ के मैदानी क्षेत्र (तराई-भाबर) पर अधिकार को आतुर थे। 

        अठारहवीं शताब्दी में चंद राजा कल्याणचंद (1728-1747) के सिंहासनारूढ़ होने के मात्र तीसरे वर्ष ही अवध के नवाब बुरहान-उल-मुल्क उर्फ सआदत अली खान ने तराई-भाबर के पूर्वी भाग खटीमा क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था, जिसे चंद काल में ‘छिनकी’ परगना और ब्रिटिश काल में ‘बिलहरी’ कहा जाता था।

तराई-भाबर का शासन-

तराई-भाबर क्षेत्र को चंद काल में ‘माल’ कहा जाता था। यह क्षेत्र पर्वतीय भाग के दक्षिण में पीलीभीत-मुरादाबाद तक काली से पश्चिमी रामगंगा तक विस्तृत था, जिसे ‘चौरासी माल’ भी कहा जाता था। ‘‘चौरासी नाम इसलिए कि यह चौरासी कोस लम्बा क्षेत्र था।’’ इस चौरासी माल क्षेत्र को चंद शासकों ने परगनों में बांटा था, जिनमें से भुक्सार, बख्शी, छिनकी, सहजगीर, गदरपुर और मुंडिया प्रमुख परगने थे। फारसी भाषा से प्रभावित मुगल इतिहासकारों ने इस क्षेत्र को ‘दामन-ए-कोह’ कहा था, जिसका अर्थ वह मैदान जो किसी पहाड़ी के नीचे स्थित हो। 

        माल और परगना क्रमशः अरबी व फारसी के शब्द हैं। चंद राज्य व्यवस्था में इन शब्दों का प्रयोग मुगलिया प्रभाव को दर्शाता है। राजा लक्ष्मीचंद के ताम्रपत्रों में कुमाउनी के साथ अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग आरम्भ हो चुका था। जैसे-जैसे मुगल राज व्यवस्था से कुमाऊँ राज्य का सम्पर्क बढ़ता गया, धीरे-धीरे कुमाउनी लेखन में अरबी-फारसी का उपयोग बढ़ता गया। मेरे एक शोध पत्र के अनुसार ताम्रपत्रों में यह उपयोग से 6 से 10 प्रतिशत तक अधिकतम था।

  चंद राजा देवीचंद (1720-1726) के शासन काल में तराई-भाबर के प्रशासन व्यवस्था में हुए परिवर्तन के संबंध में ए. टी. एटकिंसन लिखते हैं- ‘‘उस समय मैदानी परगनों का राजस्व दाउद खान ले रहा था।’’ दाउद खान चंद सेना की तराई-भाबर की टुकड़ी का सेनापति था, जिसे देवीचंद ने मरवा दिया था। रोहिला सरदार अली मुहम्मद इसी दाउद खान का दत्तक पुत्र था।

        रोहिला आक्रमण से पहले कल्याणचंद के शासन काल में तराई क्षेत्र के सरबना और बिलहरी पर अवध के नवाब ने अधिकार कर लिया था। ‘‘कल्याणचंद ने शिवदेव जोशी को मैदान में अपना सूबेदार नियुक्त किया और कुछ समय तक इस योग्य अधिकारी ने ऐसी व्यवस्था की कि अवध-दरबार की तरफ से अतिक्रमणों पर रोक लग गई।’’ रामदत्त अधिकारी को कोटा-भाबर (वर्तमान कोटाबाग क्षेत्र) का प्रशासक नियुक्त किया गया।  

तराई में तैयारी-

कुमाऊँ राज्य पर रोहिला अभियान की सूचना सर्वप्रथम रामदत्त अधिकारी ने अल्मोड़ा प्रेषित की तथा शिवदेव जोशी ने सेना एकत्र करने हेतु धन की मांग की। लेकिन चंद राजा अपने सलाहाकारों के भरोसे पर था कि रोहिला सेना का अल्मोड़ा पहुँचना असंभव है। एडविन थॉमस एटकिंसन हिमालयन गजेटियर में लिखते हैं- 

        ‘‘शिवदेव ने इससे निपटने के लिए धन की मांग भी कर ली थी तथा यह आश्वासन भी दिया था कि अगर धन उपलब्ध हो गया तो रोहिल्ला, कुमाऊँ पर आक्रमण नहीं कर पायेंगे। लेकिन कंजूस राजा कल्याणचंद चुप्पी साधे रहा और कोई कार्यवाही नहीं की। कल्याणचंद के कान में यह बात डाली जा रही थी कि शिवदेव केवल अपना कर्ज चुकाने के लिए रुपयों की मांग कर रहा है।’’

तराई में प्रथम झड़प-

सन् 1743 के ग्रीष्म ऋतु में रोहिला सेना ने कुमाऊँ राज्य के विरूद्ध सैन्य अभियान आरंभ किया। पहली झड़प रुद्रपुर में हुई। सोलहवीं शताब्दी के महान चंद राजा रुद्रचंद ने रुद्रपुर बसाया था, जो ‘भुक्सी’ या ‘भुक्सार’ परगना में स्थित था। युद्ध की तैयारी हेतु चंद राजा कल्याणचंद ने तराई-भाबर के प्रभारी शिवदेव को अतिरिक्त धन नहीं दिया। ऐसी स्थिति में शिवदेव जोशी के नेतृत्व में कुमाउनी सेना ने रुद्रपुर में थोड़ा संघर्ष किया और पराजित हो गये। 

        इस झड़प के संबंध में ए. टी. एटकिंसन लिखते हैं- ‘‘रोहिल्लों ने रुद्रपुर में शिवदेव को हरा दिया और उसे बाराखेड़ी के किले में शरण लेने को मजबूर किया। हाफीज रहमत ने रुद्रपुर में अपना एक सूबेदार नियुक्त कर कुमाउंनियों का पीछा किया तथा भीमताल के नीचे पहाड़ियों की बाहरी श्रृंखला में छखाता परगने में बिजिपुर पर कब्जा कर लिया।’’

छखाता परगना एवं विजयपुर-

        छखाता परगना ब्रिटिश काल में पहाड़ और भाबर में विभाजित था। पहाड़ छखाता में नैनीताल-भीमताल के आस पास का क्षेत्र और भाबर छखाता में हल्द्वानी के आस पास का क्षेत्र सम्मिलित था। पं. बद्रीदत्त पाण्डे लिखते हैं- ‘‘इस परगने में 60 तालाब होने कहे जाते है, जिससे परगने का नाम षष्टिखाता उर्फ छखाता पड़ा।’’ इस परगने की सबसे बड़ी नदी गौला और सबसे ऊँचा पर्वत गागर था, जो भवाली नगर के निकट है।

        विजयपुर छखाता भाबर का एक पर्वतपादीय गांव है, जो भाबर क्षेत्र में स्थित खेड़ा (गौलापार) के पूर्व में प्रवाहित सूकी/सूखी नदी के बायें पार्श्व में  29° 12’ 45’’ उत्तरी अक्षांश और 79° 34’ 32’’ पूर्वी देशान्तर रेखा पर स्थित है। ‘‘राजा विजयचंद की यहाँ गढ़ी थी।’’ इस गढ़ी का प्रयोग चंद राजा आखेट करने हेतु किया करते थे। विजय चंद (सन् 1623-1625) सम्पूर्ण कुमाऊँ के प्रथम चंद राजा रुद्रचंद का पड़पौत्र और राजा दिलीपचंद (सन् 1621-1623) का पुत्र था। 

        विजयपुर को पहाड़ पर चढ़ने की पहली सीड़ी कह सकते हैं, जहाँ सन् 1743 ई. में रोहिला सेना ने अपना पड़ाव डाला था। विजयपुर के उत्तर में कालीचौड़ नामक स्थान है, जहाँ काली मंदिर में रोहिला सेना ने तोड़-फोड़ की थी। यह सुरम्य धार्मिक स्थल काठगोदाम के निकट 29° 14’ 53’’ उत्तरी अक्षांश और 79° 34’ 34’’ पूर्वी देशान्तर रेखा पर स्थित है।

बाराखेड़ी का दुर्ग-

        बाराखेड़ी या बड़ोखरी दुर्ग को इतिहासकार बद्रीदत्त पाण्डे ने गुलाब घाटी (राष्ट्रीय राजमार्ग 87 पर काठगोदाम ) के पास चिह्नित किया। इस दुर्ग को प्रथम रोहिला आक्रमण से संबद्ध करते हुए वह लिखते हैं-

        ‘‘रोहिलों ने शिवदेवजी को रुद्रपुर में हराकर बटोखरी (बड़ोखरी, जो काठगोदाम के पास था) के किले में शरण लेने को विवश किया। हाफिज रहमतखाँ एक प्रतिनिधि को रुद्रपुर में छोड़कर आप स्वयं भागते हुए कुमय्यों के पीछे दौड़ पड़ा और भीमताल के नीचे छखाता में विजयपुर पर अधिकार कर लिया। भागती हुई कुमय्याँ फौज ने पथदर्शक का काम किया। बूढ़ा होने से बक्सी सरदारखाँ बाड़ाखोरी में रहा।’’

        बड़ोखरी का दुर्ग काठगोदाम से मात्र 300 मीटर उत्तर में गुलाब घाटी के पास गौला नदी के बायें तट पर था, जिसे अब शमशेर गढ़ी भी कहा जाता है। यह प्राकृतिक दुर्ग 29° 16’ 35’’ उत्तरी अक्षांश और 79° 32’ 48’’ पूर्वी देशान्तर रेखा पर स्थित है, जहाँ अब आठ परिवार निवास करते हैं। पहाड़ व मैदान के मध्य संकरी घाटी का यह दुर्ग (बड़ोखरी) कुमाऊँ राज्य की सुरक्षा का सबसे महत्वपूर्ण दुर्ग था। रुद्रपुर में रोहिला सेना से पराजित होकर कुमाउनी सेना ने पीछे हटते हुए रानीबाग के पास इस के दुर्ग में मोर्चा संभाला था। 

        रानीबाग को कत्यूरी रानी जियारानी से संबद्ध किया जाता है, जो कत्यूरी राजा प्रीतमदेव की रानी थी। रानीबाग के दक्षिणी छोर पर ही काठगोदाम स्थित है, जिसका नामकरण ब्रिटिश काल में लकड़ी के गोदाम से किया गया था।    

        सन् 1743 ई. में शिवदेव जोशी द्वारा इस दुर्ग की सुरक्षा घेरा बंदी करने से रोहिला सेना ने पहाड़ पर चढने हेतु विजयपुर में डेरा डाला। चंद राजा ने शिवदेव जोशी को और सैन्य सहायता भेजी। लेकिन विजयपुर में भी कुमाउनी सेना पराजित हो गई और पहाड़ की ओर भाग गई। इस हार ने रोहिला सेना को कुमाऊँ की राजधानी (अल्मोड़ा) पहुँचने का मार्ग दे दिया था। 

        रोहिला सेना का एक हिस्सा बक्सी सरदारखाँ के नेतृत्व में बड़ाखोरी में रुक गया। संभवतः पहाड़ और मैदान के मध्य संचार चौकी के रूप में इस दुर्ग का उपयोग रोहिलों ने किया था। कहा जाता है कि सरदार खाँ ने अधिक आयु होने के कारण इस दुर्ग पर ठहरना उचित समझा। यह भी हो सकता है कि रोहिलों ने अग्रिम सेना को सहायता देने हेतु सेना की एक टुकड़ी को जानबूझ कर पीछे रखा हो। क्योंकि पहाड़ के अंतः भाग पर मुस्लिमों का यह प्रथम सैन्य अभियान था। 


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